राय यशेंद्र प्रसाद। Ayodhya Ram Temple News हम लोग इतिहास के उस मोड़ पर खड़े हैं जो एक ऐतिहासिक अवसर है, एक ऐसा मंदिर बनाने का जिसे दुनिया देखती रह जाए और जब हम अंदर प्रवेश करें तो त्रेतायुगीन वैदिक परिवेश की भावना जागृत हो। यह इक्ष्वाकु कुल के सूर्य वंश का महल है। अवतारी पुरुषोत्तम का, भारतवर्ष की सभ्यता के आराध्य के आविर्भाव-स्थल का स्मृति-मंदिर। राम के नाम से ही इस सभ्यता की सुबह होती है और शाम भी।

भारत के मंदिरों पर एक दृष्टि डालें तो पाते हैं कि मंदिर सिर्फ पूजा-स्थल नहीं हैं। इनका स्थापत्य एक ऐसा यंत्र होता है जो मन-मस्तिष्क एवं शरीर पर विशेष रूप से प्रभाव डालता है। जब हम पद्मनाभ स्वामी मंदिर, पुरी जगन्नाथ मंदिर, त्रयंबकेश्वर या किसी अन्य प्राचीन मंदिर में जाते हैं तो मन-प्राण मानो एक उच्च भाव में पहुंच जाते हैं। इसका कारण उनका ऐसी तकनीक पर आधारित होना है जो ऊर्जा को विशेष भाव से नियोजित कर रही होती है। वैदिक स्थापत्य में इसके लिए गणित है। मंदिरों के निर्माण में स्थापत्य गणित, ज्यामिति, बीजगणित, खगोलशास्त्र, ज्योतिष एवं जीव विज्ञान, पदार्थ विज्ञान व तंत्रशास्त्र तथा मंत्रविद्या की महत्वपूर्ण भूमिकाएं होती हैं। ये सब शरीर व मस्तिष्क को उच्च भाव में प्रेरित करने के लिए विभिन्न तकनीकों का प्रयोग करते हैं।

श्रीराम जन्मभूमि का यह मंदिर एक और कारण से महत्वपूर्ण है। सांप्रदायिक शक्तियों ने भारतीय सभ्यता के प्राणपुरुष के जन्मस्थान का स्मारक-मंदिर तोड़ डाला था। इसका पुनíनर्माण करने में हमें लगभग पांच सौ वर्ष लग गए। इस प्रकार यह सांप्रदायिक घृणा पर विजय का स्मारक भी बन गया है। यह इस बात का संकेत है कि हजार वर्षो में हुए आघातों के बाद भारत की सभ्यता का मेरुदंड फिर स्वस्थ हो रहा है। इसलिए इसे अनूठा होना ही चाहिए।

सूर्यवंशी भवन होने के कारण सूर्य एवं सौर विज्ञान संबंधी प्रतीक स्मरण में आते हैं। सुना है कि मंदिर में तीन सौ साठ खंभे होंगे। सौर वर्ष के तीन सौ पैंसठ दिनों के हिसाब से यदि उनकी संख्या पांच और बढ़ा दी जाए तो एक संबंध बन जाएगा। सूर्य के सप्त अश्वों और रथ व रथचक्रों का प्रयोग हो सकता है। चूंकि यह सूर्यवंश के चक्रवर्ती सम्राट का मंदिर है, इसलिए होना तो यह चाहिए कि मंदिर का गर्भगृह इस गणना और तरीके से बने कि प्रत्येक दिन उदित होते सूर्य की रश्मियां सर्वप्रथम रामलला के चरणों का स्पर्श करें।

मंदिर के ऊपर कोई भी तल्ला नहीं होना चाहिए। भारतीय स्थापत्य में मंदिर के ऊपर मंदिर का विधान नहीं है, क्योंकि भक्त कभी भी भगवान के विग्रह के ऊपर चढ़ ही नहीं सकता। गर्भगृह के ठीक ऊपर किसी ऊपरी तल्ले के निर्माण का कोई भी दृष्टांत प्राचीन मंदिरों के संदर्भ में उपलब्ध नहीं हो पाया है और ना ही स्थापत्य ग्रंथ में कहीं इसका कोई उल्लेख मिला है। हालांकि मंदिर निर्माण से संबंधित एक प्रमुख विशेषज्ञ से जब इस संदर्भ में बात हुई तो उन्होंने कहा कि चूंकि प्राचीन काल में दो मंजिला मंदिरों की आवश्यकता नहीं थी, लिहाजा वाकई में ऐसा नहीं देखने को मिलता है।

फिर भी मेरा मानना है कि इस बारे में नए सिरे से विचार किया जाना चाहिए कि गर्भ गृह के ठीक ऊपर तो किसी अन्य मंजिल का निर्माण होना ही नहीं चाहिए। वैसे भी जब 67 एकड़ भूमि उपलब्ध है और दस एकड़ जमीन पर मंदिर बन भी रहा है तो ऐसी क्या जगह की कमी है कि गर्भ गृह के ठीक ऊपर ही कोई और मंजिल की जरूरत पड़ जाए! भले ही वह श्रीराम दरबार ही क्यों न हो। मंदिर में इसे किसी दूसरी ओर बनाया जा सकता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि किसी भी भक्त को प्रभु विग्रह के ऊपर नहीं जाना चाहिए। प्रभु के कमरे की छत पर एक भक्त अपने पैर कैसे रखेगा? श्रीराम जन्मस्थान मंदिर तो अत्यंत महत्वपूर्ण तथा भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का प्रतीक बनेगा। भला उसकी संरचना में यह भूल कैसे हो सकती है।

चट्टानों की संरचना : चट्टानों के लिंग का भी ध्यान रखना अनिवार्य होगा। नर चट्टान के बाद मादा चट्टानों का लेयर रखना पड़ता है, अन्यथा मंदिर लंबे काल तक टिक नहीं पाएगा एवं प्राकृतिक आपदाओं को ङोलने में असफल रहेगा। इस कार्य के लिए अरावली पर्वत के पत्थरों का उपयोग किया जा रहा है जो सही है। आवश्यकता के अनुसार काले या अन्य ग्रेनाइट पत्थरों का प्रयोग भी हो सकता है। अहिल्याबाई होल्कर ने मंदिरों के निर्माण में काले पत्थरों का प्रयोग किया, जो आज भी आकर्षक एवं प्रभावशाली है। पद्मनाभ मंदिर की तरह दीवारों की मोटाई हो एवं गर्भ गृह क्षेत्र में बिजली का उपयोग न हो रोशनी के लिए। मात्र गौ घृत से प्रकाश की व्यवस्था हो। बिजली की अनिवार्यता जहां हो वहां सौर ऊर्जा का ही उपयोग हो, क्योंकि यह सूर्यवंशियों का परिसर है।

यह भूलना नहीं चाहिए कि वही असली मंदिर होता है जो चैतन्य जीव के समान हो। पुरी का जगन्नाथ मंदिर भी ऐसा ही है। स्थापत्य वेद में वास्तुपुरुष एक चैतन्य जीव माना गया है। वास्तुसूत्र उपनिषद एवं अन्यान्य ग्रंथों में मंदिर अथवा भवन निर्माण की प्रक्रिया दी हुई है। बिंदु से वृत्त एवं वृत्त से वर्ग बनाते हुए क्रम से मंदिर की संरचना निíमत हो, क्योंकि ईश्वर की सृष्टि प्रक्रिया में यही क्रम है जो श्रीचक्र दर्शाता है। निराकार के साकार होने की प्रक्रिया। अंकोरवाट के मंदिर की पूरी संरचना श्रीचक्र ही है।

निर्माण के विभिन्न स्तरों पर पूजन, यज्ञ, मंत्रपाठों का भी विधान है। ये सब विधियां मंदिर को प्राणवंत करने के लिए होती हैं। ऐसी अनेक बातें हैं जिनका ध्यान रखने से मंदिर के अंदर त्रेतायुगीन परिवेश का निर्माण हो सकेगा। जो भी मंदिर में प्रवेश करेगा वह एक अनिर्वचनीय अलौकिक लोक में पहुंच जाए! तभी यह मंदिर निर्माण सार्थक होगा। युगों बाद हमें एक सुनहरा अवसर मिला है वैदिक स्थापत्य के एक ऐसे अनूठे मंदिर के निर्माण का, जो आगे सहस्त्रब्दियों तक मानवजाति के प्राणपुरुष मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जन्मभूमि का अलौकिक स्मारक बना रहे।

श्रीराम भगवान विष्णु के अवतार हैं। अत: शंख, चक्र, गदा, पद्म, धनुष, कमल के प्रतीकों का प्रयोग मंदिर के हर भाग में दिखना चाहिए। उनका वाहन गरुड़ है, इसलिए मंदिर में गरुड़ स्तंभ होना चाहिए। मत्स्य से लेकर वामन अवतार तक की मूर्तियां भी होनी चाहिए। इक्ष्वाकु से लेकर नाभि, ऋषभदेव, भरत, असित, सगर और फिर दिलीप, भगीरथ, ककुत्स्थ, रघु और दशरथ तक सभी पूर्वजों की मूर्तियों के लिए एक पूर्वज कक्ष बन सकता है। इससे हमारे समृद्ध इतिहास और संस्कृति की जानकारी मिल सकेगी।

[लेखक एवं फिल्मकार]