[ संजय गुप्त ]: उच्चतम न्यायालय के हाल के एक फैसले के बाद यह उम्मीद जगी है कि अब अयोध्या विवाद का समाधान जल्द हो सकता है। इस फैसले के तहत सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अयोध्या विवाद का 1994 के उस निर्णय से कोई सीधा संबंध नहीं जिसमें कहा गया था कि नमाज के लिए मस्जिद अनिवार्य नहीं। सुप्रीम कोर्ट से अयोध्या विवाद का जल्द समाधान करने की उम्मीद इसलिए भी की जा रही है, क्योंकि इसके निस्तारण में बहुत देर हो चुकी है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 2010 में अयोध्या विवाद पर जो फैसला दिया था उस पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक तो लगा दी, लेकिन अपना निर्णय नहीं सुनाया। जब जल्द निर्णय देने की एक याचिका पर सुनवाई शुरू हुई तो ऐसी दलीलें सुनने को मिलीं कि इस मसले को अगले आम चुनाव तक टाल देना चाहिए।

आम धारणा है कि इस मामले की सुनवाई में अड़ंगा लगाने के लिए ही इस आशय की याचिका पेश की गई कि पहले 1994 वाले फैसले पर विचार हो। इसी कारण जब तक अयोध्या विवाद की सुनवाई विधिवत शुरू नहीं हो जाती तब तक यह कहना कठिन है कि उसका निपटारा होने ही वाला है। शायद इसी कारण संघ प्रमुख मोहन भागवत ने बीते दिनों यह कहा कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए सरकार को कानून का सहारा लेना चाहिए। इस बयान को मोदी सरकार पर एक दबाव के तौर पर देखा जा रहा है।

हालांकि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण भाजपा के एजेंडे का हिस्सा है, लेकिन वह सत्ता में आने के बाद उस पर ज्यादा जोर नहीं दे पाती। वह ऐसा न अटल सरकार के समय कर सकी और न ही मोदी सरकार के रहते कर पा रही है। भाजपा ने 2014 के घोषणापत्र में भी मंदिर मुद्दे को शामिल किया, लेकिन गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने के कारण उसके लिए इस मुद्दे पर आगे बढ़ना आसान नहीं रहा और अब जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है तब सरकारी स्तर पर इस मसले का समाधान ढूंढने का कोई औचित्य मुश्किल से ही बनता है।

यह सही है कि भाजपा के भी कई नेता मंदिर निर्माण के लिए कानून लाने के पक्षधर हैं, लेकिन इसमें संदेह है कि मौजूदा हालात राम मंदिर के लिए कानून बनाने के अनुकूल हैं। जहां तक भागवत की अपील का प्रश्न है तो हिंदू अस्मिता पर जोर देने वाले एक संगठन के प्रमुख के रूप में उनकी अपेक्षा जायज हो सकती है, लेकिन यह ध्यान रहे कि ऐसे किसी कानून के सुप्रीम कोर्ट की समीक्षा के दायरे में आने में देर नहीं लगेगी। यदि ऐसा हुआ तो अयोध्या का मामला जहां का तहां ही रहेगा।

स्पष्ट है कि मोदी सरकार के समक्ष कानून लाने का अवसर भले ही हो, लेकिन व्यावहारिक रूप से शायद ही यह संभव हो कि वह इस रास्ते पर चलकर अयोध्या विवाद हल कर सके। भाजपा के लिए चुनाव पूर्व यह मसला उठने का अर्थ एक बड़ी राजनीतिक चुनौती खड़ी हो जाना है। उस पर पिछले एक दशक से यह आरोप लगता आ रहा है कि उसके लिए अब यह मसला उतना गंभीर नहीं रहा। ऐसी सोच रखने वाले शायद यह नहीं देख पा रहे कि गठबंधन राजनीति के दौर में भाजपा को इसके लिए सचेत रहना पड़ता है कि वह राम मंदिर मसले को एक सीमा तक ही उठाए। यदि वह इस मुद्दे को जोरदारी से उठाए और उसे अपनी प्राथमिकता में रखे तो जद-यू जैसे सहयोगी सवाल खड़े कर सकते हैैं। विरोधी दल तो उस पर हल्ला बोल ही देंगे, क्योंकि मुस्लिम तुष्टीकरण उनकी राजनीति का अभिन्न अंग है। इसी कारण वे राम मंदिर के सवाल को गंभीरता से समझने से इन्कार करते हैैं। वे यह समझने को भी तैयार नहीं कि भगवान राम भारत की सभ्यता और अस्मिता के प्रतीक हैैं और यदि उनके नाम का मंदिर उनके जन्म स्थान पर नहीं बन सकता तो और कहां बन सकता है? राम के बगैर भारतीय मानस की कल्पना करना कठिन हैैं।

इस भावनात्मक मसले पर मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति संकुचित मानसिकता के अलावा और कुछ नहीं। उनकी यह संकुचित मानसिकता हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की खाई को और चौड़ा करने का ही काम कर रही है। विडंबना यह है कि हमारे अधिकांश दल मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करने में ही अपनी भलाई समझते हैैं। वैसे इधर कांग्रेस की रीति-नीति में कुछ बदलाव आता दिखा है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी आए दिन किसी मंदिर जाते दिखते हैैं। वह अपने को शिवभक्त बताने लगे हैैं तो उनके सहयोगी उन्हें जनेऊधारी हिंदू की संज्ञा देने लगे हैैं। हिंदुत्व के प्रति कांग्रेस का यह अनुराग हाल का घटनाक्रम है। यह शायद 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की पराजय के कारणों पर विचार करने वाली एंटनी समिति की इस राय का असर है कि कांग्रेस की छवि मुस्लिमवादी पार्टी की बन गई है।

इस बारे में कुछ कहना कठिन है कि गुजरात विधानसभा चुनाव के पहले से कांग्रेस ने हिंदू हितैषी पार्टी की छवि बनाने के लिए जो जतन करने शुरू किए हैैं उनसे उसे चुनावी लाभ मिलेगा, लेकिन यह ध्यान रहे कि अभी हाल में जब शशि थरूर ने कहा कि अच्छा हिंदू किसी दूसरे के धर्मस्थल को तोड़कर वहां मंदिर बनाना पसंद नहीं करेगा तो कांग्रेस ने उसे उनका निजी विचार करार दिया। इसी तरह मोहन भागवत के राम मंदिर निर्माण के लिए कानून बनाने की मांग पर कांग्रेस के किसी बड़े नेता की प्रतिक्रिया नहीं सुनाई दी। पता नहीं कांग्रेस हिंदुत्व को कितना महत्व सचमुच दे रही है, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि भारत के राजनीतिक दल राम मंदिर का विरोध करके हिंदुओं का दिल नहीं जीत सकते। अयोध्या में राम मंदिर बने, यह अपेक्षा केवल भाजपा और संघ की ही नहीं, करोडों हिंदुओं की है। एक सच्चाई यह भी है कि राम की स्मृति को अयोध्या से अलग नहीं किया जा सकता।

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का विरोध करने वाले चाहे जो तर्क दें, तथ्य यही है कि बाबर के सिपहसालार मीर बकी ने राम जन्मभूमि मंदिर तोड़कर वहां मस्जिद बनाई, इसके ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्रमाण उपलब्ध हैैं। अच्छा यह होगा कि सभी दल अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण में अपना सहयोग दें। इसी तरह भारतीय समाज के सभी वर्गों और पंथों का नेतृत्व करने वालों को भी यह कोशिश करनी चाहिए कि मुस्लिम समुदाय आपसी सहमति से अयोध्या विवाद का हल करने को आगे बढ़े, क्योंकि राम तो सबके हैैं।

नि:संदेह बात तभी बनेगी जब मुस्लिम समाज का नेतृत्व करने वाले यह समझेंगे कि राम मंदिर हिंदू समुदाय के लिए एक भावनात्मक मुद्दा है। चूंकि तथाकथित सेक्युलरिज्म के नाम पर ज्यादातर राजनीतिक दल मुस्लिम समाज कोे संघ और भाजपा का हौवा दिखाते रहते हैैं इसलिए समझौते और सामंजस्य की कोई राह निकल नहीं पा रही है। बेहतर होगा कि संघ के दबाव में मोदी सरकार की ओर से कोई कदम उठाए जाने की नौबत आने के पहले ही मुस्लिम समाज आपसी बातचीत से अयोध्या मसले के समाधान की इच्छा प्रकट करें।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]