[ विक्रम सिंह ]: हैदराबाद में वीभत्स सामूहिक दुष्कर्म कांड के चारों आरोपियों को पुलिस मुठभेड़ में मार गिराए जाने की घटना ने संसद से लेकर सड़क तक बहस तेज कर दी है। पूरा देश इसी घटना पर ध्यान केंद्रित किए हुए हैै। पुलिस अधिकारियों की मानें तो पुलिस इन चारों आरोपियों को रिमांड पर लेने के बाद विवेचना के क्रम में उन्हें घटनास्थल पर ले गई थी। इसी दौरान आरोपियों ने पुलिस पर आक्रमण कर भागने का प्रयास किया। पुलिस ने भी आत्मरक्षा में गोली चलाई और अंततोगत्वा चारों पुलिस मुठभेड़ में ढेर हो गए। इस मुठभेड की खबर सामने आते ही लोग पक्ष और विपक्ष में खड़े हो गए हैैं।

एक ओर पुलिस को बधाई, तो दूसरी ओर पुलिस पर सवाल

एक समूह कह रहा है कि यही होना चाहिए था। उसने पुलिस को बधाई भी दी। हैदराबाद में तो जश्न जैसा मनाया गया। दूसरा समूह यह कह रहा है कि यह औचित्यपूर्ण नहीं है। पुलिस को और सावधानी बरतनी चाहिए थी। सवाल उठाए जा रहे हैैं कि आखिर किन परिस्थितियों में प्रात:काल आरोपियों को घटनास्थल पर ले जाया गया? क्या वांछित पुलिस बल नहीं था? ऐसा क्या हुआ कि पुलिस को गोली चलानी पड़ी और चारों आरोपियों को निष्क्रिय करना पड़ा। संदेह भरे सवाल उठना स्वाभाविक हैैं, परंतु जो कानूनी स्थिति है उसे भी समझ लेना चाहिए। व्यक्तिगत सुरक्षा या किसी अन्य की सुरक्षा अथवा जीवन को खतरे के आधार पर वांछित बल का प्रयोग किया जा सकता है। यह अधिकार भारतीय दंड संहिता ने प्रदान किया है, लेकिन बल प्रयोग का यह अधिकार मनमाना नहीं है। यदि अनुपातिक बल का प्रयोग नहीं किया गया तो यह अधिकार समाप्त हो जाता है।

हैदराबाद मुठभेड़ की होगी मजिस्ट्रेटी जांच

क्या हैदराबाद पुलिस ने जो बल प्रयोग किया वह वांछित था और उसी अनुपात में इस्तेमाल किया गया जो आवश्यक था या उससे अधिक? आपराधिक दंड संहिता के अंतर्गत हैदराबाद मुठभेड़ की मजिस्ट्रेटी जांच होगी। चूंकि पुलिस मुठभेड़ के मामलों में उच्चतम न्यायालय और मानवाधिकार आयोग की ओर से दिए गए दिशानिर्देशों का भी पालन आवश्यक होता है इसलिए इस मुठभेड़ के मामले में भी एक अपराध पंजीकृत किया जाएगा और उस अपराध की विवेचना क्राइम ब्रांच सीबीसीआइडी करेगी, न कि स्थानीय पुलिस। ऐसी सावधानियां यही सुनिश्चित करने के लिए बरती जाती हैं ताकि यदि पुलिस ने स्वार्थवश या जन भावनाओं के दबाव में कोई मनमाना व्यवहार किया हो तो उसे सामने लाया जा सके।

पुलिस को संविधान और कानून के तहत काम करना होता है

पुलिस की जिम्मेदारी जनभावनाओं के अनुरूप या अपनी इच्छा के अनुरूप काम करने की नहीं होती। उसे संविधान और कानून के तहत मिले अधिकारों के तहत ही काम करना होता है। अच्छा होगा कि हैदराबाद मुठभेड़ की मजिस्ट्रेटी जांच जल्द हो ताकि सच्चाई सामने आ सके। यदि हैदराबाद पुलिस की कोई गलती सामने आती है तो हत्या का मुकदमा कायम होने के साथ मुठभेड़ में शामिल पुलिस कर्मी निलंबित भी होंगे और जेल भी भेजे जाएंगे, लेकिन यदि मुठभेड़ सही मानी जाती है तो पुलिस कर्मी पुरस्कृत भी हो सकते हैैं।

निर्भया के गुनहगारों को सात साल में भी फांसी की सजा नहीं हो पाई

एक बड़े समूह की ओर से हैदराबाद मुठभेड़ को सही बताने का जो काम हो रहा है उसे भी समझने की जरूरत है। देश इससे स्तब्ध है कि निर्भया के गुनहगारों को सात वर्ष के लंबे अंतराल के बाद भी फांसी की सजा नहीं हो पाई। येन-केन प्रकारेण सजा विलंबित ही होती गई। इस विलंब के कारण समझ से परे हैैं। यह देखना दयनीय है कि कानूनों में संशोधन के उपरांत भी हमारी बच्चियों और महिलाओं को किसी प्रकार की राहत नहीं मिली है। दुष्कर्म के मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है। बड़ी संख्या में दुष्कर्म के आरोपी दोषमुक्त हो रहे हैैं।

निर्भया फंड का भी सदुपयोग नहीं हुआ

निर्भया फंड का भी सदुपयोग नहीं हो पा रहा है। पुलिसकर्मियों का प्रशिक्षण वांछित स्तर का नहीं हो पाया है। फास्ट ट्रैक कोर्ट त्वरित गति से मामलों का निस्तारण नहीं कर पा रही हैैं। ऐसे में जन आक्रोश स्वाभाविक है। पुलिस के ऊपर यह दबाव भी रहता है कि वह कोई ऐसी कार्रवाई करे जिससे जनता में एक भरोसा पैदा हो, लेकिन उसकी कार्रवाई विधि सम्मत और कानून की परिधि के अंदर ही होनी चाहिए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि दबाव में आकर वह ऐसे कार्य करने लगे जो गैर-कानूनी हों। उसकी द्वारा की जाने वाली मुठभेड़ फर्जी भी हो सकती है। कहीं भी फर्जी मुठभेड़ पुलिस अपसंस्कृति का भाग नहीं बन सकती। उसे बनने भी नहीं दिया जाना चाहिए, लेकिन इसी के साथ आवश्यकता इसकी भी है कि आततायियों के मन में पुलिस और कानून का भय दिखना चाहिए। यह आज दिखाई नहीं देता।

पुलिस की लापरवाही के चलते आरोपी दोषमुक्त हो जाते हैैं

पुलिस कहीं अपराधियों के प्रति ढिलाई बरतती है तो कहीं चार्जशीट लगाने में देरी करती है। साक्ष्य संकलन में भी लापरवाही दिखती है। इस सबके चलते आरोपी दोषमुक्त हो जाते हैैं या फिर उन्हें आसानी से जमानत मिल जाती है। उन्नाव के ताजा मामले में ऐसा ही हुआ। जिन आरोपियों ने दुष्कर्म पीड़ित महिला को जलाया उन्हें आखिर जमानत कैसे मिल गई? सवाल यह भी है कि जमानत मिलने पर उन पर निगरानी क्यों नहीं रखी गई? 13वें क्रिमिनल लॉ एमेंडमेंट के पारित होने के बाद आइपीसी में धारा 166ए एवं उपधारा ई सम्मिलित की गई थी ताकि यदि कोई पुलिसकर्मी कर्तव्य के प्रति उदासीन हो तो उसके खिलाफ भी अपराध पंजीकृत हो सके। इसमें दो साल तक की सजा का भी प्रावधान है।

लापरवाही बरतने वाले पुलिसकर्मियों पर भी प्रभावी कार्रवाई हो

ऐसे दृष्टांत कम दिखाई देते हैैं कि किसी गैर-जिम्मेदार पुलिसकर्मी को धारा 166ए के अंतर्गत जेल भेजा गया हो। यह अक्षम्य है कि कर्तव्य के प्रति उदासीन पुलिस कर्मचारियों और अधिकारियों के प्रति ढिलाई बरती जाए। पुलिस नेतृत्व से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपराधियों के साथ-साथ अपराध की जांच में लापरवाही बरतने वाले पुलिसकर्मियों पर भी प्रभावी कार्रवाई करे। पुलिस प्रशिक्षण पर विशेष ध्यान देने के साथ ही महिला पुलिसकर्मियों की भर्ती में भी प्राथमिकता बरती जानी चाहिए। अगर बेटियों-महिलाओं की सुरक्षा करनी है तो यह प्राथमिकता के आधार पर करना ही होगा।

दुष्कर्म मामलों में न्याय मिलने में विलंब नहीं होना चाहिए

दुष्कर्म के मामलों में न्याय होने में विलंब के कारण देश की जनता के मन में यह सवाल घर कर रहा है कि निर्भया जैसा खौफनाक मामला सामने आने के बाद आखिर सरकार ने किया क्या? अब यह अनिवार्य है कि फास्ट ट्रैक अदालतों को न केवल सक्रिय किया जाए, बल्कि यह सुनिश्चित किया जाए कि वे एक तय अवधि में मामलों का निस्तारण करें। दुष्कर्म के मामलों में विवेचना 90 दिन के बजाय 45 दिन में की जानी चाहिए। विशेष परिस्थिति में ही यह अवधि न्यायपालिका की अनुमति से ही 45 और दिन बढ़ाई जानी चाहिए।

न्याय प्रक्रिया का निस्तारण 180 दिन के अंदर संपन्न सुनिश्चित हो

बेहतर होगा कि इसके लिए कानून में संशोधन किया जाए। इससे भी आवश्यक यह है कि पुलिस की विवेचना समाप्त होने के बाद समस्त न्याय प्रक्रिया का निस्तारण 180 दिन के अंदर संपन्न करना सुनिश्चित किया जाए। ऐसा करके ही पुलिस और कानून के प्रति लोगों के भरोसे को बल दिया जा सकता है।

( लेखक उत्तर प्रदेश पुलिस के प्रमुख रहे हैैं )