[ पी चिदंबरम ]: हले कार्यकाल में तमाम नाकामियों के बावजूद मोदी सरकार इस साल और प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। ऐसे में उसके शासन में देश के सूरतेहाल की पड़ताल करना जरूरी हो जाता है। इसमें सबसे पहले तो आर्थिक मोर्चे की चर्चा आवश्यक होगी जहां रोजाना बुरी खबरों की भरमार दिखती है। विनिर्माण उत्पादन 3.8 प्रतिशत तक सिकुड़ गया, निर्यात पस्त है, आयात सुस्त है, कर्ज की वृद्धि मंद है और निवेश में गिरावट का रुख है। वहीं महंगाई लगातार बढ़ने पर है। मोदी सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमणियन ने मौजूदा आर्थिक सुस्ती को असाधारण बताया है। उनका मानना है कि अर्थव्यवस्था आइसीयू में जाने के कगार पर है।

मोदी सरकार के फैसलों से देश के सामाजिक सौहार्द को पहुंचा गहरा आघात

वहीं राजव्यवस्था की बात करें तो दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने उन मोर्चों पर ही कदम उठाया जिनका आम आदमी से कोई खास सरोकार नहीं था, मगर ये मुद्दे दक्षिणपंथी राजनीति के अगुआ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए बहुत महत्वपूर्ण थे। इनमें तत्काल तीन तलाक कानून, असम से शुरू हुई एनआरसी की कवायद, अनुच्छेद 370 की समाप्ति एवं जम्मू-कश्मीर का विभाजन और जल्दबाजी में पारित कराए गए नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए जैसे मुद्दे शामिल थे। इसके चलते आज भारतीय राजनीतिक परिदृश्य साल भर पहले की तुलना में अधिक विखंडित और अस्थिर हो गया है। सामाजिक सौहार्द एवं शांति को भी गहरा आघात पहुंचा। रोजाना हिंदुओं और मुसलमानों के बीच तनाव बढ़ाने की कोशिशें हो रही हैं। चिंतित करने वाली बात यही है कि पूरी दुनिया ने अब इस पर गौर करना शुरू कर दिया है। अमेरिकी कांग्रेस की एक समिति और संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने भी आईना दिखाने से परहेज नहीं किया।

मोदी सरकार के दौरान देश के चुनिंदा संस्थान अपनी जिम्मेदारियों से विमुख हो रहे

मोदी सरकार के दौरान संस्थानों का पराभव भी देखने को मिला है। तमाम संस्थान अपनी जिम्मेदारियों से विमुख हो रहे हैं। इसमें चुनाव आयोग और भारतीय रिजर्व बैंक जैसे संस्थान सबसे आगे हैं। सूचना आयोग भी अपने अर्थ खोता जा रहा है। तमाम अन्य संस्थाएं भी सिर्फ सरकार की खुशामद में लगी हैं। फिर भी ऐसे स्याह दौर में कुछ अपवाद जरूर हैं। कानून एवं व्यवस्था की स्थिति भी मोदी सरकार के दौर में कोई बहुत अच्छी नहीं है। आए दिन देश के तमाम हिस्सों से भयावह आपराधिक मामलों की खबरें आती रहती हैं। तिस पर कुछ हिंसक मामलों पर सत्तासीनों की चुप्पी और सालती है।

सीएए पक्षपातपूर्ण एवं असंवैधानिक है

इन सबसे इतर एक हालिया मुद्दे की पड़ताल बहुत जरूरी होगी और वह मुद्दा है एनआरसी, सीएए एवं उनके परिणामों का। इसमें सबसे पहले तो यही देखना होगा कि अगर सीएए नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस यानी एनआरसी के साथ लागू किया तब क्या होगा? सीएए में 31 दिसंबर, 2014 की मियाद तय की गई है। इसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के छह धार्मिक समूहों हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई और पारसियों को शामिल किया गया है। वास्तव में यह पक्षपातपूर्ण एवं असंवैधानिक है। आखिर इसमें इन तीन देशों को ही क्यों शामिल किया गया और श्रीलंका, म्यांमार, भूटान को क्यों छोड़ा गया? फिर इन तीन देशों के मुस्लिम नागरिकों को बाहर क्यों रखा गया? दक्षिण एशिया के सर्वाधिक प्रताड़ित अल्पसंख्यकों में श्रीलंका के तमिल सबसे ऊपर आएंगे जिनमें हिंदू और मुस्लिम दोनों शामिल हैं। म्यांमार के र्रोंहग्या, पाक के अहमदिया, शिया, बलूची और सिंधी के अलावा भूटान के ईसाइयों की स्थिति भी ऐसी ही है। सीएए में उन्हें क्यों छोड़ा गया? सीएए के पक्षपातपूर्ण प्रावधान को ऐसे भी समझ सकते हैं कि तीन देशों के हिंदुओं को तो भारत में प्रवेश मिल जाएगा, लेकिन श्रीलंकाई तमिल हिंदुओं को नहीं। इसी तरह भूटान के ईसाई भी इसका लाभ नहीं ले पाएंगे। ऐसा क्यों? चयन का ऐसा पैमाना समझ से परे है।

सीएए में यह भी स्पष्ट नहीं कि अवैध नागरिक माने जाने वालों का क्या होगा?

सीएए में यह भी स्पष्ट नहीं कि अवैध नागरिक माने जाने वालों का क्या होगा? उन्हें कैंपों में भेजे जाने की चर्चा है। असम के ग्वालपाड़ा जिले में 46 करोड़ रुपये की लागत से एक ऐसे कैंप का निर्माण हो रहा है जिसमें 3,000 लोग रखे जा सकते हैं। ऐसे में तमाम सवाल उठ रहे हैं। जैसे इसमें यदि लाखों लोग चिन्हित हुए तब ऐसे कितने कैंप बनाए जाएंगे? सरकार उनके निर्माण के लिए संसाधन कहां से लाएगी? क्या अवैध आव्रजक जीवनपर्यंत इन कैंपों में रहेंगे? भारत में जन्मे उनके बच्चों का भविष्य क्या होगा? क्या उन्हें भी कैंपों में रखा जाएगा? ऐसे सवालों के जवाब नहीं मिले।

एनआरसी भारत को विभाजित करने वाली भयावह और शातिर योजना

एनआरसी भारत को विभाजित करने वाली भयावह और शातिर योजना है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति को भारत का नागरिक होने के सुबूत देने होंगे। उदार लोकतंत्रों में यही व्यवस्था है कि नागरिकता पर संदेह की स्थिति में उसकी जांच राज्य का दायित्व है। इसके उलट एनआरसी में यह संबंधित व्यक्ति की जिम्मेदारी होगी। यदि यह दुराग्र्रही पैमाना असम में लागू हो तो वहां 19,06,657 लोग अवैध आव्रजक माने गए। उनमें से अधिकांश बेहद गरीब और कमजोर तबके के लोग हैं। कोई नहीं जानता कि उनका क्या भविष्य होगा।

एनआरसी और सीएए की जुगलबंदी से सबसे ज्यादा भारतीय मुसलमान प्रभावित होंगे

बहरहाल एनआरसी और सीएए की जुगलबंदी से सबसे ज्यादा भारतीय मुसलमान प्रभावित होंगे। बाकी धार्मिक समूह अगर एनआरसी के तहत बाहर हो जाएंगे तो उन्हें सीएए के जरिये जोड़ लिया जाएगा। इसकी गाज केवल मुस्लिमों पर गिरेगी जो अगर एनआरसी में अवैध आव्रजक पाए गए तो उन्हें सीएए का सहारा भी नहीं मिलेगा। यही वजह है कि भारतीय मुसलमानों में इसे लेकर इतने भय और अनिश्चितता का माहौल बना हुआ है।

व्यापक विरोध-प्रदर्शन ने सरकार को कदम पीछे खींचने पर कर दिया मजबूर 

इस पर हुए व्यापक विरोध-प्रदर्शन ने सरकार को फिलहाल कदम पीछे खींचने पर मजबूर कर दिया जबकि गृहमंत्री और अन्य मंत्री अतीत में इसकी ताल ठोंकते आए हैं। ऐसे में सरकार अब राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर यानी एनपीआर लेकर आ रही है जिसे 2010 में हुई जनगणना से जोड़ने का प्रयास भी किया। वैसे 2010 के एनपीआर और 2020 के एनपीआर में जमीन-आसमान का अंतर है। एनपीआर 2010 चुनिंदा राज्यों में ही कराया गया था जिसमें न तो कहीं कोई विवाद हुआ और न ही असम जैसा कोई विषम अनुभव। उसमें सीएए जैसी कोई आशंका भी नहीं थी। साथ ही एनपीआर 2010 में केवल 15 क्षेत्रों के आंकड़ों को शामिल किया गया था। इसके उलट एनपीआर 2020 पूरे देश में कराया जाएगा। यह असम एनआरसी और सीएए के अनर्थकारी अनुभव की पृष्ठभूमि के साथ संपन्न होगा। इसके लिए इस्तेमाल होने वाले फॉर्म में भी तमाम अन्य सूचनाएं मांगी जाएंगी जिनका जनगणना से कोई लेनादेना नहीं होगा। यह एक तरह से एनआरसी जैसी कवायद होगी जिसका पुरजोर विरोध बेहद जरूरी है।

एनआरसी-सीएए-एनपीआर की कवायद आरएसएस-भाजपा के विभाजनकारी एजेंडे के उपकरण हैं

एनआरसी-सीएए-एनपीआर की कवायद असल में आरएसएस-भाजपा के विभाजनकारी एजेंडे को आगे बढ़ाने के उपकरण हैं। भारतीय संविधान के मूल्यों की रक्षा के लिए प्रत्येक देशभक्त भारतीय का दायित्व है कि वह हिंदू राष्ट्र की घातक अवधारणा का विरोध करे। यही वजह है कि भारतीयता के विचार और संविधान की रक्षा के लिए तमाम लोग विशेषकर छात्र सड़कों पर विरोध के लिए उतरे हैं।

( लेखक कांग्र्रेस के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं )