[ प्रदीप सिंह ]: आमतौर पर लोगों को जीतने वाले में कोई कमी नजर नहीं आती और हारने वाले में शायद ही कोई खूबी दिखती हो। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की शानदार जीत का असर यह है कि देश भर में विकास के दिल्ली मॉडल की चर्चा हो रही है। नेता जब विकास के मॉडल की बात करते हैं तो उनका आशय अपनी पार्टी के विकास से होता है यानी विकास वह जो चुनाव में जीत दिलाए। 15 साल लगातार दिल्ली का विकास करके शीला दीक्षित आखिर में हार गईं। पांच साल मुफ्त के अर्थशास्त्र से अरविंद केजरीवाल जीत गए।

मुफ्त में कुछ नहीं मिलता, मुफ्त का भुगतान आज नहीं तो कल करना ही पड़ता है

नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन की एक किताब है ‘देअर इज नो सच थिंग एज फ्री लंच’। इसमें उन्होंने लिखा है कि मुफ्त में कुछ नहीं मिलता। इसका भुगतान आज नहीं तो कल और कल नहीं तो परसों करना ही पड़ता है। मुफ्त कही जाने वाली चीजों का भुगतान भी जनता के टैक्स के पैसे से ही करना पड़ता है। यह टैक्स केवल अमीर ही नहीं गरीब भी देते हैं। इस पर अर्थशास्त्रियों में कोई मतभेद नहीं है कि मुफ्त या सस्ती शिक्षा और इलाज से केवल उस व्यक्ति को ही नहीं पूरे समाज का फायदा होता है।

एक ही दवा सबके मर्ज का इलाज नहीं हो सकती, दिल्ली सरकार कर सकती है, बंगाल नहीं

कोई भी सरकार मुफ्त में क्या और कितना दे सकती है, यह इससे तय होना चाहिए कि सरकार के पास इस मद में खर्च करने के लिए अतिरिक्त पैसे हैं या नहीं? केजरीवाल सरकार के पास अतिरिक्त धन था। इसलिए उनके बजट घाटे पर इसका असर नहीं पड़ा। दिल्ली सरकार का कर्ज जितना बढ़ रहा है उससे ज्यादा उसकी आमदनी बढ़ी है, पर यही काम बंगाल की सरकार नहीं कर सकती या कहें कि उसे नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह पहले से ही कर्ज के बोझ से दबी हुई है। इसलिए एक ही दवा सबके मर्ज का इलाज नहीं हो सकती।

मुफ्त की राजनीति की आर्थिक और सियासी कीमत भविष्य में चुकानी पड़ती है

मुफ्त की राजनीति की आर्थिक और सियासी कीमत भविष्य में चुकानी ही पड़ती है। कभी राज्य सरकारों में किसानों को मुफ्त बिजली देने की होड़ लगी थी। नतीजा यह हुआ कि राज्यों के बिजली बोर्ड दिवालिया हो गए। न बिजली रह गई और न बिजली खरीदने के लिए पैसा। इसलिए जिन मुख्यमंत्रियों को लग रहा कि चुनाव जीतने का फार्मूला हाथ लग गया उन्हें थोड़ा ठहरकर विचार करना चाहिए कि केजरीवाल के सामने क्या मुश्किलें आने वाली हैं? मुफ्त बिजली-पानी केवल गरीबों को नहीं, बल्कि अमीरों को भी मिल रहा है। इससे सरकार का अधिशेष कोष घट रहा है।

2013 के बाद से दिल्ली शीला दीक्षित के बनवाए इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ही चल रही है

पिछले पांच साल में केजरीवाल सरकार ने इन्फ्रास्ट्रक्चर शब्द का इस्तेमाल नहीं किया। 2013 के बाद से दिल्ली शीला दीक्षित के बनवाए इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ही चल रही है। इस बीच न तो नए स्कूल, कॉलेज बने हैं न कोई अस्पताल। केजरीवाल सरकार ने न तो कोई फ्लाइओवर बनवाया, न कोई सड़क। डीटीसी का घाटा बढ़ता जा रहा है। तिस पर महिलाओं के लिए बस यात्रा मुफ्त हो गई। पांच साल में सरकार ने नई बसों की खरीदारी नहीं की। इतना कुछ मुफ्त देने के बाद भी केजरीवाल को चुनाव जीतने के लिए हनुमान जी की शरण में जाना पड़ा। अब पार्टी सुंदर कांड के पाठ का भी आयोजन करवाएगी।

मुफ्त का अर्थशास्त्र दोधारी तलवार है

जीवन के हर क्षेत्र में संतुलन बहुत जरूरी होता है। मुफ्त का अर्थशास्त्र दोधारी तलवार है। यह यदि समाज के गरीब तबके को मिले तो उसका उस वर्ग को ही नहीं पूरे सामाजिक वातावरण पर असर पड़ता है। यह समाज में आपसी वैमनस्य को रोकता है। गरीब व्यक्ति को लगता है कि सरकार उसके बारे में भी सोचती है। इससे अमीर-गरीब के बीच बढ़ती खाई से उत्पन्न होने वाले आक्रोश का कुुुछछ हद तक शमन होता है। दूसरा पक्ष यह है कि इससे अपेक्षा बढ़ जाती है। एक समय बाद लाभार्थी के जीवन की यह सामान्य घटना हो जाती है यानी न्यू नॉर्मल बन जाता है। उसे अपेक्षा होती है कि अब कुुुछ और मिलना चाहिए।

मोदी सरकार के मुफ्त देने में रोजगार के नए अवसर पैदा होते हैं

आम आदमी पार्टी और अन्य भाजपा विरोधी दल कहते हैं कि मोदी सरकार भी तो मुफ्त देती है। दो फर्क हैं। उज्ज्वला, शौचालय, पीएम आवास, बिजली कनेक्शन और इसी तरह की दूसरी योजनाओं में से कोई भी योजना लगातार या महीने दर महीने कुछ भी मुफ्त नहीं देती। एक बार सब्सिडी मिलती है। बाकी लोगों को अपना पैसा लगाना पड़ता है। इससे रोजगार के नए अवसर पैदा होते हैं। उज्ज्वला की ही बात करें तो आठ करोड़ से ज्यादा लोगों को सिर्फ गैस का कनेक्शन मुफ्त मिला। अब वे गैस सिलिंडर खुद भरवा रहे हैं। इससे उसी अनुपात में सिलिंडरों का उत्पादन, रसोई गैस की बिक्री, डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क बना है। इससे लोगों को रोजगार मिला है। रसोई गैस के इस्तेमाल से गरीब तबके के लोगों में सशक्तीकरण का भाव आता है और लकड़ी एवं कोयले के धुएं से होने वाली बीमारियों से निजात मिलती है तो उस पर होने वाला खर्च भी बचता है।

पीएम किसान योजना को लागू करने के लिए सरकार को खजाना इजाजत नहीं देता

किसानों को साल में छह हजार रुपये की प्रधानमंत्री किसान मानधन योजना को ‘यूनिवर्सल बेसिक पे’ की दिशा में पहला कदम मानना चाहिए। सरकार इसे लागू इसलिए नहीं कर रही, क्योंकि उसका खजाना इसकी इजाजत नहीं दे रहा। दुनिया भर के अर्थशास्त्रियों का मानना है कि लोगों के हाथ में सीधे नकद राशि देने से उपभोग पर सीधा असर पड़ता है। इसीलिए सब्सिडी के जरिये सामान सस्ता देने के बजाय सब्सिडी की राशि सीधे लाभार्थी के खाते में देने को बेहतर माना जाता है। केंद्र सरकार कई जिंसों के लिए ऐसा कर चुकी है। अब उर्वरक सब्सिडी किसानों के खाते में सीधे भेजने की तैयारी है।

बुनियादी ढांचे के बिना गाड़ी आगे नहीं बढ़ेगी

ये सारी बातें अपनी जगह, लेकिन बुनियादी ढांचे के बिना गाड़ी आगे नहीं बढ़ेगी। केंद्र सरकार इसीलिए अगले पांच साल में इस मद में एक सौ तीन लाख करोड़ रुपये खर्च करने जा रही है।

आप सरकार के लिए अगले पांच साल बीते पांच साल से ज्यादा मुश्किल होंगे

दिल्ली की बात करें तो शीला दीक्षित ने 15 साल में जो इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाया वह सिर्फ आने वाले चुनाव को ध्यान में रखकर नहीं, भविष्य के बारे में सोचकर किया। वह भी अब मरम्मत और इजाफा मांग रहा है। आप सरकार के लिए अगले पांच साल बीते पांच साल से ज्यादा मुश्किल होने वाले हैं। जो दल दिल्ली चुनाव के नतीजों के बाद यूरेका-यूरेका कहकर खुश रहे हैं और यह मान रहे कि उन्हें जीत का फार्मूला मिल गया वे जरा दूध को ठंडा करके पिएं। चुनाव किसी एक योजना से नहीं जीते जाते। मुफ्त लैपटॉप, समाजवादी पेंशन जैसी सौगातें बांटने के बाद भी अखिलेश यादव का काम नहीं बोला। शीला दीक्षित का भी नहीं बोला था, पर केजरीवाल का बोल गया।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं स्तंभकार हैं )