नई दिल्ली (संजय गुप्त)।  कांग्रेस ने छह विपक्षी दलों के साथ मिलकर अपनी संकीर्ण राजनीतिक महत्वाकांक्षा के तहत जिस तरह सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र के खिलाफ महाभियोग लाने का फैसला किया उसका नुकसान पूरी न्यायपालिका और अंतत: देश को उठाना पड़ सकता है। महाभियोग के संसद के दोनों सदनों से पारित होने के कहीं कोई आसार नहीं, इससे कांग्रेस भी अनभिज्ञ नहीं हो सकती और इसका मतलब है कि महाभियोग प्रस्ताव के पीछे शुद्ध राजनीतिक मकसद या बदले की राजनीति है, जैसा कि वित्तमंत्री ने कहा। इसका संकेत इससे भी मिलता है कि जज लोया मामले में मुख्य न्यायाधीश वाली पीठ की ओर से फैसला आने के अगले ही दिन कांग्रेस ने महाभियोग का नोटिस राज्यसभा के सभापति को दे दिया। कांग्रेस जज लोया मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के पहले से ही मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने की तैयारी कर रही थी। कांग्रेसी नेता और वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल की पहल पर महाभियोग प्रस्ताव लाई। कांग्रेस इसके पीछे जो तर्क दे रही है उनमें कोई गंभीरता नहीं नजर आती और शायद इसीलिए कुछ विपक्षी दलों ने उससे यह पूछा कि आखिर मुख्य न्यायाधीश पर जो आरोप हैं उसके सुबूत कहां हैं?

कांग्रेस ने मुख्य न्यायाधीश पर जो आरोप लगाए उनमें एक यह है कि वह चुनिंदा मामले मनपसंद बेंच भेज रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने भी कुछ ऐसा ही आरोप लगाया था। इस आरोप के केंद्र में जज लोया की मौत की जांच वाला मामला भी था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह स्पष्ट किया कि जज लोया की मौत स्वाभाविक थी और उनके निधन के वक्त जो चार जज साथ में थे उनकी बातों को खारिज करने का कोई मतलब नहीं। यह फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उन वकीलों को भी आड़े हाथों लिया था जो लोया की मौत की स्वतंत्र जांच के लिए बेजा दबाव बना रहे थे। महाभियोग प्रस्ताव में मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ एक अन्य आरोप प्रसाद एजुकेशनल ट्रस्ट संबंधी है। आरोप है कि जो शख्स इस ट्रस्ट को अदालत से राहत दिलाने की कोशिश कर रहा था उसे मुख्य न्यायाधीश ने गैर कानूनी तरीके से लाभ पहुंचाया और इस मामले में जब सीबीआइ ने एक जज के खिलाफ एफआइआर दर्ज करने की इजाजत मांगी तो उन्होंने जांच की इजाजत देने से इन्कार कर दिया। तीसरा आरोप उस याचिका से संबधित है जिसमें प्रसाद एजुकेशन ट्रस्ट मामले में जांच की मांग की गई थी। एक अन्य आरोप गलत हलफनामा देकर जमीन हासिल करने का है। इन आरोपों के संदर्भ में इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि प्रसाद ट्रस्ट मामले में भी प्रशांत भूषण और उनके साथी वकील सक्रिय थे और जज लोया मामले में भी।

एक तरह से कुछ वरिष्ठ वकीलों की तरह कांग्रेस भी यह माहौल बनाने की कोशिश कर रही है कि मुख्य न्यायाधीश केंद्र सरकार के इशारे पर काम कर रहे हैं। ऐसा माहौल बनाना न्यायपालिका की गरिमा गिराने वाला काम है। संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा गिराना कांग्रेस के लिए नई बात नहीं है। लंबे समय तक के अपने शासन में कांग्रेस ने एक के बाद एक संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा गिराने का काम किया है। कांग्रेस को भले ही अभी अहसास न हो कि मुख्य न्यायाधीश की छवि खराब कर वह न्यायपालिका का कितना बड़ा नुकसान कर रही है, लेकिन देर-सवेर उसे अपनी गलती का आभास अवश्य होगा। बिना किसी ठोस सुबूत मुख्य न्यायाधीश को कठघरे में खड़ा करना लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं, लेकिन शायद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को इसकी परवाह नहीं। न्यायपालिका और खासकर सुप्रीम कोर्ट के ज्यादातर निर्णय ऐसे होते हैं जिनसे कोई न कोई पक्ष आहत महसूस करता हैं। क्या ऐसे सभी मामलों में पराजित पक्ष जजों की निष्ठा पर सवाल खड़े करने लगेगा? ऐसा लगता है कि कुछ वरिष्ठ वकीलों ने जनहित याचिकाओं को अपने एजेंडे का हिस्सा बना लिया है। अगर कोई फैसला उनके मन-मुताबिक नहीं होता तो वे न्यायाधीशों को कठघरे में खड़ा करने लगते हैं। शायद इसी कारण सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जज लोया मामले की याचिका आपराधिक अवमानना के समान थी और उसका मकसद न्यायपालिका पर हमला करना था। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी पाया कि इस मामले में वकील सुबूत गढ़ने की कोशिश कर रहे थे। सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिकाओं के दुरुपयोग का जिक्र करते हुए कहा कि कई बार पता ही नहीं चलता कि जनहित याचिकाओं के पीछे असली चेहरा कौन है? सुप्रीम कोर्ट के अनुसार जनहित याचिकाएं जरूरी हैं, लेकिन उनका दुरुपयोग चिंताजनक हैं। उसने यह भी पाया कि सतही या फिर खास मकसद से जनहित याचिकाओं से अदालत का वक्त खराब किया जा रहा है, जबकि इन याचिकाओं का लक्ष्य दबे-कुचले और वंचित लोगों को न्याय दिलाना है। दरअसल एजेंडे वाले कुछ वरिष्ठ वकीलों का अहं इतना अधिक बढ़ गया है कि वे खुद को जजों से भी बड़ा समझने लगे हैं। जज लोया के मामले में वकीलों के रवैये से यही साबित होता है कि हर हाल में मनमाफिक फैसला हासिल करने की कोशिश हो रही थी और जब उसमें सफलता नहीं मिली तो मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ अभियान छेड़ दिया गया।

यह सही है कि भ्रष्टाचार ने तमाम अन्य क्षेत्रों की तरह न्यायपालिका में भी अपने पैर फैलाए हैं, लेकिन मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग के कुछ ठोस आधार होने चाहिए। यह ठीक नहीं कि वरिष्ठ वकीलों सरीखी लामबंदी राजनीतिक दल भी करें। मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस इसी लामबंदी को ही रेखांकित कर रहा है। यह लामबंदी सही नहीं, इसका संकेत इससे भी मिलता है कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सलमान खुर्शीद की असहमति के बाद भी महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस दिया गया।

महाभियोग प्रस्ताव लाने जा रही कांग्रेस और उसके साथ खड़े राजनीतिक दल इस पर कुछ ज्यादा ही जोर दे रहे हैं कि मुख्य न्यायाधीश की कार्यशैली से लोकतंत्र खतरे में आ गया है। अगर वास्तव में ऐसा है तो फिर महाभियोग प्रस्ताव लाने वाले दलों को बताना चाहिए कि वे जानबूझकर ऐसा काम करने क्यों जा रहे जिसके पूरा होने की कोई उम्मीद नहीं? क्या कारण है कि कांग्रेस समेत महज छह दलों को ही लोकतंत्र खतरे में नजर आ रहा है? एक सवाल यह भी है कि क्या राजनीतिक भ्रष्टाचार और राजनीति के भ्रष्ट तौर-तरीके लोकतंत्र के लिए ज्यादा बड़ा खतरा नहीं? सच तो यह है कि लोकतंत्र को सबसे ज्यादा नुकसान राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली से पहुंचा है। आज भाजपा और वाम दलों को छोड़ दें तो ज्यादातर दल घोर सामंती प्रवृत्ति यानी गैर लोकतांत्रिक तरीके से चल रहे हैं। क्या ऐसे तरीके से लोकतंत्र मजबूत हो रहा है? राजनीतिक दलों ने जात-पांत, ऊंच-नीच और क्षेत्र-मजहब की राजनीति करने के साथ चुनाव जीतने के लिए हर तरह के छल-छद्म भी डंके की चोट पर किए हैं। विडंबना यह है कि बिना किसी रोक-टोक ऐसा काम करने वाले राजनीतिक दल मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग लाने का आधार यह बता रहे हैं कि उन पर कुछ लांछन लगे हैं।

(लेखक- दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)