राजीव सचान। विरासत टैक्स पर राजनीतिक दलों में तकरार के बीच विरासत में हिस्सेदारी का एक ऐसा मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा है, जो पंथनिरपेक्षता की परीक्षा लेगा। यह मामला है केरल की साफिया का। वह मुस्लिम परिवार में जन्मीं, लेकिन न तो उनके पिता इस्लाम का पालन करते हैं और न ही वह। यही नहीं, वह स्वयं को एक्स मुस्लिम कहती हैं और एक्स मुस्लिम आफ केरल नामक संगठन की महासचिव हैं। यह इस्लाम छोड़ चुके लोगों का संगठन है, जो हर वर्ष नौ जनवरी को एक्स मुस्लिम दिवस मनाता है।

इस संगठन के सदस्य लगातार बढ़ रहे हैं। ऐसे संगठन दुनिया भर में हैं, लेकिन एक्स मुस्लिम आफ केरल इस्लाम छोड़ने वालों का भारत का पहला संगठन है। एक्स मुस्लिम इसे खारिज करते हैं कि कोई खुदा है, जिसने सारी दुनिया बनाई और वही उसे चलाता है। कुछ एक्स मुस्लिम ऐसे भी हैं, जो स्वयं को एथिस्ट-नास्तिक के बजाय एग्नास्टिक बताते हैं। एग्नास्टिक यानी ऐसा व्यक्ति, जो यह समझता है कि हो सकता है कोई अल्लाह-ईश्वर हो, लेकिन यदि ऐसा है भी तो उसकी इबादत-पूजा करने की कोई जरूरत नहीं।

साफिया एक्स मुस्लिम इसलिए बनीं, क्योंकि उनका मानना है कि इस्लाम महिलाओं को अधिकार नहीं देता और उनसे भेदभाव भी करता है। इस्लामी देशों और यहां तक कि भारत जैसे देश में भी किसी आम मुस्लिम का इस्लाम छोड़ना सामान्य बात नहीं, क्योंकि इस्लामी मान्यताएं इसकी इजाजत नहीं देतीं और कुछ तो मुर्तद-काफिर करार देकर उन्हें कत्ल के काबिल भी बताती हैं।

अपने देश में जावेद अख्तर, तसलीमा नसरीन जैसे नामी लोग तो खुलेआम खुद को नास्तिक कहते हैं, लेकिन आम मुस्लिम इस्लाम छोड़ देने के बाद भी ऐसा कहने का साहस नहीं जुटा पाते, क्योंकि उन्हें अपने समुदाय के बहिष्कार और तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। यदि वे इस्लामी मान्यताओं की आलोचना या इस्लाम में सुधार की पैरवी करें तो फिर उनका जीना दूभर हो जाता है और उनकी सुरक्षा के लिए खतरा बढ़ जाता है। इसके बाद भी अन्य देशों की तरह भारत में भी इस्लाम छोड़ने वालों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।

इनमें से कुछ अपने यूट्यूब चैनल भी चलाते हैं, जैसे एक्स मुस्लिम साहिल, समीर, जफर हेरेटिक, कुरानवाला, इमरोज आलम आदि। उनसे प्रभावित होकर एजेंल, रब्बानी जैसी एक्स मुस्लिम महिलाएं भी अपने यूट्यूब चैनल चला रही हैं। अधिकांश एक्स मुस्लिम यूट्यूबर पहचान और चेहरा छिपाकर रखते हैं। उनके यूट्यूब चैनल इस आधार पर प्रायः बैन, शैडो बैन या डिमोनेटाइज होते रहते हैं कि वे ब्लासफेमी कर रहे हैं।

फ्री स्पीच का परचम उठाने वाला सोशल नेटवर्क प्लेटफार्म एक्स मुस्लिमों के प्रति जरूरत से ज्यादा अनुदार है। यहां कई बार फ्री स्पीच के बजाय ब्लासफेमी को तरजीह मिलती है। तमाम जोखिम और बाधाओं के बाद भी एक्स मुस्लिम एक्टिविस्ट की कोशिश एक आंदोलन का शक्ल ले रही है और वह भी तब, जब सरकारें न तो उनकी कोई सुध ले रही हैं और न ही ऐसे जतन कर रही हैं कि अन्य पंथों को छोड़ने वाले लोगों की तरह न तो उनकी आवाज दबाई जाए और न ही उनकी सुरक्षा को कोई खतरा पैदा हो।

साफिया एक ऐसी एक्स मुस्लिम हैं, जो अपनी पहचान और चेहरा छिपाए बगैर सक्रिय हैं। उन्हें सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा इसलिए खटखटाना पड़ा, क्योंकि शरीयत कानूनों के चलते उनके पिता उन्हें आधी संपत्ति का हिस्सेदार नहीं बना सकते। उन्हें आशंका है कि यदि आनुवांशिक बीमारी-डाउन सिंड्रोम से ग्रस्त उनके भाई को कुछ हो जाता है तो उसके हिस्से की दो तिहाई संपत्ति उन्हें मिलने के बजाय उनके रिश्तेदारों को चली जाएगी। शरीयत के अनुसार बेटी का पिता की विरासत में एक तिहाई और बेटे को दो तिहाई का अधिकार होता है। शरीयत के चलते मुसलमानों पर भारतीय उत्तराधिकार कानून लागू नहीं होता।

साफिया चाहती हैं कि जब वह इस्लाम छोड़ चुकी हैं और पिता भी इस्लाम नहीं मानते, तब उनकी संपत्ति का बंटवारा पंथनिरपेक्ष कानून यानी भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के तहत किया जाए। सुप्रीम कोर्ट उनकी इस याचिका पर विचार करने के लिए सहमत हो गया है। उसने केरल और भारत सरकार को नोटिस जारी कर उनकी राय पूछी है। पता नहीं उनकी राय क्या होगी, लेकिन इसके पूरे आसार हैं कि मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड जैसे संगठन यह कहने के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंच सकते हैं कि शरीयत में कोई छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए।

शरीयत में छेडछाड़ का हल्ला मचाकर ही इन संगठनों ने राजीव गांधी सरकार पर दबाव बनाकर शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटवाया था। हालांकि तीन तलाक मामले में उनकी नहीं चली, लेकिन वे अभी भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्वीकार करने में आनाकानी कर रहे हैं। ऐसे मुस्लिम संगठनों का साथ तथाकथित सेक्युलर दल भी दे सकते हैं, क्योंकि कांग्रेस ने तो पहले से ही अपने घोषणा पत्र में पर्सनल कानूनों को छूट देने का वादा कर दिया है।

एक्स मुस्लिम साफिया का मामला तय करेगा कि सुप्रीम कोर्ट में पंथनिरपेक्ष कानूनों को प्राथमिकता मिलेगी या फिर शरीयत के उन कानूनों को, जो मुस्लिम महिलाओं की अनदेखी-उपेक्षा का जरिया बने हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट का फैसला न केवल यह बताएगा कि देश संविधान से चलेगा या शरीयत से, बल्कि यह भी कि कोई अपना मजहब छोड़ने के बाद भी मजहबी कानूनों की जकड़न से बच पाएगा या नहीं? स्पष्ट है कि एक्स मुस्लिम ही नहीं, महिला अधिकारों के लिए संघर्षरत संगठन भी सुप्रीम कोर्ट की ओर देख रहे हैं। यह मामला समान नागरिक संहिता की आवश्यकता को भी रेखांकित कर रहा है, लेकिन यह तय है कि खुद को सेक्युलर-लिबरल कहने वाले इस संहिता का विरोध करना छोड़ने वाले नहीं हैं।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)