कुमुद शर्मा। दायित्वबोध के बिना किसी प्रकाशन संस्थान का दबाव में लिया गया निर्णय कितनी सुगमता से अन्याय का शक्तिशाली औजार हो सकता है, इसका ताजा उदाहरण ब्लूम्सबरी पुस्तक संस्थान ने -देल्ही रायट्स 2020 : द अनटोल्ड स्टोरी- पुस्तक के प्रकाशन से अपने हाथ खींचकर प्रस्तुत किया है। यह पूरा घटनाक्रम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन की कहानी है। इसे दिल्ली के उत्तर-पूर्व में 46 लोगों की कथित हत्या एवं अरबों रुपये की राष्ट्रीय संपत्ति को क्षति पहुंचानेवाले राष्ट्र विरोधी नकाबपोशों पर पर्दा डालने की चेष्टा के रूप में देखा जाएगा। इस निर्णय से न केवल मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद 19 (1) ए के अंतर्गत मिली लेखकीय स्वतंत्रता का हनन हुआ है, बल्कि उन चिंतकों एवं बुद्धिजीवियों की अभिव्यक्ति की आजादी पर भी प्रहार हुआ है, जिनके साक्षात्कार एवं विचार इस पुस्तक में समाहित किए गए हैं।

पुस्तक प्रकाशन संस्थान के इस निर्णय ने उस नए नैरेटिव को दबाने की चेष्टा भी की है जिसमें सांप्रदायिकता की भावना भड़काकर मिथ्या चेतना पैदा करने और फिर परस्पर झगड़े-फसाद से भाई-चारे की भावना पर आघात करके राष्ट्रीय एकता को कमजोर करते रहने के पारंपरिक षड्यंत्रों का उद्घाटन भी होता है। यह वर्तमान सरकार के राष्ट्रीय अभिप्रायों एवं उपलब्धियों को लहुलूहान करने की चेष्टा है। यह इस बात का भी उदाहरण है कि अभिव्यक्ति की आजादी एवं असहिष्णुता का निरंतर राग अलापनेवाले तथाकथित बुद्धिजीवी दूसरों के विचारों के प्रति किस तरह हिंसा से भर उठते हैं। कुछ भय, कुछ आशंकाएं, कुछ तथ्य तो होंगे जिस कारण इस किताब के प्रकाशन में बाधा पहुंचाने की चेष्टा की गई है। संकेत मिल रहे हैं कि भारत में राजनीतिक रूप से अवसान की तरफ बढ़ रही फासीवादी ताकतें, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की घोषित शत्रु मानी जाती हैं तथा सांप्रदायिक बंटवारे की राजनीति को सत्ता का द्वार समझनेवाली कुछ तथाकथित धर्मनिरपेक्षता का ढोंग रचानेवाली पार्टियां अपने राष्ट्र विरोधी कारनामों पर पर्दा डालना चाहती हैं।

ये दंगे क्यों हुए? इनमें कौन से सांप्रदायिक संगठन एवं सांप्रदायिक शक्तियां सम्मिलित थीं? इसकी प्रेरणा कहां से मिल रही थी? इन तमाम तथ्यों को उजागर किया गया है इसमें, इसलिए इस पुस्तक को लेकर कुछ राजनीतिक पार्टियां और कुछ संस्थाएं घबराई हुई हैं, क्योंकि उन्हें देश के समक्ष जबावदेह होना पड़ेगा। पुस्तक प्रकाशन को रोकने के विषय में ब्लूम्सबरी इंडिया का कहना है कि चूंकि पुस्तक की तीनों लेखिकाओं मोनिका अरोड़ा, सोनाली चितालकर और प्रेरणा मल्होत्रा ने प्रकाशन संस्थान को सूचित किए बिना 22 अगस्त को पुस्तक के -ऑनलाइन बुक लॉन्च- की घोषणा कर दी और इसमें ऐसे लोगों को आमंत्रित किया गया था जिनको शामिल करने की मंजूरी प्रकाशन कभी नहीं देता। प्रकाशन ने इसके लिए तर्क गढ़ लिया है कि वह अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करता है, फिर भी समाज के प्रति उसकी गहरी जिम्मेदारी बनती है। प्रश्न यह उठता है कि यह पुस्तक देश और समाज के समक्ष दंगे की छिपी सच्चाई को उजागर करती है, तो क्या यह समाज के प्रति गहरी जिम्मेदारी का परिचायक नहीं है। ब्लूम्सबरी को समाज के प्रति जिम्मेदारी का अहसास उस समय क्यों नहीं हुआ, जब प्रकाशन हेतु पुस्तक की पांडुलिपि प्राप्त की थी? और यह अहसास उनमें उस समय भी नहीं जागा, जब उन्होंने इसका लोकार्पण सितंबर में करने की घोषणा की थी। अब अचानक दायित्वबोध का यह अहसास कैसे पैदा हो गया?

सूत्र बताते हैं कि यह ब्लूम्सबरी यूके के दबाव का परिणाम था जिस कारण पुस्तक को न छापने का फैसला लिया गया। इस संस्थान पर दबाव बनाने के लिए राष्ट्र विरोधी ताकतों ने पुस्तक पढ़े बिना पुस्तक के विरुद्ध सोशल मीडिया पर अभियान चलाया। दूसरी ओर पुस्तक प्रकाशन से पल्ला झाड़ने के पहले -लेफ्टवर्ड बुक्स- प्रकाशन संस्थान के प्रकाशक एस देशपांडे ने अपने एक ब्लॉग में आरोप लगाया कि -इस पुस्तक के हाथ खून से सने हुए हैं।- फिर वह खुद से सवाल करते हैं कि -क्या मैं इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहा हूं? नहीं। मैं प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्था ब्लूम्सबरी से कहना चाहता हूं कि वह अपने आप से प्रश्न करे कि वह कौन सी आचार संहिता है जिसके अंतर्गत इतने कम समय में ऐसी पुस्तक को प्रकाशित करने की मजबूरी पैदा हो गई। क्या एक प्रकाशक के तौर पर आपकी जिम्मेदारी नहीं बनती कि कम से कम उसके बुनियादी तथ्यों की जांच करें।- इसमें दिलचस्प यह है कि पुस्तक पढ़े बिना टिप्पणियां जड़ी जा रही हैं। यहां यह जान लेना जरूरी है कि -लेफ्टवर्ड बुक्स- दिल्ली स्थित एक ऐसा प्रकाशन संस्थान है, जो भारत एवं दक्षिण एशिया के वामपंथी विचारकों के अनुसंधान के प्रकाशन और प्रसार से जुड़ा हुआ है। इसकी पहचान इस रूप में है कि यह श्रमजीवी आंदोलन में रुचि लेकर सामाजिक परिवर्तन के कथित अभियानों से जुड़ा हुआ है। कुल मिलाकर इसकी पहचान वाम एक्टिविस्ट के रूप में है।

यह जगजाहिर है कि उत्तर-पूर्वी दिल्ली का दंगा सीएए की आड़ में उकसाया और भड़काया गया था, जिसमें कांग्रेस समेत वामपंथी और कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के समर्थकों ने हिस्सा लिया। यह आंदोलन देश की एकता एवं राष्ट्रीयता के विरुद्ध था। किसी सरकार के विरुद्ध आंदोलन की दशा में उसका औचित्य भी बताया जाना चाहिए। यह भी बताया जाना चाहिए कि समानता, स्वतंत्रता, धार्मिक आजादी, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक व शोषण के विरुद्ध दिए गए मौलिक अधिकारों का हनन न होने पर आप दंगे क्यों कर रहे हैं?

[प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय]