गौरव कुमार। नेपाल एक बार फिर से राजनीतिक संकट के मुहाने पर खड़ा है। किसी न किसी रूप में वहां की राजनीति अस्थिरता का शिकार रही है। इसे चाहे लोकतांत्रिक अपरिपक्वता कहें या फिर चीन की दखलंदाजी या नेपाल की मजबूरी, ताजा गतिरोध नेपाल की संसद भंग होने के साथ शुरू हुआ है। सत्तारूढ़ दल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली 2017 के आम चुनाव के बाद तब प्रधानमंत्री बने थे, जब उनके नेतृत्व वाली पार्टी सीपीएन-यूएमएल और पुष्प कमल दहल यानी प्रचंड की पार्टी सीपीएन (माओ सेंटर) के विलय से सरकार बनी। तब से उनके कार्यकाल में कई घटनाएं राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रभाव की हुईं। उनके कार्यकाल को असफल माना जा रहा है।

घटनाक्रम की पृष्ठभूमि : वर्तमान घटनाक्रम की पृष्ठभूमि में यदि हम जाएं तो पाते हैं कि प्रधानमंत्री ओली का कार्यकाल विवादों में घिरा रहा है। उनकी पार्टी के नेताओं द्वारा ही उनका विरोध किया जाता रहा है। विगत कुछ महीनों से प्रचंड के समर्थकों द्वारा उनका मुखर विरोध किया जा रहा था और उन्हें सत्ता से बेदखल किए जाने के प्रयास भी। इस क्रम में चीन की बढ़ती दखलंदाजी ने भी नेपाल के संकट को बढ़ाने का काम किया। कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति चीन का प्रेम जगजाहिर है और वह नेपाल में भी कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार चाहती है। चीन की दखलंदाजी तब और बढ़ गई जब कम्युनिस्ट पार्टी के दोनों गुटों में तनाव उत्पन्न होना शुरू हुआ। विगत दिनों चीनी राजनयिक होउ यांकी की नेपाली प्रधानमंत्री ओली के साथ नजदीकियां जब सुíखयों में आई, तब चीन की रणनीति का पर्दाफाश हुआ और ओली की काफी आलोचना भी हुई थी। इसके बाद कई घटनाओं के साथ ओली को भी यह पता चला कि चीनी राजनयिक यांकी ओली को सत्ता से बेदखल करने में प्रचंड की मदद भी कर रहे हैं। ओली द्वारा नेपाल संसद भंग करना चीन और विरोधी गुटों के लिए एक झटका भी माना जा रहा है।

भारत के साथ संबंध : भारत के संदर्भ में बात करें तो ओली किसी न किसी रूप में भारत के साथ संबंधों को और भी खराब करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। चाहे इसे चीनी प्रभाव कहें या ओली की खुद की नीति भारत की मित्रता को उन्होंने धूमिल करने का काम किया। भारत के साथ ओली की कड़वाहट का बीज तब ही पड़ गया था, जब 2015 में नेपाल का संविधान लागू हुआ और ओली प्रधानमंत्री बने थे। वर्ष 2016 में ओली के साथ जुड़ी दूसरी पार्टयिों ने अपना समर्थन वापस ले लिया जिस कारण ओली को प्रधानमंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ी थी। ओली ने इस घटना के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराया, क्योंकि तब भारत ने नेपाल के संविधान पर यह कह कर आपत्ति जताई थी कि उसमें मधेशी और थारु लोगों की मांगों को शामिल नहीं किया था। इस आपत्ति को समङो बिना भारत को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराते हुए ओली की कड़वाहट भारत के प्रति बढ़ती गई। अभी हाल में भारत के साथ नेपाल का सीमा विवाद इसी कड़वाहट और चीनी प्रभाव का उग्र रूप था।

भारत-नेपाल के बीच हाल के विवाद : भारत-नेपाल के बीच सीमा विवाद का कारण नेपाल द्वारा नया नक्शा जारी करना था। नेपाल सरकार के इस नए नक्शे में कुल 395 वर्ग किमी के दायरे में अपना अधिकार दर्शाया गया था, जिसमें लिपुलेख, कालापानी और लिंपियाधुरा शामिल थे। भारत सरकार के विरोध के बावजूद नेपाल सरकार द्वारा अपने देश का नया राजनीतिक व प्रशासनिक नक्शा जारी करना चिंतनीय था। नए नक्शे में नेपाल जिन इलाकों पर अपना दावा साबित करना चाह रहा था, वास्तव में वे इलाके भारत की सीमा के भीतर थे। पिछले दिनों धारचूला से लिपुलेख तक नई सड़क का रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा उद्घाटन भी किया गया था। इस सड़क पर भी नेपाल ने आपत्ति जताई थी। प्रत्युत्तर में भारत ने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए नेपाल की आपत्ति को खारिज करते हुए कड़ा एतराज जताया।

नेपाल में जारी राजनीतिक, संसदीय और संवैधानिक गतिरोध का निदान या प्रभाव आंतरिक स्तर पर जो भी हो, इसका दूरगामी प्रभाव भारत पर पड़ेगा। वैसे नेपाल के हर फैसले और नीतियों का भारत पर प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभाव पड़ता ही है। यदि उसमें चीन का समीकरण जोड़ दिया जाए तो वह प्रभाव अधिक हो जाता है। उल्लेखनीय है कि सभ्यता, संस्कृति, इतिहास और भूगोल की दृष्टि से कोई भी दो देश इतने नजदीक नहीं हैं जितने कि भारत-नेपाल हैं। भारत की विदेश नीति हमेशा पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को प्राथमिकता देने की रही है। सीमा विवादों के बावजूद भारत की प्रत्येक सरकार नेपाल के साथ अपने रिश्तों को काफी अहमियत देती रही है।

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेपाल के साथ रिश्तों की अहमियत समझते हैं। अपनी विदेश यात्र के एक पड़ाव के रूप में अपने पहले कार्यकाल में ही उन्होंने तीन बार नेपाल की यात्र की। सुस्त पड़ चुके भारत-नेपाल संबंधों के लिए प्रधानमंत्री की यात्रएं संजीवनी की भांति थीं। करीब 17 वर्षो बाद भारत के किसी प्रधानमंत्री द्वारा नेपाल की यात्र की गई थी। इस लंबे अंतराल के बीच नेपाल की आंतरिक और बाह्य दशा में काफी परिवर्तन हो चुका है। नेपाल एक राजतंत्र से लोकतंत्र की ओर बढ़ चुका है, उसकी प्राथमिकताओं में भी कई तरीके के उतार-चढ़ाव का दौर चलता रहा है। चीन की रणनीतिक भूमिका का परिणाम नेपाल के साथ भारतीय रिश्तों पर भी पड़ा और इस दिशा में भारत ने इसके लिए तमाम कोशिशें भी की हैं। सीमा विवाद के बाद से भारत के कूटनीतिक प्रयासों की वजह से संबंधों में बेहतरी की उम्मीद जगी है और पूर्व से स्थिति थोड़ी बेहतर हुई है।

दोनों देशों ने आपसी संबंधों को भी मजबूत करने की दिशा में कई पहल किए हैं। विगत वर्ष ही भारत-नेपाल के बीच दक्षिण एशिया की पहली क्रॉस-बॉर्डर पाइपलाइन की शुरुआत की गई थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रिमोट के जरिये मोतिहारी-अमलेखगंज पेट्रोलियम पाइपलाइन का उद्घाटन किया था। इसके पूर्व भी भारत-नेपाल के बीच कई महत्वपूर्ण आíथक समझौते हो चुके हैं। महाकाली नदी पर 5,600 मेगावॉट की पंचेश्वर बहुद्देशीय परियोजना के काम को लेकर दोनों देशों के बीच सहमति बनी है। भारत द्वारा विकास सहायता में इस परियोजना के लिए करीब 10 हजार करोड़ रुपये की बढ़ोतरी भी की गई है। इस परियोजना को नेपाल के विकास की कुंजी कहा गया है। नेपाल इससे पांच गुना अधिक बिजली पैदा कर सकता है। नेपाल के पास पनबिजली की असीम क्षमता है जिसके आधार पर इसके विकास में भारत भी भागीदार बनेगा। दोनों देशों के बीच संचार सहयोग के लिए दूरदर्शन और नेपाल टेलीविजन के बीच आपसी सहयोग विकास के लिए भी सहमति हुई है। रक्षा, सुरक्षा, व्यापार व निवेश, जल संसाधन तथा सीमा से जुड़े मुद्दों पर सहयोग बढ़ाने पर भी जोर दिया जाता रहा है।

भारत और नेपाल के बीच महत्वपूर्ण ऐतिहासिक और सांस्कृतिक जुड़ाव है। दोनों देश प्राचीन काल से एक संपर्क सूत्र से जुड़े रहे हैं। दोनों देश पुराने पड़ चुके 1950 की संधि से बंधे हैं जो दोनों देशों को अनेक विशेष सुविधाएं देता है। चूंकि भारत और चीन के बीच में स्थित होने के कारण नेपाल को भी कभी-कभी असहजता महसूस होती है और यदाकदा इससे संधि के उल्लंघन की स्थिति भी पैदा हो जाती है। बदली आंतरिक और वैश्विक परिस्थितियों के बीच भी दोनों देशों के लिए 1950 की संधि की समीक्षा करने की जरूरत आज के समय में महत्वपूर्ण हो गई है। भारत और नेपाल के संबंध कई कारकों से लगातार प्रभावित होते रहे हैं। इन प्रभावों के बावजूद लगभग 1,800 किमी की खुली सीमा के आर-पार लोगों का आवागमन और प्राचीन सामाजिक सांस्कृतिक संबंध ही भारत नेपाल की बीच संबंधों को काफी महत्वपूर्ण बना देता है।

नेपाल अधिकतर व्यापार मार्ग के लिए भारत पर निर्भर है। नेपाल का 60 प्रतिशत व्यापार भी भारत के साथ ही होता है। नेपाल में सर्वाधिक पर्यटक भारत से ही जाते हैं। नेपाल की आधे से अधिक आबादी तराई क्षेत्रों में रहती है जो भारतीय सीमा से लगी है। नेपाल की 83 हजार मेगावॉट की जल बिजली परियोजना जिसे नेपाल विकास का प्राथमिक आधार समझता है, भारत से जुड़ा है। नेपाल की अवस्थिति उसे अनेक मामले में भारत की सहायता करने में सक्षम बनाता है। लघु विकास परियोजना कार्यक्रम के तहत भारत बुनियादी ढांचे, स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण एवं सामुदायिक विकास के क्षेत्रों में 21 हजार करोड़ रुपये से अधिक की करीब तीन हजार परियोजनाएं चला रहा है।

इसे भारतीय विदेश नीति का एक कमजोर पक्ष ही माना जाना चाहिए कि इतनी विशिष्टताओं के बावजूद भारत ने अपेक्षा के अनुरूप नेपाल के साथ संबंधों को अब तक बढ़ावा नहीं दिया, जिसका दुष्परिणाम यह भी हुआ कि चीन ने इस मामले में अपनी बढ़त बना ली। कुछ वर्षो से भारत लगातार प्रयास कर रहा है कि है कि नेपाल के साथ अपने संबंधों को बदलते परिवेश में परिष्कृत करे। नेपाल के वर्तमान संकट की स्थिति के संदर्भ में देखें तो भारत के लिए भी एक चुनौती है जिसे बड़ी संवेदनशीलता और कूटनीति के साथ संभालने की जरुरत है।

[विदेश मामलों के जानकार]