पश्चिम बंगाल और असम तो विधानसभा चुनाव के लिए तैयार हैं ही, उत्तर प्रदेश में भी चुनावी माहौल बनने लगा है। इन तीनों ही राज्यों में अलग-अलग स्तर पर भाजपा होड़ में भी है और वह कैसा प्रदर्शन करती है, इसका बहुत कुछ दारोमदार अध्यक्ष अमित शाह पर होगा जिन्हें पार्टी ने एक पूरा कार्यकाल दिया है। कुछ वर्ष पूर्व अमित शाह की राष्ट्रीय स्तर पर कोई पहचान नहीं थी, लेकिन लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में पार्टी को अप्रत्याशित सफलता दिलाने में उनकी भूमिका की बड़ी सराहना हुई। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के केंद्रीय गृहमंत्री बनने पर शाह को उनके स्थान पर लाया गया। फिर महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों में भाजपा को बहुमत दिलाने में भी भाजपा अध्यक्ष के रूप में उनको ख्याति मिली, लेकिन उसके बाद दिल्ली और बिहार के चुनावों ने शाह का मिथक तोड़ दिया। दोनों राज्यों में भाजपा की करारी हार हुई। अमित शाह को पूर्णकालिक पार्टी अध्यक्ष की जिम्मेदारी कठिन दौर में मिली है। उनका कार्यकाल तीन वर्ष का है और इस दौरान कुल बीस राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं। 2016 में पांच राज्यों (असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु, पश्चिमी बंगाल), 2017 में सात राज्यों (गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड) तथा 2018 में आठ राज्यों (छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, राजस्थान, त्रिपुरा) में चुनाव होंगे। अमित शाह की चुनौतियां कई प्रकार की हैं। प्रथम चुनौती तो चुनावों को लेकर रहेगी। इन चुनावों में भी दो स्तरों पर चुनौती है-एक राज्य के स्तर पर विधानसभा चुनावों की और दूसरी अखिल भारतीय स्तर पर लोकसभा की। अमित शाह की कठिनाई यह है कि उन बीस राज्यों में केवल पांच राज्यों (गुजरात, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गोवा, राजस्थान) में ही वर्तमान में भाजपा की सरकार है। उनके समक्ष न केवल उन पांचों राज्यों में भाजपा सरकार बनाए रखने की चुनौती है, बल्कि शेष पंद्रह राज्यों में नए किले फतह कर भाजपा की झोली में डालने की भी चुनौती है।

एक अन्य कठिनाई संगठन में गुटबाजी से संबंधित है। गुटबाजी दलीय राजनीति का एक अभिन्न अंग है, लेकिन बिहार में जिस तरह से यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा ने अपना रोष व्यक्त किया उसका कुछ तो असर बिहार चुनावों पर जरूर रहा। यदि शीर्ष नेतृत्व पार्टी में विरोधी स्वरों की पूर्ण उपेक्षा का दृष्टिकोण अपना लेगा तो भाजपा का भी वही हश्र होगा जो कांग्रेस का हुआ। अमित शाह को उन तमाम गुटों, बड़े नेताओं और क्षत्रपों को भी साथ लेना होगा जो पार्टी में व्यक्तिवादी नेतृत्व से असंतुष्ट हैं। केवल यह कहकर शाह खुश नहीं हो सकते कि भाजपा दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है। सबसे बड़ी पार्टी होना एक बात है और भारत की जनता का दिल जीतना और केंद्र व राज्यों में सरकार बनाना दूसरी बात है।

अमित शाह की तीसरी चुनौती राज्यों के स्तर पर चुनावों के लिए रणनीतिक परिवर्तन से संबंधित है। दिल्ली और बिहार के नतीजे यह प्रमाणित कर चुके हैं कि भाजपा से कुछ गंभीर रणनीतिक गलती हो रही है। अमित शाह को चाहे जितना भी 'क्रेडिटÓ दिया जाए, लेकिन उनको नहीं भूलना चाहिए कि 2014 के चुनावों में लोगों ने पार्टी से ऊपर उठकर मोदी के नेतृत्व को वोट दिया था। अब मतदाता मोदी को राज्यों के स्तर पर तो वोट नहीं दे सकते। उन्हें तो अब पार्टी की जगह एक नेता को वोट देने की आदत पड़ गई है और उसका कारण है कि मतदाता स्पष्ट बहुमत द्वारा नेता और पार्टी का उत्तरदायित्व सुनिश्चित करना चाहते हैं, लेकिन भाजपा अभी भी लकीर की फकीर बनी हुई है। जिस प्रकार लोकसभा चुनावों के लगभग एक वर्ष पूर्व ही मोदी को कमान सौंप कर जनता को एक स्पष्ट विकल्प दिया गया उसी प्रकार पार्टी राज्यों में वही मॉडल क्यों नहीं दोहरा सकती? यह कमजोरी भाजपा को उत्तर प्रदेश में बहुत भारी पडऩे वाली है, जहां अभी भी पार्टी जातिवादी गणित को आधार बनाकर प्रदेश पर कोई नेतृत्व थोपने की जुगत में है, लेकिन यह स्पष्ट है कि सपा के अखिलेश यादव और बसपा की मायावती के अलावा उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को और किसी पार्टी का कोई चेहरा ज्ञात नहीं।

अमित शाह को गैर भाजपा शासित सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों से भी तगड़ी चुनौती मिलने वाली है। प्रधानमंत्री मोदी ने सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को विकास में स्पर्धा का पाठ पढ़ा दिया है और वे गैर भाजपा राज्यों के साथ कोई भेदभाव भी नहीं कर रहे हैं। वह राष्ट्र के सांगोपांग विकास के लिए प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की टीम की परिकल्पना करते हैं। यह सत्य है कि राज्यों में विकास तेज हुआ है और इसके चलते मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग राज्यों में सत्तारूढ़ दलों की ओर आकृष्ट हुआ है, लेकिन राज्यों में सत्तारूढ़ दलों की सबसे बड़ी समस्या है कि वे अपने मूल दायित्व का निर्वहन नहीं कर रहे हैं। वे कानून एवं व्यवस्था के मोर्चे पर काफी कमजोर हैं, जिससे मतदाताओं के मन में उनको पुन: सत्ता सौपने को लेकर संशय है। हालांकि किसी भी वैकल्पिक दल को सत्ता सौपने के लिए उस दल का संगठनात्मक, वैचारिक और नेतृत्व के स्तर पर मजबूत होना अपरिहार्य शर्त है।

अमित शाह यदि पश्चिम बंगाल में भाजपा का प्रदर्शन बेहतर कर सकें तो अभीष्ट होगा, लेकिन उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव परिणामों के चलते वह महत्वाकांक्षी हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश में उनके पास संगठन और विचारधारा तो है, पर नेतृत्व के लिए कोई चेहरा नहीं। क्या अमित शाह उत्तर प्रदेश में समय रहते जाति से ऊपर उठकर नेतृत्व के लिए कोई प्रभावी चेहरा ला सकेंगे? क्या सभी शेष राज्यों में भी इस मॉडल की पुनरावृत्ति हो पाएगी? अगर ऐसा न हो सका और राज्य दर राज्य भाजपा हारती रही तो 2019 का लोकसभा चुनाव मोदी, अमित शाह और भाजपा के लिए टेढ़ी खीर हो जाएगा।

[लेखक डॉ. एके वर्मा, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स के डायरेक्टर हैं]