इस पर हैरानी नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी दिल्ली सरकार और उप राज्यपाल के बीच अधिकारों की लड़ाई खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। दोनों के बीच अभी भी टकराव की स्थिति बनी हुई है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप राज्यपाल अनिल बैजल के बीच मुलाकात के बाद भी जिस तरह दिल्ली के शासन संचालन के तौर-तरीकों पर उपजे मतभेद दूर नहीं हो सके उससे तो यही लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सही तरीके से समझने से इन्कार किया गया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में दोनों पक्षों को नसीहत दी थी और दोनों को ही उनकी सीमाएं भी बताई थीं, लेकिन पता नहीं कैसे और क्यों इस फैसले के आधार पर यह निष्कर्ष निकाल लिया गया कि उप राज्यपाल के पर कतरे गए और इस तरह दिल्ली सरकार की जीत हुई? यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि ऐसा निष्कर्ष ही समस्या के समाधान में बाधक बना। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते ही दिल्ली सरकार उसे अपने हिसाब से लागू करने में जुटी और इस क्रम में वह सबसे पहले अधिकारियों की नियुक्ति-तबादले करने की दिशा में आगे बढ़ी, लेकिन उसका सामना इस तथ्य से हुआ कि ऐसा करना तो उप राज्यपाल का अधिकार है और यह अधिकार गृह मंत्रलय की 2015 की जिस अधिसूचना से मिला है उसे सुप्रीम कोर्ट ने रद नहीं किया है। कहना कठिन है कि दिल्ली सरकार का झगड़ा एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पहुंचेगा या नहीं, लेकिन इसमें संदेह है कि शीर्ष अदालत दिल्ली सरकार और उप राज्यपाल के बीच वह सामंजस्य पैदा कर सकती है जो दिल्ली के शासन को सुगमता से चलाने के लिए आवश्यक है।

उप राज्यपाल से नाकाम मुलाकात के बाद अपनी प्रवृत्ति के अनुरूप मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने केंद्र सरकार पर तोहमत मढ़ने में देर नहीं की। उनके मुताबिक केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मानने से इन्कार कर रही है और अगर वह ऐसा करेगी तो फिर देश में अराजकता फैल जाएगी। उन्होंने यह रेखांकित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी कि केंद्र सरकार का एक मात्र लक्ष्य दिल्ली सरकार को परेशान करना है। नि:संदेह दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के रिश्ते सहज नहीं, लेकिन यह स्थापित करने का कोई मतलब नहीं कि केंद्रीय सत्ता केजरीवाल सरकार को काम नहीं करने देना चाहती। दिल्ली की स्थिति शेष राज्यों से भिन्न है। देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली सरकार वह सब कुछ नहीं कर सकती जो करने का अधिकार अन्य राज्यों की सरकारों को है। मुश्किल यह है कि आम आदमी पार्टी अपनी सरकार को अन्य राज्यों से कमतर मानने को तैयार नहीं। उसे यह समझ आए तो बेहतर कि दिल्ली सरकार के सीमित अधिकारों का रोना रोने और उसे राष्ट्रीय मसला बनाने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। आखिर जब सीमित अधिकारों के साथ अन्य नेता दिल्ली में बिना किसी झगड़े-झंझट के सरकार चला चुके हैं तो फिर आम आदमी पार्टी के नेता ऐसा क्यों नहीं कर पा रहे हैं? क्या कारण है कि दिल्ली के लिए पूर्ण राज्य के दर्जे की जिद की जा रही है?