[ डॉ. एके वर्मा ]: हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वसम्मति से समलैगिकों द्वारा पारस्परिक सहमति से बनाए यौन संबंधों को निरपराध घोषित कर भारतीय दंड संहिता यानी आइपीसी की धारा 377 को समलैंगिकों की समानता, आत्मसम्मान और निजता के अधिकार का हनन करने वाला करार दिया। सदियों से जो लैंगिक-व्यवहार सामाजिक नैतिकता के प्रतिकूल था और अपराध था उसे पांच माननीय न्यायाधीशों ने विधिक और संवैधानिक मान्यता प्रदान कर दी। ऐसा करने में न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने इसी विषय पर 2013 में दिए अपने फैसले को पलट दिया और 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले पर मुहर लगा दी जिसने धारा 377 को गैर-संवैधानिक घोषित किया था।

जहां मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने सामाजिक और संवैधानिक नैतिकता में फर्क किया वहीं न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने ‘सामान्य यौन व्यवहार’ की अवधारणा को समलैंगिकों के प्रति बहुसंख्यक सामाजिक दृष्टिकोण से नियंत्रित बताया और न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा ने तो इतिहास से अपेक्षा की कि वह इसके लिए समलैंगिकों से माफी मांगे। इस मुकदमे में आए फैसले ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। पहला सवाल तो यही है कि संवैधानिक नैतिकता और सामाजिक नैतिकता अलग-अलग हैं जरूर, परंतु क्या संवैधानिक नैतिकता की रचना ऐसी होनी चाहिए जो स्थापित सामाजिक नैतिकता के विरुद्ध हो? और क्या न्यायपालिका इस बदलाव का सही अभिकरण है?

अपेक्षा तो यह होती है कि ऐसे कानून बनें या कानूनों की ऐसी व्याख्या हो जो समाज की नैतिकता के अनुरूप हो जिससे प्रत्येक नागरिक कानून और नैतिकता का पालन एक साथ कर सके, लेकिन इसके विपरीत निर्णय लेकर कहीं हम एक को दूसरे के विरुद्ध तो खड़ा नहीं कर रहे तथा कानून और नैतिकता में बंटे समाज की ओर तो अग्रसर नहीं हो रहे हैं? दूसरा सवाल यह है कि जब संविधान पूरी जनता के लिए होता है तो क्या संवैधानिक नैतिकता के मानक बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के लिए अलग-अलग होंगे?

नैतिकता एक संवेदनशील मुद्दा है। विधिसम्मत, लेकिन नैतिकता के विरूद्ध किसी व्यक्ति या समूह का व्यवहार समाज में टकराव को जन्म दे सकता है। न्यायपालिका संवैधानिक लोकतंत्र की रक्षक है और जनता में उसका बहुत सम्मान है, लेकिन यदि न्यायिक निर्णयों से सामाजिक नैतिकता आहत होती है तो क्या फिर भी जनता की आस्था न्यायपालिका में वैसी ही बनी रहेगी? लोकतंत्र में सरकार जनता की होती है और न्यायपालिका भी सरकार का ही एक अंग है। सभी की कोशिश यही होनी चाहिए कि न्यायिक निर्णयों, संविधान, सामाजिक मूल्यों और जनभावना में समरसता बनी रहे।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जो संवैधानिक नैतिकता समलैंगिकों के बारे में स्थापित की गई उसे सामाजिक नैतिकता की मान्यता नहीं है। क्या इससे अधिकार और स्वतंत्रता की आड़ में मनचाहे सामाजिक व्यवहार को बढ़ावा नहीं मिलेगा? फिर राज्य के कुछ अभिकरणों जैसे सेना, अर्धसैनिक बलों और पुलिस में अनुशासन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि इन अभिकरणों में भी समलैंगिक हो सकते हैं जो अपने अधिकारों के लिए खड़े हो सकते है और सुरक्षा बलों की संपूर्ण कार्यसंस्कृति और क्षमता पर प्रभाव डाल सकते हैं। तो क्या एक अल्पसंख्यक और सामाजिक रूप से अलग व्यवहार करने वाले समूह के अधिकारों के लिए राष्ट्र की सुरक्षा को दांव पर लगाया जा सकता है?

हमें यह भी सोचना होगा कि समाज में बच्चों की मानसिकता को यह निर्णय किस प्रकार प्रभावित करेगा? बच्चों और अवयस्कों में अपने बड़ों के सामाजिक और लैंगिक व्यवहार को प्रतिमान मानने की प्रवृत्ति होती है, लेकिन अब उनमें यह भावना आ सकती है कि यदि वे सामाजिक मूल्यों, मान्यताओं के विपरीत जाकर भी कोई व्यवहार करते हैं तो वैयक्तिक स्वतंत्रता के नाम पर भविष्य में उसे भी कभी संवैधानिक नैतिकता की मान्यता मिल सकती है। बच्चों और बड़ों की ऐसी विभाजित मानसिकता से ग्रस्त भावी समाज का स्वरूप कैसा होगा? हर समाज को अपनी स्वतंत्रता को एक सांस्कृतिक लक्ष्मण रेखा में बांधना पड़ता है।

वैश्विक परिवेश में विभिन्न संस्कृतियों का तेजी से मेलजोल होता है और उनमें एक-दूसरे से प्रभावित होने की प्रवृत्ति होती है। समलैंगिकों के अधिकारों का विचार पश्चिम से आयातित है। क्या पाश्चात्य संस्कृति से उपजे विचारों और मांगों को आधार बनाकर हम कानून द्वारा भारतीय संवैधानिक नैतिकता को परिभाषित करेंगे जो स्वयं भारतीय सामाजिक नैतिकता को चुनौती दे? क्या यह भारतीय संस्कृति और मूल्यों को पाश्चात्य संस्कृति और मूल्यों का बंधक बनाने जैसा नहीं? नि:संदेह न्यायालय के निर्णय को तो शिरोधार्य करना ही होगा, लेकिन जिस प्रकार आज के सर्वोच्च न्यायालय ने कल के अपने ही निर्णय को पलट दिया है उसी प्रकार यह संभव है कि कल का सर्वोच्च न्यायालय समलैंगिकों पर अपने निर्णय की पुनर्समीक्षा कर उसे बदल सके, क्योंकि सामाजिक नैतिकता अधिक दिनों तक संवैधानिक नैतिकता की बंधक नहीं रह सकती और लोकतंत्र में उसे परिभाषित करने का अधिकार भी बहुसंख्यक का ही होना चाहिए अन्यथा अल्पसंख्यक मूल्यों और मान्यताओं पर आधारित संवैधानिक नैतिकता लोकतांत्रिक व्यवस्था की मूल अवधारणा पर ही एक प्रश्नचिन्ह लगा देगी।

प्रत्येक समाज अन्याय, शोषण और संघर्ष की प्रक्रिया से होकर गुजरता है। यही सामाजिक विकास की यात्रा का चरित्र है। इसमें विभिन्न सामाजिक, संवैधानिक और अन्य संस्थाएं तथा वैयक्तिक नेतृत्व समय-समय पर हस्तक्षेप कर समाज को नई-नई दिशा देते रहते हैं। जब भी किसी अन्याय और शोषण पर विराम लगता है तो न्याय और अधिकारों की स्थापना होती है, लेकिन शोषण, अन्याय और उसके विरुद्ध संघर्ष की पृष्ठभूमि के बावजूद प्रत्येक समाज को अपने इतिहास पर गौरव करने का अधिकार है, क्योंकि वही गौरव उसे आगे जाने और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष जारी रखने की ऊर्जा एवं प्रेरणा देता है।

यदि किसी समाज से अतीत के अन्याय के लिए माफी मांगने को कहा जाए तो उसका मनोबल गिरेगा और एक भावना यह घर कर जाएगी कि आज के मान्य सामाजिक व्यवहार के लिए कहीं कल उसे माफी न मांगनी पड़े? प्रत्येक समाज के सामने यह विकल्प खुला है कि वह अपने इतिहास को ‘माफीनामे’ के इतिहास के रूप में पेश करे या एक ‘गौरव-गाथा’ के रूप में। हालांकि इनमें से किसी भी विकल्प का चयन करने में कानून और नैतिकता में संतुलन बनाए रखना बहुत जरूरी।

[ लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक एवं स्तंभकार हैं ]