यतीन्द्र मिश्र। श्री एम. एक आध्यात्मिक गुरु और स्थापित लेखक हैं। उनकी नई किताब ‘योगा फार द गाडलेस’ इस भ्रांति को तोड़ना चाहती है कि योग जैसी स्वास्थ्यवर्धक और आध्यात्मिक क्रिया का आस्तिकता से कोई संबंध है। श्री एम. मानवीय मनोविज्ञान को बहुत ही सूक्ष्मता से समझते हैं और जानते हैं कि ऐसे बहुत से लोग हैं, जो किसी सर्वशक्तिमान ईश्वर में यकीन नहीं करते, पर योग की क्रियाओं से लाभान्वित होना चाहते हैं। योग भारतीय अष्टांग दर्शन में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। पतंजलि का योग-सूत्र अपनी सारी दार्शनिक चेष्टाएं अपने पूर्ववर्ती दर्शन सांख्य से लेता है। सांख्य दर्शन मानता है कि यह पूरा संसार प्रकृति और पुरुष के आपसी साहचर्य और संवाद से बनता है और इसमें एक निर्माता या सर्व शक्तिमान ईश्वर की भूमिका को नकारता है। पतंजलि इन्हीं सूत्रों को लेकर आगे बढ़ते हैं और मानते हैं कि शरीर और मन के एकात्म और अभ्यास से हम उस परम अवस्था को प्राप्त हो सकते हैं, जिसे समाधि कहा जाता है।

श्री एम. तमाम पुराणों, वेदों और दर्शनशास्त्रों के ग्रंथों से यह बात रेखांकित करते हैं कि योगाभ्यास में आस्तिक होना एक जरूरी शर्त नहीं है। अनेक ग्रंथों के हवाले से वे योग की बहुत ही सुंदर व्याख्या करते हैं। सारी धार्मिकता और आध्यात्मिकता से परे, अपने कार्य में दक्षता ही योग है, स्थिर चित्त होना योग है, मोह के बंधनों से मुक्त होना योग है, दुख, संताप और क्षोभ से दूर रहना ही योग है। प्राचीन सूत्रों को लेते हुए लेखक बड़ी ही निपुणता से इक्कीसवीं सदी की भाषा में सारे सूत्रों की व्याख्या करते हैं। वे योग सूत्र को अपना सबसे बड़ा संदर्भ ग्रंथ मानते हैं और ‘अथ योग अनुशासनम’ के साथ कई सूत्रों का वर्णन करते हैं।

अगले अध्यायों में श्री एम. योग दर्शन में उपस्थित ‘ईश्वर’ शब्द की और गहरे से पड़ताल करते हैं। वेदांत, सांख्य, जैन, बौद्ध ग्रंथों से श्लोक एवं सूत्र उद्धृत करके वो यह स्पष्ट करते हैं कि यहां ईश्वर कोई सर्वशक्तिमान निर्माता, रक्षक या भगवान नहीं है, बल्कि वह महाचेतना है, जिसका एक अंश हम सबके अंदर है। इसे ही सांख्य ने पुरुष और वेदांत ने ब्राह्मण की संज्ञा दी है। योग की किताब के साथ यह पुस्तक दर्शनशास्त्र पर भी एक सुंदर टीका है। श्री एम. योग की सैद्धांतिकी को समझाते हुए धीरे-धीरे योगाभ्यास की तरफ जाते हैं।

वे विस्तारपूर्वक पतंजलि के योगसूत्र के चारों पदों का वर्णन करते हैं। ये हैं- समाधि पद, साधना पद, विभूति पद और कैवल्य पद। समाधि पद में उन सारे व्यवधानों का उल्लेख है, जो योग साधना में सामने आते हैं। एकाग्रचित होकर ‘ओम’ के जाप से मन को स्थिर किया जा सकता है। इसके बाद भारतीय दर्शन में अनंत सत्य को ओमकार के रूपक में बांधने की जो परंपरा रही है, उस पर लेखक ने विद्वतापूर्ण आलेख लिखा है। जहां समाधि पद में दर्शन, मनोविज्ञान और अध्यात्म की बात है, वहीं साधना पद में अष्टांग योग का व्यावहारिक पक्ष सामने आता है। विभूति पद में लेखक ने उन सारी पराभौतिक शक्तियों की बात की है, जो योग से अर्जित की जा सकती हैं। नाम के ही अनुरूप आखिरी पद कैवल्य, उस महाचेतना से साक्षात्कार और उसे अंगीकार करने की बात करता है, जिसके बाद एक साधारण मनुष्य योगी बन जाता है।

किताब के अंत में उस रहस्यमयी जागृति की शक्ति की बात है, जिसे कुंडलिनी कहा जाता है। लेखक ने इस गूढ़ विषय पर बात करते हुए काफी भ्रांतियां खत्म करने की कोशिश की है, जिसमें तथ्यपरक तरीके से इसकी गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास उल्लेखनीय बन पड़ा है। योग आसनों की तस्वीरें और दर्शन की प्रमुख शब्दावली के अर्थ भी इस पुस्तक का हिस्सा हैं, जो इसे समझने में हमारी मदद करते हैं। योग का विस्तार करते हुए भारतीय दर्शन पर श्री एम. प्राच्य अध्येता की तरह टीका करते हैं। यह उसी समृद्ध परंपरा का अंग है, जहां विभिन्न पंथों और संप्रदायों के विद्वान एक-दूसरे से विचार और ज्ञान का विनिमय करते थे। भारतीय परंपरा में ईश्वरवाद की रूढ़ि कहीं भी नहीं है और लेखक इस बात को ही दुनिया के सामने लाना चाहता है। यह सारी ही व्याख्याएं एक नए दृष्टिकोण से बरती गई हैं, जिससे नई सोच वाले पाठकों के लिए सहज बन जाती हैं। आज के उत्तर औपनिवेशिक संस्कृति में जब योग ने ‘योगा’ बनकर बाजार पर कब्जा कर लिया है, यह जानना अत्यंत जरूरी हो जाता है कि इस प्राचीन विद्या की जड़ें और विस्तार कैसी हैं? संस्कृत के ग्रंथ जब जनमानस में अपनी उपस्थिति खो रहे हैं, तब यह किताब एक महत्वपूर्ण ग्रंथ के रूप में सामने आती है।

योगा फार द गाडलेस

श्री एम.

स्प्रिचुअल/सेल्फ

हेल्प

फर्स्ट एडीशन,

2020

वेस्टलैंड पब्लिकेशंस प्रा. लि.,

चेन्नई

मूल्य: 399 रुपए