नई दिल्ली, प्रकाश सिंह। केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो यानी सीबीआइ समय-समय पर विवादों के घेरे में आती रही है। यह भी कहा जा सकता है कि जब-जब सीबीआइ पर राजनीतिक दबाव पड़ा तब-तब उसकी कार्यप्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लगे। 1984 में सीबीआइ ने जब जगदीश टाइटलर को बेदाग करार दिया तब उस समय बहुत से लोगों ने उस पर अंगुली उठाई। बाद में मुलायम सिंह और मायावती के विरुद्ध आय से अधिक संपत्ति के मामलों में भी सीबीआइ ने लीपापोती की। फलस्वरूप ये दोनों नेता कानून की पकड़ से बच गए। बोफोर्स तोप की खरीद में भी सीबीआइ की निष्पक्षता पर सवाल उठे। दरअसल जो भी पार्टी सत्ता में रही उसने सीबीआइ का दुरुपयोग किया। एक बार सत्तारूढ़ पार्टी के वरिष्ठ नेता ने तो खुलेआम विरोधियों को धमकाते हुए कहा था कि हमारे पास सीबीआइ है।

वर्तमान में सीबीआइ में जो उठापटक जारी है, उसके पीछे भी राजनीतिक हस्तक्षेप है। सत्तारूढ़ पार्टी राकेश अस्थाना को सीबीआइ में वरिष्ठतम पद पर बैठाना चाहती थी। वह ऐसा नहीं कर पाई, परंतु उसने निदेशक की आपत्ति के बावजूद उन्हें विशेष निदेशक बना दिया। निदेशक का कहना था कि अस्थाना की पृष्ठभूमि स्वच्छ नहीं है, इसलिए वह सीबीआइ के उपयुक्त नहीं हैं, परंतु मुख्य सतर्कता आयुक्त यानी सीवीसी ने अस्थाना का समर्थन किया और वह सीबीआइ में दूसरे वरिष्ठतम पद पर नियुक्त हो गए।

सीबीआइ के निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के बीच हमेशा खींचतान रही। दोनों के बीच लगभग एक साल से मनमुटाव चला आ रहा था। दुर्भाग्य से भारत सरकार ने उनके बीच की समस्याओं को सुलझाने का कोई प्रयास नहीं किया। कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रलय, जिसके अधीन सीबीआइ आती है, ने कोई बीचबचाव नहीं किया। सीवीसी भी तमाशा देखते रहे। फलस्वरूप स्थिति बिगड़ती गई। दोनों के बीच आरोप-प्रत्यारोप चलते रहे। जब पानी सिर से पानी ऊपर बहने लगा तब केंद्र सरकार ने हस्तक्षेप किया। सीवीसी की रिपोर्ट के आधार पर दोनों अधिकारियों को छुट्टी पर भेज दिया गया और एक संयुक्त निदेशक नागेश्वर राव को एजेंसी का अंतरिम कार्यभार दे दिया गया। सीबीआइ के वे अधिकारी जो निदेशक के समीप थे और जो विशेष निदेशक के विरुद्ध जांच कर रहे थे उन्हें दूरस्थ स्थानों पर स्थानांतरित कर दिया गया। इस समूचे प्रकरण में कुछ बातें खासतौर से उभरकर सामने आती हैं।

पहली तो यह कि राकेश अस्थाना को बराबर इस बात का अहसास था कि उन्हें राजनीतिक समर्थन हासिल है इसलिए वह जो चाहे कर सकते हैं। सामान्यत: किसी भी पुलिस विभाग में नंबर दो के अधिकारी की हिम्मत नहीं होती कि वह नंबर एक अधिकारी के आदेशों की अवहेलना करे परंतु अस्थाना लगातार ऐसा करते रहे। यहां तक कि उन्होंने सीवीसी के पास शिकायती पत्र भी भेजा। सीबीआइ ने दिल्ली उच्च न्यायालय में राकेश अस्थाना पर आरोप लगाया है कि वह जांच की आड़ में वसूली का रैकेट चला रहे थे। एक जनहित याचिका के अनुसार उन पर कई मुकदमें भी चल रहे हैं।

उन पर यह भी आरोप है कि अपनी बेटी की शादी के दौरान उन्होंने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए कई होटलों में समारोह आयोजित किए। सीबीआइ के झगड़े में सीवीसी की भूमिका निष्पक्ष नहीं नजर आती। निदेशक ने सीवीसी से अस्थाना के शिकायती पत्र की प्रतिलिपि मांगी थी। यह उन्हें नहीं उपलब्ध कराई गई, यद्यपि पत्र के उद्धरण समाचार पत्रों में प्रकाशित हुए। बाद में सीवीसी ने भारत सरकार को जो पत्र लिखा उसे पढ़ने से पक्षपात का आभास होता है। उधर सीवीसी की मानें तो निदेशक उनके साथ जांच में सहयोग नहीं कर रहे थे, बल्कि अड़ंगा लगा रहे थे और जरूरी फाइलें नहीं दे रहे थे। जो भी हो, भारत सरकार ने सीवीसी के पत्र के आधार पर ही वर्मा और अस्थाना दोनों को छुट्टी पर भेजा।

भारत सरकार ने जिस तरह आधी रात को सीबीआइ में तख्तापलट किया उसकी आवश्यकता समझ में नहीं आती। सीबीआइ निदेशक के पास कोई फौज तो है नहीं जिससे वह विरोध करते। वह सादे कपड़े वाले अधिकारी हैं। बाकी सभी कर्मी भी सादे कपड़े में कार्य करते हैं। सुबह दस बजे बड़ी आसानी से भारत सरकार के आदेशों का अनुपालन सुनिश्चित किया जा सकता था। यह भी दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिस अफसर को निदेशक का कार्यभार अंतरिम रूप से दिया गया उसकी सत्यनिष्ठा पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। इस सबके बीच सारा मामला सुप्रीम कोर्ट चला गया। कई बिंदुओं पर कानूनी राय अलग-अलग है। क्या भारत सरकार को सीबीआइ निदेशक को छुट्टी पर भेजने का अधिकार था? चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआइ निदेशक का न्यूनतम कार्यकाल दो वर्ष निर्धारित किया है इसलिए इससे पहले उन्हें कार्यभार से वंचित करने को लेकर सवाल उभर रहे हैं। क्या यह आवश्यक नहीं था कि चयन समिति के तीनों सदस्यों यानी प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और नेता प्रतिपक्ष की इस संबंध में राय ली जाती?

सुप्रीम कोर्ट ने पूरे मामले का संज्ञान लेते हुए आदेश दिया है कि सीबीआइ निदेशक और विशेष निदेशक के विरुद्ध आरोपों की जांच केंद्रीय सतर्कता आयोग पूरी करे। जांच का पर्यवेक्षण सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस एके पटनायक करेंगे। अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि यह मामला राष्ट्रीय महत्व का है और चूंकि इसमें कोई देरी नहीं की जा सकती इसलिए जांच दो हफ्तों में पूरी की जाए। सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम निदेशक नागेश्वर राव के बारे में कहा है कि वह इस अवधि में सीबीआइ की केवल प्रशासनिक व्यवस्था देखेंगे और कोई नीतिगत निर्णय नहीं लेंगे। शीर्ष कोर्ट ने केंद्र सरकार को अंतरिम निदेशक द्वारा लिए गए निर्णयों को एक बंद लिफाफे में देने को भी कहा है। उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से सीबीआइ का मौजूदा विवाद कुछ समय में सुलझ जाएगा और इस संस्था में जल्द ही एक कुशल अधिकारी की निदेशक के रूप में नियुक्ति होगी और जांच एजेंसी की गाड़ी फिर से धीरे-धीरे पटरी पर आ जाएगी। यह उम्मीद पूरी होने के साथ ही यह भी होना चाहिए कि सीबीआइ के बारे में दूरगामी निर्णय लिए जाएं। इसकी सख्त आवश्यकता है।

यह हास्यास्पद है कि आज भी सीबीआइ दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट, 1946 के तहत ही कार्य करती है। पिछले करीब 40 साल से विभिन्न समितियां बार-बार यह कह रही हैं कि सीबीआइ का अलग अधिनियम बनाया जाए परंतु कोई भी सरकार इस ओर ध्यान नहीं दे रही। शायद सभी को सीबीआइ का वर्तमान स्वरूप ही ठीक लगता है, क्योंकि उसका मनचाहा उपयोग-दुरुपयोग किया जा सकता है। 1978 में एलपी सिंह समिति ने संस्तुति की थी कि एक व्यापक केंद्रीय अधिनियम बनाकर सीबीआइ को सशक्त बनाया जाए। संसद की एक स्थाई समिति ने भी 2007 और 2008 में संस्तुति की थी कि सीबीआइ को विधिक आधार और पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराए जाने चाहिए। इस विषय पर सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मेरी जनहित याचिका भी पांच वर्षो से लंबित पड़ी है।

(लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक हैं)