दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन ने 2023 में सिर्फ 5.2% ग्रोथ दर्ज की है। महामारी के वर्षों को छोड़ दें तो यह पिछले तीन दशक में सबसे कम है। रियल एस्टेट संकट इसका मुख्य कारण तो है ही, अन्य फैक्टर भी हैं जिनकी वजह से चीन की आर्थिक स्थिति लगातार बिगड़ रही है। वहां कामकाजी लोगों की आबादी घट रही है। अमेरिका और यूरोप को उनका निर्यात कम हो रहा है। थिंक टैंक ब्रॉयगल में सीनियर रिसर्च फेलो और पेरिस स्थित इन्वेस्टमेंट बैंक नेटिक्सिस में एशिया पेसिफिक की मुख्य अर्थशास्त्री एलिसिया गार्सिया हेरेरो का कहना है कि कुछ वर्षों के बाद चीन की विकास दर घटकर एक प्रतिशत तक भी आ सकती है। हांगकांग यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी में एडजंक्ट प्रोफेसर, एलिसिया ने जागरण प्राइम के एस.के. सिंह के साथ बातचीत में यह भी कहा कि ब्रिक्स संगठन का विस्तार भारत के हित में नहीं है। बातचीत के मुख्य अंश-

-क्या आपको लगता है कि चीन में तेज विकास का युग अब अतीत की बात हो गई है?

हां, पूरी तरह। वहां रियल एस्टेट संकट तो बड़ा है ही, दूसरी बड़ी समस्या स्थानीय सरकारों की है, क्योंकि वे वित्तीय रूप से अक्षम हैं। सरकारी कर्ज का 70% स्थानीय सरकारों पर है- चाहे वह बैलेंस शीट पर हो या ऑफ बैलेंस शीट। स्थानीय सरकारों के पास जमीन की बिक्री से होने वाली राजस्व आय के अलावा और कोई साधन नहीं है। वे टैक्स नहीं बढ़ा सकती हैं। अब जब डेवलपर जमीन नहीं खरीद रहे तो स्थानीय सरकारें घाटे में चली गई हैं।

स्थानीय सरकारों को खर्च के लिए फंड का बड़ा हिस्सा ट्रांसफर से मिलता है। जैसे, तिब्बत को उसकी जीडीपी का 100% ट्रांसफर से प्राप्त होता है। ऐसे में अगर केंद्र सरकार समय रहते या पर्याप्त राशि नहीं देती है तो स्थानीय सरकार डिफॉल्ट कर सकती है। यह बड़ी विकट स्थिति है।

-चीन की ग्रोथ को लेकर आपके क्या अनुमान हैं?

वर्ष 2035 तक चीन को 2.3% की दर से आगे बढ़ना चाहिए। आप इसे बहुत कम कह सकते हैं, लेकिन आप इसे भारत के नजरिए से देख रहे हैं जहां लंबे समय तक 7% औसत विकास दर की बात कही जा रही है। यहां आपको ध्यान रखना पड़ेगा कि चीन में शहरीकरण की दर भारत की तुलना में दोगुनी है। चीन की 60% से अधिक आबादी शहरी इलाकों में है। यहां यह बात भी अहम है कि चीन की विकास दर में जो गिरावट आई है वह बढ़ती उम्र के कारण नहीं है। कम से कम अभी तक तो नहीं। हां, वर्ष 2035 के बाद इसका असर दिखने लगेगा।

-लेकिन चीन की कामकाजी आबादी घट रही है। तो क्या यह उसके विकास को प्रभावित नहीं करेगी?

चीन में कामकाजी वर्ग अब भी ग्रोथ में सकारात्मक योगदान कर रहा है क्योंकि वहां लोग अब भी शहरों की ओर जा रहे हैं। वर्ष 2035 या उससे कुछ पहले तक शहरीकरण पूरा हो जाने की उम्मीद है। लेबर फोर्स में गिरावट से उत्पादकता प्रभावित होगी क्योंकि श्रमिकों की कमी का असर शहरों में ही होगा। दूसरी तरफ, आबादी कम होने से विकास दर हर साल 1.3% कम होती जाएगी। इससे आने वाले जितने वर्षों तक हम देख सकते हैं, उसमें चीन की विकास दर एक प्रतिशत तक गिर सकती है। इसकी भरपाई उत्पादकता बढ़ाकर की जा सकती है। लेकिन अभी तक हमने चीन में उत्पादकता में वृद्धि नहीं देखी है। वहां अनुसंधान एवं विकास पर खर्च काफी बढ़ने के बावजूद यह स्थिति है।

-क्या टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से इसे सुधारा जा सकता है?

सिर्फ टेक्नोलॉजी आपको अधिक उत्पादक नहीं बना सकती। इसके लिए आपको संस्थान चाहिए। आपको टेक्नोलॉजी समाहित करने की जरूरत है, लेकिन यह सिर्फ तकनीकी स्तर पर न हो बल्कि समग्र रूप से होना चाहिए। चीन ऐसा नहीं कर रहा है।

चीन की अर्थव्यवस्था में मैन्युफैक्चरिंग 30% के आसपास है। वह दुनिया को काफी निर्यात कर सकता है, जो भारत के साथ यूरोप के लिए भी समस्या है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि चीन ज्यादा प्रोडक्टिव हो जाएगा, क्योंकि उनकी अर्थव्यवस्था के 70% हिस्से में सुस्ती होगी। चीन इलेक्ट्रिक वाहनों का बड़ा निर्यातक बन गया है, लेकिन आप सिर्फ इलेक्ट्रिक वाहनों से उम्मीद नहीं कर सकते। यह तो इकोनॉमी का एक हिस्सा मात्र है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उत्पादकता का मतलब एफिशिएंसी नहीं है।

-आपको कोई और कारण दिखता है?

चीन की रफ्तार सुस्त पड़ने का एक और कारण एसेट पर मिलने वाला रिटर्न है। मैंने उनके माइक्रो डेटा के आधार पर आकलन किया है। वर्ष 2013 में चीन का एसेट पर रिटर्न 9% था, अब यह मुश्किल से दो प्रतिशत है। रियल एस्टेट में रिटर्न नेगेटिव, इंफ्रास्ट्रक्चर में शून्य और मैन्युफैक्चरिंग में लगभग 5% है। इन तीनों की अर्थव्यवस्था में हिस्सेदारी एक-एक तिहाई है। इस तरह कुल रिटर्न दो प्रतिशत से कम बैठता है। चीन में काफी निवेश ऐसा है जो अनुत्पादक यानी अनप्रोडक्टिव बन गया है। यही चीन का भविष्य है।

-आप भारत की भूमिका को किस तरह देखती हैं?

भविष्य भारत का ही है क्योंकि आपके पास डिमांड है, आपकी आबादी बढ़ रही है, आपके पास उपभोक्ता हैं, खपत जीडीपी का 70% है। उनके मामले में यह सिर्फ 32 प्रतिशत है। इसलिए आप उनका जवाब हैं। उनकी आबादी कभी मौजूदा स्तर से अधिक खपत नहीं करेगी, उनकी सीमाएं हैं। जैसा हमने जापान में देखा, दशकों बाद भी उनकी आबादी खपत नहीं बढ़ा पा रही है।

-चाइना प्लस वन पॉलिसी के कारण एक नया ग्लोबल वैल्यू चेन विकसित हो रहा है। यह कितना सफल होगा और भारत को इसमें क्या करना चाहिए?

देखिए, मैं तो कहूंगी कि भारत बदलाव का हिस्सा बन चुका है। मेरे विचार से भारत के लिए आगे की राह सहयोग यानी कोऑपरेशन की है। जैसे, रिसर्च एंड डेवलपमेंट में साझा प्रयास। आज यूरोपियन चीन के साथ अपने वैज्ञानिक सहयोग की समीक्षा कर रहे हैं। वहां हर व्यक्ति कह रहा है कि हमें यह सब किसी और के साथ करना चाहिए। इसलिए अगर आप ज्यादा कुछ न भी करें, सिर्फ अपना बिजनेस कार्ड दें तो आप उनके साथ हो सकते हैं। क्योंकि हर कोई नया साझीदार तलाश रहा है। यूरोप के साथ मुक्त व्यापार समझौता बेहतर होगा लेकिन मेरे ख्याल से यह गेम चेंजर नहीं होगा।

-चीन मांग में कमी से जूझ रहा है। कुछ दिनों पहले वहां के सेंट्रल बैंक, पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना ने रिजर्व रेशियो में कटौती की घोषणा की। इससे मांग बढ़ाने में कितनी मदद मिलेगी?

मैं तो इसे मजाक कहती हूं। पहली बात तो यह कि उन्होंने घोषणा के साथ कटौती नहीं कि। मैंने पहली बार पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना को यह कहते देखा कि हम 15 दिन बाद रिजर्व रेशियो में कटौती करेंगे। आप अभी क्यों नहीं कर सकते? और फिर 0.5% कटौती कुछ भी नहीं है। उनका रिजर्व रेशियो 12.5% है जो घटकर 12% रह जाएगा। सेंट्रल बैंक में 12% लिक्विडिटी फंस कर रहना बहुत बड़ी रकम है। वे अपनी इकोनॉमी का गला घोट रहे हैं।

-अगर ऐसा है तो वे इसमें बड़ी कटौती क्यों नहीं करते?

यह विचारधारा की समस्या है। उन्हें कम ब्याज दर पसंद नहीं है। मैंने अनेक बार उन्हें यह कहते सुना कि ‘अगर आप मजबूत हैं तो आपको कम ब्याज दर की जरूरत नहीं है। यह तो यूरोपियन और जापानियों के लिए है।’ वे कम ब्याज दर को समस्या मानते हैं। डिफ्लेशन उनके लिए समस्या नहीं है क्योंकि इससे उन्हें निर्यात में प्रतिस्पर्धा में मदद मिलती है। लेकिन वे इस बात को नहीं महसूस कर रहे कि वे जापान के रास्ते पर जा रहे हैं।

वे दरों में बहुत धीमी गति से कटौती कर रहे हैं और डिफ्लेशन में फंस गए हैं। यह सही है कि डिफ्लेशन में वे पूरी दुनिया को निर्यात बढ़ा सकते हैं। लेकिन यह अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी भयावह स्थिति है क्योंकि उद्योगों के प्रॉफिट नेगेटिव हो जाएंगे। चीन में लिक्विडिटी की स्थिति इतनी सख्त है कि उसमें मामूली कटौती से मांग नहीं बढ़ाई जा सकती।

-चीन में रियल एस्टेट संकट चरम पर है और हांगकांग की एक अदालत ने एवरग्रांडे ग्रुप के लिक्विडेशन का आदेश दिया है। इसका क्या असर होगा?

यह आदेश हांगकांग की अदालत ने दिया है, इसलिए लिक्विडेशन की प्रक्रिया हांगकांग में ही हो सकेगी। एवरग्रांडे के ज्यादातर ऐसेट मैनलैंड चीन में हैं। जब एवरग्रांडे की स्थिति बिगड़ी तब उसके 13 लाख यूनिट अधूरे पड़े थे। कुछ विश्लेषक दो करोड़ यूनिट का भी अनुमान लगाते हैं। कल्पना कीजिए यह कितनी बड़ी समस्या है। लेकिन हांगकांग की अदालत को कोई एसेट नहीं मिलेगा क्योंकि वहां कोई कॉलेटरल नहीं है। यह आगे चलकर बड़ा संकट बनेगा।

हांगकांग में इस वर्ष आईपीओ की लंबी लिस्ट है क्योंकि 2022 और 2023 में वहां बहुत कम आईपीओ आए। वहां कंपनियां इंतजार कर रही हैं। अब अगर कोई कंपनी विदेशी निवेशक के पास जाती है तो वह सवाल करेगा कि ‘आपके एसेट कहां हैं? शेनझेन में? माफ कीजिएगा, हम आपको पैसा नहीं दे सकते।’ एवरग्रांडे का मामला दिखाता है कि निवेशक को उसके निवेश पर 100% का नुकसान हो सकता है। एवरग्रांडे चीन ही नहीं, दुनिया की सबसे बड़ी रियल स्टेट डेवलपर है, कम से कम कर्ज के मामले में तो ऐसा ही है।

-चीन अपनी मुद्रा का अंतरराष्ट्रीयकरण करने की कोशिश कर रहा है…।

हां, और यह बात भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। मैं प्रतिबंधों से बचने के लिए उनकी करेंसी रेनमिंबी में खरीद-बिक्री कर सकती हूं, लेकिन यह जोखिम भरा है क्योंकि इससे उनकी मुद्रा में ही क्रॉस बॉर्डर भुगतान बढ़ रहा है। रूस और ब्राजील भी ऐसा कर रहे हैं। स्विफ्ट (SWIFT) क्रॉस बॉर्डर पेमेंट में रेनमिंबी में होने वाला ट्रांजैक्शन 5.2% तक पहुंच गया है, जो बड़ी बात है। चाइनीज इंटरनेशनल पेमेंट सिस्टम (सीआईपीएस) के माध्यम से होने वाले क्रॉस बॉर्डर ट्रांजैक्शन स्विफ्ट मैसेजिंग सिस्टम में दर्ज नहीं होते हैं। उन्हें शामिल किया जाए तो या रकम और बड़ी हो जाती है।

-लेकिन यह समस्या कैसे है?

क्योंकि इससे रणनीतिक रूप से निर्भरता बढ़ती है। मान लीजिए आप श्रीलंका या नेपाल की तरह छोटे देश हैं और आपको रेनमिंबी में फंडिंग मिलती है। इस समय चीन के 50% क्रॉस बॉर्डर कर्ज उसकी मुद्रा में ही हैं। चीन रेनमिंबी में कर्ज देता है क्योंकि वह अपने डॉलर खर्च नहीं करना चाहता। चीन की मुद्रा में कर्ज लेने के बाद श्रीलंका या नेपाल चीन से ही आयात कर सकते हैं। यह रणनीतिक निर्भरता है जो एक बड़ी समस्या बन सकती है। इस तरह डी-डॉलराइजेशन यानी डॉलर का प्रभुत्व कम करना भारत के लिए भी फायदेमंद नहीं है। जब आप दुनिया की सबसे बड़ी इकोनॉमी बन जाएं तब डी-डॉलराइजेशन की बात कीजिए, अभी नहीं। अभी रेनमिंबी को स्वीकार करने का मतलब है कि आपको उनका इस्तेमाल चीन से आयात के लिए ही करना पड़ेगा।

-चीन से इतर… पिछले डेढ़ वर्षों के दौरान हमने सभी प्रमुख देशों के केंद्रीय बैंकों द्वारा ब्याज दरों में तेज वृद्धि देखी है। इसमें कटौती की उम्मीद कब से की जा सकती है?

इस वर्ष जून से आप इसमें कटौती देख सकते हैं। हमने रिकॉर्ड महंगाई देखी जो मुख्य रूप से सप्लाई चेन में बाधा के कारण हुई थी।

-ब्रिक्स संगठन का विस्तार हो रहा है। इसका विश्व आर्थिक व्यवस्था पर आप क्या असर देखती हैं?

माफ कीजिएगा, लेकिन मुझे नहीं लगता कि ब्रिक्स का विस्तार भारत के लिए अच्छा है। जब ब्रिक्स बैंक (न्यू डेवलपमेंट बैंक) बना तब चीन ने आपके साथ बात की। उन्होंने कहा कि इसका मुख्यालय चीन में होगा और प्रेसिडेंट भारत का। लेकिन आज प्रेसिडेंट कौन है? ब्राजील की दिलमा राउसेफ। संगठन में जितने ज्यादा देश होंगे, भारत के लिए अपने प्रभुत्व का इस्तेमाल करना उतना मुश्किल होता जाएगा। चीन दूसरे देशों को प्रभावित कर सकता है।

अर्जेंटीना ने ब्रिक्स में शामिल होने का फैसला बदल दिया क्योंकि वहां सरकार बदल गई है। लेकिन क्या अर्जेंटीना कभी चीन की अनदेखी कर भारत को सपोर्ट करेगा? नहीं, क्योंकि उनका सारा व्यापार चीन के साथ हो रहा है। यही स्थिति मिस्र के साथ है। ये देश चीन के कर्ज के बोझ से दबे हैं। इसलिए मुझे नहीं लगता कि ब्रिक्स का विस्तार भारत के लिए अच्छा है। मुझे तो लगता है कि एक दिन भारत इस संगठन से खुद निकल जाएगा क्योंकि तब तक परिस्थितियां वैसी हो चुकी होंगी।