[विवेक काटजू]। Coronavirus: तमाम देश इस वक्त वैश्विक महामारी कोविड-19 के शिकंजे में हैं। पूरी दुनिया पर इसका कितना राजनीतिक एवं आर्थिक प्रभाव पड़ेगा वह इस पर निर्भर करेगा कि यह बीमारी कितनी लंबी खिंचेगी और इससे कितना नुकसान होता है। फिलहाल तो सभी देश हरसंभव तरीके से इससे निपटने में जुटे हैं। चूंकि अभी तक इस बीमारी का कोई इलाज नहीं तलाशा जा सका है तो सभी देश इससे बचाव के लिए सामुदायिक कदमों का सहारा ले रहे हैं, ताकि इसका फैलाव रोका जा सके।

कोविड-19 महामारी : इन कदमों की सफलता प्रत्येक देश की राजनीतिक इच्छाशक्ति और सामाजिक अनुशासन पर निर्भर करेगी। साथ ही यह भी देखना होगा कि इन देशों की सरकारें इस मुश्किल वक्त में गरीबों तक मदद कैसे पहुंचा पाती हैं। यह अच्छी बात है कि मोदी सरकार कोविड-19 महामारी के नियंत्रण के लिए सभी जरूरी कदम उठाने के साथ ही आश्वस्त कर रही है कि वंचित वर्ग की जरूरतों को पूरी गंभीरता के साथ पूरा किया जाएगा। इस मुश्किल घड़ी में भारतीय राजनीतिक वर्ग से भी यही अपेक्षा है कि वह एकजुटता दिखाए।

आर्थिक दुष्प्रभाव की तपिश : हाल-फिलहाल इस बीमारी से जुड़े वैश्विक रुझानों का पूरी तरह आकलन करना खासा मुश्किल है। जब यह बीमारी थमेगी तभी तस्वीर स्पष्ट होगी, लेकिन कुछ शुरुआती संकेत दिखाई पड़ने लगे हैं। दुनियाभर में इतने बड़े पैमाने पर लॉकडाउन और आपूर्ति शृंखला में गतिरोध से आर्थिक वृद्धि प्रभावित होनी तय है। इस आर्थिक दुष्प्रभाव की तपिश प्रत्येक देश को झेलनी होगी। हालांकि यह मार सभी पर बराबर नहीं पड़ेगी। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा गरीब देशों को भुगतना होगा। चीन ने तो जल्द ही अपनी फैक्ट्रियों से उत्पादन शुरू करने के संकेत दिए हैं। चूंकि चीन मुख्य रूप से अपने निर्यात पर निर्भर है और जब तक उससे आयात करने वाले देशों में हालात पूरी तरह नहीं सुधरते तब तक उसे भी मुश्किलों से ही दो-चार रहना पड़ सकता है।

वैश्वीकरण विरोधी मुहिम : मौजूदा परिदृश्य में यह अनुमान लगाना और भी मुश्किल है कि अगर यह महामारी भारत जैसे बड़े देशों में और कदम फैलाती है तो वैश्वीकरण जैसी प्रक्रिया कितनी प्रभावित होगी। क्या देश आत्मनिर्भरता पर जोर देंगे और वैश्वीकरण को लेकर एहतियात बरतेंगे। वर्तमान में यदि उच्च तकनीक वाले रक्षा उपकरणों को छोड़ दिया जाए जिस पर कुछ देशों का सीधा नियंत्रण है तो मौजूदा अंतरराष्ट्रीय मॉडल वैश्विक उत्पादन पर केंद्रित है। मिसाल के तौर पर किसी मोबाइल फोन में लगने वाले विभिन्न पुर्जे जरूर अलग-अलग देशों में बनते हों, लेकिन फोन विनिर्माता कंपनी का मालिक किसी और देश का हो सकता है। निश्चित रूप से तमाम दिग्गज देश और बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस पर विचार करेंगी कि इस गतिरोध से कैसे बचा जाए जैसा फिलहाल वैश्विक उत्पादन के मोर्चे पर उत्पन्न हो गया है। ऐसे में वैश्वीकरण विरोधी मुहिम और जोर पकड़ सकती है।

चीन की बेचैनी जाहिर : इसमें कोई संदेह नहीं कि कोविड-19 बीमारी चीन से निकली और उसकी एजेंसियां इसे समय पर काबू करने में नाकाम रहीं। अब अंतरराष्ट्रीय समुदाय की आलोचना से बचने के लिए चीनी एजेंसियां कह रही हैं कि भले ही इस वायरस के शुरुआती संकेत चीन में मिले हों, लेकिन जरूरी नहीं कि यह वहीं पनपा हो। कुछ चीनी अधिकारी तो यहां तक आरोप लगा रहे हैं कि अमेरिकी सेना ने चीन में यह वायरस छोड़ा। यह बहुत बेतुकी बात है, लेकिन इससे चीन की बेचैनी ही जाहिर होती है। दूसरी ओर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इस महामारी को चीनी वायरस का नाम दे रहे हैं। वैसे यह समय आरोप- प्रत्यारोप का नहीं, बल्कि वैश्विक सहयोग का है, लेकिन लगता यही है कि आने वाले दिनों में अमेरिका और चीन का एक दूसरे के प्रति नकारात्मक रवैया बढ़ने वाला है।

US और चीन के बीच प्रतिस्पर्धा : अमेरिका और चीन के बीच प्रतिस्पर्धा और बढ़ेगी। पूरी दुनिया इससे प्रभावित होगी। इस बीच चीन दुनिया के सामने यह मिसाल पेश करने का प्रयास भी करेगा कि उसके तंत्र ने इस आपदा पर एक निश्चित समयावधि में काबू पा लिया। इसके दम पर वह विकासशील देशों में स्वास्थ्य ढांचा विकसित करने में मदद की पेशकश करेगा। हालांकि गरीब देश चीन की उन परंपराओं को लेकर नाखुशी ही जाहिर करेंगे जिनके चलते वह अतीत से लेकर अब तक महामारियों का उद्गम बिंदु साबित हुआ है, लेकिन वे शायद चीनी मदद का मोह भी नहीं छोड़ पाएंगे। हालांकि अफ्रीकी देशों में जहां बीते ढाई दशकों के दौरान चीनी समुदाय की पैठ बढ़ी है वहां इन समुदायों को शायद चीन विरोधी भावनाओं के उबाल से रूबरू होना पड़े।

जो भी हो, अमेरिका हर एक देश में चीन की काट के लिए तत्पर होगा। भले ही ट्रंप दुनियावी मामलों में अमेरिकी दखल कम करने के इच्छुक रहे हों, लेकिन अब उन्हें अमेरिकी वर्चस्व को कायम रखने के लिए चीन की हर मोर्चे पर काट के लिए मजबूर होना पड़ेगा। इस कूटनीतिक मुकाबले में अमेरिका को अपने वित्तीय संसाधनों का उपयोग बहुत समझदारी से करना होगा भले ही उसके पास वित्तीय और तकनीकी खजाना चीन से कितना ही बड़ा क्यों न हो। अमेरिका के साथ असल समस्या उसकी विभाजित राजनीतिक बिरादरी है जो ट्रंप के दौर में और ज्यादा बंट गई है। इस साल वहां राष्ट्रपति चुनाव भी होने हैं। अगर बहुत ज्यादा अमेरिकी कोविड-19 की भेंट नहीं चढ़ते और ट्रंप के डेमोक्रेटिक प्रतिद्वंद्वी उन पर इसका ठीकरा फोड़ने में नाकाम रहते हैं तब ट्रंप को दोबारा राष्ट्रपति बनने में बहुत ज्यादा मुश्किलें पेश नहीं आने वालीं।

कोविड-19 के साथ ही यह मांग जोर पकड़ेगी कि भविष्य में ऐसी आपदा से निपटने के लिए वैश्विक समुदाय को बेहतर तैयारी करनी चाहिए। इसके लिए न केवल आपात उपाय करने होंगे, बल्कि आपदाओं को रोकने के लिए निगरानी तंत्र भी मजबूत करना होगा। इसके लिए जरूरी होगा कि चीन उन स्रोतों पर विराम लगाए जहां से कोरोना जैसे वायरस उपजते हैं। ये अमूमन चीन के उन बाजारों से ही पनपते हैं जहां किस्म-किस्म के पशु-पक्षी मांसाहार के लिए बिकते हैं। इसमें चीनी आश्वासन ही काफी नहीं होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन को जमीनी हालात की निगरानी का अधिकार भी देना होगा। चीन ऐसे किसी भी कदम का विरोध करेगा, लेकिन भारत सहित पूरी अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को उस पर इसके लिए दबाव डालना चाहिए।

(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)