रिजवान अंसारी। भले ही दिल्ली के अस्पतालों में बाहरी-भीतरी के खेल पर मुख्यमंत्री और उप-राज्यपाल के बीच रस्साकशी खत्म हो गई हो, लेकिन यह बहस यहीं खत्म नहीं होती। आने वाले दिनों में यह मुद्दा बार-बार बहस के केंद्र में आता रहेगा। यह बहस का मुद्दा इसलिए भी होना चाहिए कि ये मामले नागरिकों के मौलिक अधिकार से संबंधित हैं और सरकार के ऐसे आदेश नागरिकों को उनके मौलिक अधिकार से वंचित कर सकते हैं। दिल्ली सरकार के ऐसे कार्यकारी आदेश किस तरह संवैधानिक प्रावधानों को मुंह चिढ़ाते नजर आते हैं, उसका अंदाजा इसी से लगा लें कि सरकार के इस आदेश से दिल्ली की एक बड़ी आबादी एक ही झटके में बुनियादी सुविधा से वंचित हो जाती।

हालांकि यह पहला मामला नहीं है जब दिल्ली सरकार ने ऐसे कार्यकारी आदेश दिए हों। वर्ष 2018 में भी अस्पतालों को लेकर ही दिल्ली सरकार ने ठीक ऐसा ही आदेश जारी किया था और तब ही दिल्ली हाई कोर्ट ने साफ कहा था कि सरकार का आदेश असंवैधानिक है। इसके बावजूद सरकार ने अगर यह आदेश दोहराया, तो लगता है कि इस मसले पर एक ठोस बहस हो और फिर सबकुछ साफ हो।

भारतीय संविधान संघीय है और यहां दोहरी राजपद्धति है। लेकिन संविधान में एकल नागरिकता की ही व्यवस्था की गई है। यानी हर व्यक्ति भारत का नागरिक है, ना कि किसी राज्य का। अमेरिका और स्विटजरलैंड जैसे देशों में संघीय व्यवस्था है और वहां दोहरी नागरिकता पद्धति को अपनाया गया है। लेकिन दोहरी नागरिकता में व्यक्ति को देश की सुविधा तो प्राप्त होती ही है, उस राज्य की विशेष सुविधा भी प्राप्त होती है जहां की नागरिकता उसे हासिल है। यानी दोहरी नागरिकता होने के कारण उसे दोहरे अधिकार भी प्राप्त होते हैं। इस व्यवस्था में भेदभाव की समस्या पैदा हो सकती है। राज्य अपने निवासियों में मताधिकार, सार्वजनिक पदों, व्यवसाय आदि को लेकर भेदभाव कर सकता है। इसी समस्या को दूर करने के लिए ही भारत में एकल नागरिकता की व्यवस्था की गई है। फिर संविधान में यह प्रावधान है कि भारत का नागरिक देश के किसी भी कोने में निवास कर सकता है और नागरिक चाहे जहां भी निवास करे उसे मौलिक सुविधाओं और अधिकारों की जरूरत तो होती ही है। इससे पता चलता है कि जो नागरिक जहां निवास करेगा, वहां वह अपने मौलिक अधिकारों का प्रयोग कर सकता है।

इसी को ध्यान में रखते हुए 1996 में पश्चिम बंगाल खेत मजदूर समिति बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्वास्थ्य सुविधा को अनुच्छेद-21 के जीने के अधिकार का एक अंग माना था। कोर्ट ने तब दिशा-निर्देश जारी करते हुए कहा था कि कोई भी अस्पताल किसी भी मरीज के इलाज से इन्कार नहीं कर सकता और इसे हर राज्य में लागू करने का आदेश दिया था। चूंकि स्वास्थ्य का अधिकार मौलिक अधिकार के तहत आता है, इसलिए इसे देश के किसी भी कोने में बिना भेदभाव के हासिल किया जा सकता है।

वर्ष 2018 में जब दिल्ली सरकार ने गुरु तेग बहादुर अस्पताल में दिल्लीवासियों को प्राथमिकता देने की बात की थी, तब भी सरकार ने संसाधन की कमी का तर्क दिया था। लेकिन कोर्ट ने सरकार के इस तर्क को खारिज कर दिया और कहा कि राज्य वित्तीय समस्याओं या बुनियादी ढांचे और मैन पावर की कमी का हवाला देकर अपने संवैधानिक दायित्वों से पीछा नहीं छुड़ा सकता। कोर्ट ने सरकार के आदेश को असंवैधानिक बताते हुए कहा कि अनुच्छेद-21 के जीने का अधिकार में स्वास्थ्य का अधिकार भी निहित है और अनुच्छेद-14 के समानता का अधिकार के तहत सरकार की जिम्मेदारी है कि वह नागरिकों में भेदभाव न करे।

संविधान के मुताबिक कोई भी वर्गीकरण तभी उचित माना जाएगा जब उसके लिए दिए गए तर्क वाजिब हों, यानी संविधान के अनुसार यह उचित वर्गीकरण तभी माना जाएगा जब एक को अंदर करने और दूसरे को बाहर करने के बीच एक तार्किक संबंध हो। लेकिन दिल्ली सरकार के इस आदेश में ऐसी कोई तार्किकता नजर नहीं आ रही थी। सरकार का आधार केवल संसाधन की कमी था जो किसी भी वर्गीकरण का आधार नहीं हो सकता। एक ही तरह के लोगों को दो वर्गों में इस तरह विभाजित नहीं किया जा सकता कि देश का एक नागरिक तो एक अस्पताल में इलाज की सुविधा हासिल करता रहे, लेकिन दूसरा नागरिक सुविधा से वंचित रहे। वर्ष 2018 के दिल्ली हाई कोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई और इस पर रोक लगाने की मांग की गई। लेकिन कोर्ट ने सरकार की मांग को खारिज कर दिया। यानी सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बात पर मुहर लगा दी कि सरकार का कार्यकारी आदेश अंसवैधानिक था।

मौजूदा वक्त में देश एक महामारी के संकट से जूझ रहा है। महामारी के समय सरकारें एपिडेमिक डिजीजेज एक्ट, 1897 के तहत काम करतीं हैं। इस कानून में राज्य सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि वे खतरनाक महामारी से निपटने के लिए विशेष व्यवस्था कर सकती है। चूंकि स्वास्थ्य राज्य सूची का मामला है और राज्य सरकारों को इस विषय पर कानून बनाने का पूरा अधिकार है। लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि वे संवैधानिक दायरे से बाहर जा कर कोई व्यवस्था करें। समझने की जरूरत है कि ऐसे सभी अधिकार जो संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों के सीमा क्षेत्र में आने वाला मामला हो, उसका प्रयोग करने से किसी भी नागरिक को वंचित नहीं किया जा सकता है।

[स्वतंत्र टिप्पणीकार]