यशपाल सिंह : देश में आजकल बुलडोजर न्याय की बहुत चर्चा है। यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुका है। जिन्हें बुलडोजर न्याय पर आपत्ति है, वे कभी यह सवाल नहीं उठाते कि अदालतों में तारीख पर तारीख का सिलसिला क्यों कायम रहता है? इस सवाल का जवाब न मिल पाने के कारण ही बहुत से लोगों को यह लगने लगा है कि किसी अपराधी, माफिया अथवा मजहबी उन्माद पैदा करने वाले षड्यंत्रकारी को सबक सिखाने के लिए अब यही रास्ता रह गया है कि उसकी अवैध रूप से अर्जित संपत्ति को नष्ट किया जाए। वास्तव में देश में न्यायिक प्रक्रिया की सुस्ती को देखते हुए ही एक बड़े वर्ग को यह तरीका लुभा रहा है। उत्तर प्रदेश में यह प्रयोग सफल भी हो रहा है।

पिछले दिनों इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मुख्तार अंसारी को एक सफेदपोश अपराधी, अंतरराज्यीय माफिया और समाज का कैंसर तक बताया और इस पर आश्चर्य जताया था कि 50 से अधिक आपराधिक केस उसके ऊपर चलाए गए और फिर भी उसे किसी में सजा नहीं हुई। आखिर ऐसे में समाज में व्यवस्था कैसे कायम की जाए? सामान्य कानूनी प्रक्रिया को साम, दाम, दंड, भेद से अपराधी तत्व करीब-करीब निष्क्रिय कर चुके हैं। इनमें से कुछ तो विधायक-सांसद और मंत्री तक बन जा रहे हैं। ऐसे में एक ही रास्ता है कि अवैध आय के उनके स्रोतों पर करारी चोट की जाए। कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए कानून के शासन की धमक होनी ही चाहिए।

हमने चूंकि प्रजातंत्र चुना है, इसलिए हर स्तर पर जनप्रतिनिधि चुने जाते हैं, लेकिन समस्या यह है कि आज भी पार्टियां अपराधियों-माफिया को टिकट देती हैं। वे अपने धनबल और बाहुबल के जरिये विजयी भी होते हैं। जनप्रतिनिधियों के लिए कोई कारगर आचार संहिता नहीं है, जबकि उन्हें सरकारी कोष से वेतन भत्ता और पेंशन भी दी जाती है। मंत्री मुकदमों में जेल चले जाते हैं, परंतु न इस्तीफा देते हैं और न निलंबित ही किए जाते हैं। विधायकों और सांसदों के अपने क्षेत्र के विकास के लिए करोड़ों रुपये का कोष मिलता है, परंतु क्या उसका सही तरह आडिट होता है? क्या ऐसी कोई अधिकृत सूचना प्रकाशित होती है कि किस सांसद-विधायक ने कौन से विकास कार्य कराए और उस पर कितना पैसा खर्च किया? चूंकि यह पैसा जनता का होता है, इसलिए उसे इस बारे में जानने का पूरा अधिकार है।

न्याय के संबंध में कहा गया है कि 'न्याय में विलंब एक तरह से अन्याय है।' इस पर न्यायपालिका में गंभीर चिंतन की आवश्यकता है, क्योंकि वर्तमान स्थिति सामान्य नहीं, आपात स्थिति सरीखी है। अराजक और अपराधी तत्वों का दुस्साहस बढ़ता ही जा रहा है। अपराध बढ़ रहे हैं। इसी के साथ मुकदमे भी बढ़ रहे हैं, लेकिन सबसे कम कार्य दिवस न्यायालयों में हैं। तारीखों की संख्या, उनके बीच के अंतराल या फिर केस के निस्तारण की कोई सीमा निर्धारित नहीं है। न्यायिक प्रक्रिया को लंबित रखने के अनेक 'हथकंडे' चलन में हैं, लेकिन कोई नहीं जानता कि व्यापक न्यायिक सुधार कब होंगे?

जहां तक पुलिस की बात है, तो अंग्रेजों ने उसे अपने 'लठैत' के रूप में बनाया था। बड़े से बड़े जनपदों को मात्र छह-सात थानों से नियंत्रित करने के लिए उसने थानाध्यक्षों को बहुत अधिकार दिए। सोची-समझी रणनीति के तहत खाकी वर्दी का खौफ पैदा किया, ताकि पुलिस जनमानस में लोकप्रिय न हो सके। उन्हें डर था कि यदि पुलिस लोकप्रिय हुई तो किसी भी समय विद्रोह करा सकती है। अंग्रेजों ने जानबूझकर पुलिस को कानूनी रूप से भी अविश्वसनीय बनाया। मुकदमे की जांच के समय उसके द्वारा लिए गए बयानों का कोई महत्व नहीं होता। उसके द्वारा दाखिल किए गए आरोप पत्र पर अदालतों में 'शून्य' से कार्यवाही प्रारंभ होती है। इसीलिए तरीख पर तारीख लगती रहती है।

प्रश्न यह है कि अगर पुलिस इतनी अविश्वसनीय है तो हमारा न्यायिक तंत्र एक विश्वसनीय एजेंसी अभी तक क्यों नहीं बना सका? जब सक्षम अधिवक्ताओं में से कुछ को चुनकर उच्चतम न्यायालय तक में जज बनाया जा सकता है तो दारोगा-इंस्पेक्टरों में से सक्षम विवेचकों की ऐसी टीम क्यों नहीं चुनी जा सकती, जो केवल संगीन अपराधों की विवेचना/पैरवी करे? इससे न्यायालयों को शीघ्र निष्कर्ष पर पहुंचने में असानी होगी। ईमानदारी और बेईमानी तो व्यक्ति विशेष के चरित्र और संस्कार पर निर्भर करती है, किसी विभाग विशेष में नियुक्ति से नहीं। इसकी निगरानी स्वयं न्यायालय कर सकता है। विवेचकों को अर्ध न्यायिक अधिकारी मानकर उन्हें वैधानिक सुरक्षा भी दी जा सकती है, ताकि वे 'नेता जी' के प्रभाव से बाहर हो जाएं। बहुत से अधिकारी इस शाखा में खुशी-खुशी जाना पसंद करेंगे और आशा के अनुरूप खरे भी उतरेंगे। राष्ट्रीय पुलिस आयोग की कुछ उल्लेखनीय संस्तुतियों में एक संस्तुति यह भी थी किकानून एवं व्यवस्था और विवेचना की अलग-अलग शाखाएं हों, परंतु इस पर किसी प्रदेश ने ध्यान देने की आवश्यकता नहीं समझी।

पिछले दिनों दिल्ली में सभी राज्यों के उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों की बैठक हुई थी। उसमें प्रधानमंत्री ने अदालतों में लंबित मामलों पर चिंता जताई थी और इस कार्य में न्यायपालिका को पूर्ण सहयोग का आश्वासन दिया था, परंतु इस सम्मेलन में पुलिस सुधारों को लेकर कोई चर्चा नहीं हुई। जबकि आपराधिक न्यायिक प्रक्रिया प्रारंभ ही होती है, पुलिस की एफआइआर से। विवेचक की विवेचना पर ही न्यायपालिका के सारे निर्णय आधारित होते हैं। न्यायपालिका तो स्वतंत्र है, लेकिन आखिर दारोगा जी कितने 'स्वतंत्र' हैं? अब समय आ गया है कि पुलिस सुधार कर त्वरित न्याय के सपने को साकार किया जाए।

(लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी हैं)