[ बलबीर पुंज ]: इन दिनों मी टू आंदोलन सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में है। यह एक ऐसा वैश्विक अभियान है जिसमें महिलाओं की ओर से यौन उत्पीड़न के वर्षों पुराने मामले उजागर हो रहे हैं। इस मुहिम के माध्यम से दावा किया जा रहा है कि यह महिलाओं के आत्मसम्मान की रक्षा करने के साथ ही उन्हें ऐसा मंच उपलब्ध कराता है जहां वे निर्भीक होकर अपने साथ हुए यौन दुर्व्यवहार को समाज के समक्ष रख सकती हैं। भारत सहित दुनिया भर में जितने भी आरोपित सामने आए हैं उनमें लगभग सभी उच्च शिक्षित और वरिष्ठ पदों पर आसीन हैं। इसे इस रूप में भी देखा जाए कि आधुनिक शिक्षा और व्यक्तिगत सामाजिक स्तर, जिस पर पाश्चात्य संस्कृति की छाप काफी प्रभावी है, केवल उससे ही किसी भी व्यक्ति का व्यवहार निश्चित और चरित्र का निर्माण नहीं होता। उसमें नैतिक मूल्यों की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है, लेकिन अफसोस इसी बात का है कि हमारे शैक्षिक ढांचे में इसकी व्यवस्था नहीं है।

विडंबना देखिए कि मी टू आंदोलन उस समय चरम पर है जब देश में नवरात्रि के पर्व की धूम है जिसमें देवी के नौ रूपों को पूजा जा रहा है। हमारी सनातन संस्कृति के अनुरूप प्रत्येक स्त्री को सम्मान देने की परंपरा भी स्थापित है, लेकिन क्या यह सनातन चिंतन आज दिन-प्रतिदिन हो रहे घटनाक्रमों में परिलक्षित हो रहा है?

मी टू आंदोलन की गाज बॉलीवुड से जुड़े दर्जनों कलाकारों और निर्देशकों के साथ ही केंद्रीय राज्यमंत्री एमजे अकबर पर भी गिरी है जिन्हें बर्खास्त करने की मांग उठ रही है। ठीक उसी समय कैथोलिक चर्च और उससे संबंधित संगठनों द्वारा केरल की दुष्कर्म पीड़ित नन को लांछित और आरोपित बिशप फ्रैंकों मुलक्कल को बचाने का हरसंभव प्रयास किया जा रहा है। इस घटनाक्रम पर मी टू आंदोलन में मुखर और एमजे अकबर का त्यागपत्र मांगने वाले स्त्री अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले अधिकांश संगठन मौन हैं? क्यों? केरल उच्च न्यायालय ने बीते दिनों दुष्कर्म आरोपी बिशप मुलक्कल को सशर्त जमानत दे दी। इसी पृष्ठभूमि में ‘सेव अवर सिस्टर्स’ नामक समूह ने आरोप लगाया कि चर्च और सत्ता-प्रतिष्ठानों में आरोपित बिशप के समर्थक उसके विरुद्ध मामला खत्म करना चाहते हैं।

यह भी ध्यान रहे कि कोट्टायम के चंगनाशेरी स्थित ‘कैथोलिक फेडरेशन ऑफ इंडिया’ ने कहा था कि ‘यदि ननों ने अब कैथोलिक चर्च के विरुद्ध अभियान का दूसरा चरण आरंभ किया तो वह ननों को कॉन्वेंट से निकालने के लिए प्रदर्शन करेंगे।’ यहां बात केवल इस संगठन तक ही सीमित नहीं है। जालंधर स्थित ‘मिशनरी ऑफ जीसस’ का एक प्रतिनिधिमंडल भी दुष्कर्म आरोपी बिशप को बचाने हेतु 26 सितंबर को दिल्ली में केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन से मिल चुका है। यही नहीं, केरल के एक निर्दलीय विधायक ने तो पीड़िता नन को वेश्या तक बता दिया था।

भारत सहित शेष विश्व में चर्च के भीतर प्रमुख पादरियों द्वारा महिला-बाल यौन शोषण के सैकड़ों मामले आ चुके हैं जिन पर सर्वोच्च कैथोलिक ईसाई संस्था वेटिकन का रवैया भी पीड़ितों से सहानुभूति रखने वाला नहीं दिख रहा है। इन यौनाचारों को पोप फ्रांसिस ‘शैतान के हमले’ बता चुके हैं। पोप फ्रांसिस ने दुनियाभर के कैथोलिक ईसाइयों को एकजुट होकर अक्टूबर में हर दिन प्रार्थना करने को कहा है ताकि चर्च को शैतान से बचाया जा सके। क्या ये ‘शैतान’ यौन उत्पीड़न करने वाले पादरी और बिशप हैं या फिर इनकी शिकार बनी महिलाएं और बच्चे? इस पृष्ठभूमि में चर्च की संवेदनहीनता और पोप के दोहरे रवैये को देखना आवश्यक है।

व्यक्ति के आचरण और व्यवहार में संबंधित संस्कृति और दर्शन का गहरा प्रभाव होता है। ईसाई मत के वांग्मय में महिलाओं की भूमिका का विस्तार से वर्णन है जिसमें उन्हें पुरुषों के अधीन रहने का निर्देश है। कुछ सिद्धांतों में महिलाओं को मानव जाति के पतन का कारण बताया गया है तो कुछ में महिलाओं को शैतान का प्रतिद्वंद्वी माना गया है, क्योंकि उन्हें पुरुषों को प्रलोभित और प्रभावित करने का स्नोत बताया गया है। इन्हीं सिद्धांतों की पृष्ठभूमि में ईसाई समाज के एक वर्ग की मांग के बावजूद चर्च के भीतर महिलाओं के अधिकार नहीं बढ़ाए गए हैं। यही कारण है कि ईसाई बहुल अमेरिका, जिसका संविधान 1787 में लिखा गया था, मेें महिलाओं को वोट का अधिकार देने में 133 वर्ष लग गए। ब्रिटेन, जिसके कुछ अधिनियमों से स्पष्ट होता है कि उसका संविधान सोलहवीं शताब्दी से पहले से भी सक्रिय है, में भी महिलाओं को वोट देने का अधिकार वर्ष 1928 में प्राप्त हुआ।

निर्विवाद रूप से आज पश्चिमी समाज की महिलाएं स्वतंत्र है और वहां सामाजिक व्यवहार की सभी वर्जनाएं ध्वस्त हो चुकी हैं। ध्यान देने की बात यह है कि पश्चिमी समाज में महिलाओं को उसी मात्रा में अधिकार मिलते गए जितना वहां चर्च का प्रभाव क्षीण होता गया। आज पश्चिमी देशों में चर्च के अप्रासंगिक होने के कारण अधिकांश यूरोपीय देशों में गिरजाघर या तो बंद हो गए हैैं या फिर उनकी उपलब्धता में भारी कमी आई है।

ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि बहुसंख्यक हिंदू समाज महिला संबंधी अपराध और कुप्रथाओं से पूरी तरह मुक्त है। सती प्रथा इस समाज का सबसे बड़ा कलंक था, जिसके परिमार्जन हेतु समाज के भीतर से ही प्रबुद्ध लोग आगे आए और संघर्ष किया। अस्पृश्यता के साथ-साथ कालांतर में दहेज-प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या सहित अन्य कुरीतियों के खिलाफ भी कई अभियान चलाए गए जो आज भी जारी हैं। परिणामस्वरूप आज सती प्रथा का काला धब्बा मिट चुका है और दहेज प्रथा और कन्या भ्रूण हत्या का दंश भी धीरे-धीरे ही सही, दम तोड़ रहा है।

मौजूदा दौर में हिंसा और अपराध में लिप्त किशोरवय और युवाओं में भटकाव देखा जा रहा है जिसके पीछे नैतिक शिक्षा का अभाव सबसे बड़ा कारण है। बच्चों को स्वस्थ संस्कार देने के लिए परिवार, विशेषकर माता-पिता और अन्य परिजनों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। आवश्यकता है कि स्कूल-कॉलेजों के पाठ्यक्रमों में आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ अलग से नैतिक मूल्य आधारित शिक्षा को शामिल किया जाए जो समाज में दिनोंदिन बढ़ती हिंसा और समाज को अपराध मुक्त बनाने में मुख्य भूमिका निभा सकती है, किंतु नव-उदारवादियों और प्रगतिशीलवादियों के दृष्टिकोण में इन नैतिक शास्त्रों का कोई मोल नहीं रह गया है। ‘स्वयं का अन्य से’ और ‘व्यक्ति का समाज से’ कैसा संबंध होना चाहिए वह आज के आधुनिकतावाद, भौतिकतावाद और उपभोक्तावाद के दौर में विलुप्त होने के कगार पर है जिसके कारण समाज में अनैतिक कृत्यों का बोलबाला हो गया है।

भारतीय समाज में पनपे इस कुत्सित चिंतन का बड़ा कारण सैकड़ों दशकों पहले उन विदेशी शक्तियों और विचारधारा का आगमन था जो अपने साथ ढेरों कुरीतियां भी लेकर आई। उसी ने कालांतर में देश के एक वर्ग को उसकी मूल संस्कृति और परंपराओं से काट दिया। ऐसा अब भी हो रहा है। भारत में मी टू आंदोलन के अंतर्गत सामने आ रहे मामले और केरल की दुष्कर्म पीड़ित नन के प्रति चर्च का व्यवहार, भारतीय पारिस्थितिकी तंत्र में उसी कटाव से जनित विकृति का मूर्त रूप है।

[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]