[ सूर्यकुमार पांडेय ]: कवि और राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के बाद उनके जीवन के हर पक्ष और पहलू पर बहुत कुछ कहा-लिखा और बताया जा चुका है। उनके कवि रूप का भी विस्तार से बखान हुआ है, लेकिन शायद कम लोग ही जानते हैैं कि वह भावपूर्ण और गहरे अर्थों वाली एवं देशप्रेम से ओत-प्रोत कविताएं लिखने के साथ ही व्यंग्य विनोद भरी कविताएं भी लिखते थे। दरअसल जब 1975 में देश में आपातकाल की घोषणा हुई तब विपक्ष के तमाम नेता रातों रात गिरफ्तार कर लिए गए। अटल बिहारी वाजपेयी भी कैदखाने में डाल दिए गए। जेल के भीतर भी अटल जी कविताएं लिख रहे थे, लेकिन उनकी उस दौरान की रचनाएं अटल जी की चर्चित कविताओं से अलग ढंग की हैं।

कैदी कविराय के नाम से लिखी गईं इन कुंडलियों में व्यंग्य विनोद की छटा उनके उस उन्मुक्त कवि मन का परिचायक हैं, जिसके चलते वह इतने लोकप्रिय थे। उनके तब के जेल के साथी भी उनकी कविताएं सुनकर अपनी पीड़ा भूल जाया करते थे। ऐसी ही कुछ बानगियां देखिए :

धरे गए बंगलौर में अडवाणी के संग।

दिन भर थाने में रहे, हो गई हुलिया तंग।

जन्म जहां श्रीकृष्ण का, वहां मिला है ठौर।

पहरा आठों याम का, जुल्म-सितम का दौर।

सभी जानते हैैं कि आपातकाल के समय प्रेस की आजादी के पांवों में सेंसर की बेड़ियां डाल दी गईं थीं। उस दौरान अटल जी ने महाभारत काल के प्रतीक के माध्यम से यथास्थिति का चित्रण करते हुए कुंडलियां लिखी थी और यह उम्मीद भी जाहिर की थी कि इस देश की जनता बहुत अधिक समय तक ऐसी दशा में नहीं रहेगी। लोकतंत्र की द्रौपदी के चीर हरण और तत्कालीन बड़े राजनेताओं के मौन पर उन्होंने कुछ इस तरह गहरा कटाक्ष किया था:

दिल्ली के दरबार में, कौरव का है जोर।

लोकतंत्र की द्रौपदी, रोती नयन निचोर।

रोती नयन निचोर, नहीं कोई रखवाला।

नए भीष्म, द्रोणों ने मुंह पर ताला डाला।

कह कैदी कविराय, बजेगी रण की भेरी।

कोटि-कोटि जनता न रहेगी बनकर चेरी।

जेल में बंद रहने के दौरान अटल जी अस्वस्थ हो गए थे। उनकी दाढ़ी बढ़ गई थी। न रेडियो सुनने को मिलता था, न ही अखबार उपलब्ध हो पाते थे। इसके बावजूद अटल जी को यह भरोसा था कि एक दिन ऐसा अवश्य आएगा जब वह ही नहीं पूरा देश एक नई इबारत पढ़ेगा। इसी भरोसे के तहत उन्होंने लिखा :

डॉक्टरान दे रहे दवाई, पुलिस दे रही पहरा।

बिना ब्लेड के हुआ खुरदुरा, चिकना-चुपड़ा चेहरा।

चिकना-चुपड़ा चेहरा, साबुन, तेल नदारत।

मिले नहीं अखबार, पढ़ेंगे नई इबारत।

कह कैदी कविराय, कहां से लाएं कपड़े।

अस्पताल की चादर छुपा रही सब लफड़े।

जेल में अटल जी की बेचैनी जितनी बढ़ती जाती थी, उतने ही प्रखर ढंग से वह अंधेरे के छंटने और नई सुबह की प्रतीक्षा को लेकर आशान्वित होते जाते थे। उस दमघोंटू वातावरण में भी अटल जी का कवि मन एक नई किरण की आशा के साथ कैदी कविराय बनकर छंद पर छंद लिखता जा रहा था। वह ऊंघते सिपाही और नींद में चूर नर्स के रूपक के जरिये भी तत्कालीन सत्ता और व्यवस्था को चुनौती दे रहे थे। वह अपनी जनसभाओं में तो हास-परिहास की सृष्टि करते ही थे, लेकिन जेल के भीतर रह कर भी इस परिहास वृत्ति को नहीं भूले थे। इसकी बानगी है ये पंक्तियां :

दर्द कमर का तेज, रात भर लगीं न पलकें।

सहलाते बस रहे इमरजेंसी की अलकें।

नर्स नींद में चूर, ऊंघते सभी सिपाही।

कंठ सूखता, पर उठने की सख्त मनाही।

कह कैदी कविराय, सवेरा कब आएगा।

दम घुटने लग गया, अंधेरा कब जाएगा।

अटल जी मानते थे कि राजनीति में कभी-कभी अपना ही दांव उलटा पड़ जाया करता है। नियति भी नए खेल खेलती है। उसी समय की लिखी हुई उनकी यह पंक्तियां आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं :

कहु सजनी, रजनी कहां, अंधियारे में चूर।

एक बरस में ढल गया, चेहरे पर से नूर।

चेहरे पर से नूर, दूर दिल्ली दिखती है।

नियति निगोड़ी कभी कथा उल्टी लिखती है।

कह कैदी कविराय, सूखती रजनीगंधा।

राजनीति का पड़ता है जब उलटा फंदा।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]