एस.के. सिंह, नई दिल्ली। पिछले दिनों हांग कांग में निवेशकों का एक सम्मेलन हुआ। उसमें लगभग 40 प्रतिशत प्रतिभागियों ने कहा कि चीन के शेयर ‘अन-इन्वेस्टिबल’ यानी ‘निवेश के योग्य नहीं’ हैं। दरअसल, चीन के शेयर बाजारों का हाल तीन साल से बुरा है। हांग कांग का हैंगसेंग इंडेक्स फरवरी 2021 में शिखर को छूने के बाद जनवरी 2024 तक लगभग 50% गिर कर 1997 के स्तर के करीब पहुंच गया। इस दौरान शंघाई कंपोजिट इंडेक्स करीब 25% गिरा है। इन तीन वर्षों में चाइनीज मार्केट की वैलुएशन लगभग 6 लाख करोड़ डॉलर घट चुकी है, जो चीन की जीडीपी के एक-तिहाई के बराबर है। हांग कांग एक्सचेंज में लिस्टेड शेयरों का मार्केट कैप 7.5 लाख करोड़ डॉलर से 52% घट कर 3.59 लाख करोड़ डॉलर रह गया।

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शेयर बाजार को छोड़ दें तो भी चीन बीते कुछ समय से आर्थिक कारणों से बार-बार सुर्खियों में आ रहा है। बेशक ये वजहें नेगेटिव हैं। चीन की अर्थव्यवस्था के तीन मुख्य पहलू हैं- निवेश, निर्यात और घरेलू खपत। चीन की करीब 45% ग्रोथ निवेश पर आश्रित रही है, लेकिन अब अनेक सेक्टर ओवर कैपेसिटी से जूझ रहे हैं। नियमों और बिजनेस वातावरण को राजनीतिक सहूलियत के हिसाब से बदला जाना निजी क्षेत्र के लिए समस्या बन गया है और विदेशी निवेशक भी कतरा रहे हैं। निर्यात की बात करें तो वर्ष 2023 में यह 4.6% घट कर 3.38 लाख करोड़ डॉलर रह गया। उसके सबसे बड़े बाजार अमेरिका और यूरोपियन यूनियन को निर्यात 20% से अधिक घटा है। रही बात घरेलू खपत की तो चीन के लोगों ने अपना लगभग 70% निवेश रियल एस्टेट में कर रखा है, जिसके डूबने के कारण अनिश्चितता चरम पर है और लोग खर्च करने के बजाय बैंकों में पैसा रख रहे हैं। कुल आबादी और कामकाजी आबादी कम हो रही है तथा पढ़े-लिखे युवाओं में बेरोजगारी 20% से ज्यादा पहुंच गई है।

ऐसी डांवाडोल परिस्थिति में चीन ने 2023 में 5.2% जीडीपी ग्रोथ दर्ज की जो कोविड महामारी के तीन साल छोड़ दें तो तीन दशक में सबसे कम है। यह आंकड़ा भी तब है जब 2022 में सिर्फ 3.0% ग्रोथ रही थी, यानी बेस बहुत कम था। वैसे विशेषज्ञ तो 5.2% को भी इन्फ्लेटेड मान रहे हैं।

हालात सुधारने की अब तक की कोशिशें मामूली साबित हुई हैं। समस्या स्ट्रक्चरल होने के कारण विशेषज्ञ मान रहे हैं कि स्थिति सुधरने में 10 साल भी लग सकते हैं। चीन की जीडीपी का आकार अमेरिका के 70% तक पहुंचने के बाद माना जा रहा था कि एक से डेढ़ दशक में वह अमेरिका से भी बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। लेकिन मौजूदा हालात में सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना तो दूर, अमेरिका की तुलना में यह अनुपात भी घटने के आसार लग रहे हैं।

नई दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर ऑफ चाइनीज एंड साउथ-ईस्ट एशियन स्टडीज में प्रोफेसर और जाने-माने साइनोलॉजिस्ट डॉ. बी.आर. दीपक जागरण प्राइम से कहते हैं, “पिछले दिनों उन्होंने 2003 में 5.2% जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े जारी किए। मुझे नहीं लगता कि इसमें पूरी सच्चाई है, क्योंकि जमीनी हालात इतनी ग्रोथ को नहीं दिखाते। वास्तविक विकास दर एक प्रतिशत के आसपास होगी, या यह भी संभव है कि वह नेगेटिव हो।”

सबसे बड़ा कारण रियल एस्टेट

विशेषज्ञ सिस्टम की खामी को चीन की आर्थिक स्थिति बिगड़ने का सबसे बड़ा कारण मानते हैं। प्रो. दीपक के अनुसार, सबसे बड़ा सिस्टेमिक कारण यह है कि चीन की करीब 45% ग्रोथ निवेश आधारित रही है। इन्वेस्टमेंट और रियल एस्टेट का आपस में सीधा संबंध है। चीन की जनता ने अपना लगभग 70% निवेश रियल एस्टेट में कर रखा है। चीन के केंद्रीय बैंक के अनुसार 2022 के अंत तक 78 करोड़ चीनी नागरिक कर्ज में थे और उन पर लगभग सारा कर्ज रियल एस्टेट का था।

दरअसल, चीन सरकार ने रियल्टी सेक्टर में स्पेकुलेशन पर 2020 में कार्रवाई शुरू की थी। राष्ट्रपति शी जिनपिंग का कहना था कि घर रहने के लिए हैं, मुनाफाखोरी के लिए नहीं। नए कर्ज पर अंकुश के बाद 2021 में सबसे बड़े रियल्टी डेवलपर एवरग्रांडे ग्रुप ने डिफॉल्ट किया। अब तक कई दर्जन डेवलपर कर्ज लौटाने में डिफॉल्ट कर चुके हैं। उनके सैकड़ों प्रोजेक्ट अधूरे पड़े हैं और लोगों ने किस्तें चुकाना बंद कर दिया है।

सोनीपत स्थित ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. गुंजन सिंह कहती हैं, “हाउसिंग सेक्टर एक रिफ्लेक्शन मात्र है। इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ज्यादा फोकस से चीन में जितने घर बन गए, उतने तो रहने वाले नहीं हैं। लोगों ने काफी ऊंचे दामों पर घर खरीदे थे। जब रियल एस्टेट सेक्टर में गिरावट आई तो लोगों का इकोनॉमी के प्रति कॉन्फिडेंस कम होने लगा है।”

चीन के एक पूर्व सरकारी अधिकारी ने सितंबर में बयान दिया था कि चीन की पूरी 140 करोड़ की आबादी भी इन घरों को भर नहीं सकेगी। कुछ चाइनीज विशेषज्ञ तो यहां तक कहते हैं कि खाली पड़े घर इतने हैं कि उनमें 300 करोड़ लोग रह सकते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार दिसंबर 2023 तक 29 महीने में 24 महीने ऐसे बीते जब नए घरों की बिक्री में गिरावट दर्ज की गई।

डॉ. गुंजन एक और बात बताती हैं, “माना जाता है कि चीन में रियल एस्टेट इन्फ्रास्ट्रक्चर सैचुरेशन पर पहुंचने लगा तब वह इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट निर्यात करने के लिए बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) प्रोजेक्ट लेकर आया। हालांकि यह प्रोजेक्ट भी चीन की उम्मीद के मुताबिक नहीं चल रहा। हाल ही इटली ने बीआरआई से अलग होने की घोषणा की है। कोविड के समय बीआरआई में निवेश लगभग बंद हो गया था। चीन के पास ही पैसे की कमी थी तो वह दूसरे देशों में कैसे निवेश करता। चीन को यह नए सिरे से शुरू करना पड़ रहा है।”

डांवाडोल इकोनॉमी का असर शेयर बाजार पर

चीन के करीब 22 करोड़ लोगों ने शेयर बाजार में निवेश कर रखा है और वहां के बाजार बीते तीन वर्षों में 50% तक गिर चुके हैं। इस दौरान भारत में बीएसई के सेंसेक्स में लगभग 47%, अमेरिका के एसएंडपी 500 में 24% और यूरोप की सबसे बड़ी इकोनॉमी जर्मनी के इंडेक्स डैक्स में 17% की बढ़ोतरी हुई है। चीन के बाजारों का प्रदर्शन 2023 में तो खराब रहा ही, 2024 में भी 5 फरवरी तक यह सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला बाजार था। चाइनीज सोशल मीडिया पर विरोध नहीं कर पाने के कारण लोगों ने बीजिंग स्थित अमेरिकी दूतावास के सोशल मीडिया एकाउंट पर जाकर अपना गुस्सा निकाला।

5 फरवरी के बाद सरकार के हस्तक्षेप के बाद कुछ सुधार आया। माना जा रहा है कि हस्तक्षेप के तौर पर सरकारी कंपनियों को विदेशी खातों से चाइनीज कंपनियों के शेयर खरीदने के लिए कहा गया है। प्रधानमंत्री ली कियांग ने अधिकारियों को बाजार में स्थिरता लाने के निर्देश भी दिए, लेकिन इससे निवेशकों का भरोसा लौटाना मुश्किल है क्योंकि रियल एस्टेट संकट से उबरने और अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए सरकार ने कोई बड़ा कदम नहीं उठाया है।

खपत के बजाय बचत कर रहे घरेलू उपभोक्ता

एसओएएस यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन में फाइनेंशियल इकोनॉमिक्स की प्रोफेसर और लंबे समय से चीन की इकोनॉमी का अध्ययन करने वाली हांग बो के अनुसार, “लोगों ने प्रॉपर्टी मार्केट में जो पैसा लगा रखा था, लॉकडाउन के बाद उसकी वैल्यू में लगातार गिरावट आ रही है। लोगों को उस निवेश पर नुकसान उठाना पड़ रहा है। वेतन में भी कमी आई है। भविष्य को लेकर अनिश्चितता चरम पर है, इसलिए वे आने वाले दिनों के लिए बचत करना उचित समझ रहे हैं।”

प्रो. दीपक के अनुसार, “एक आंकड़ा यह भी है कि चीन के 30 करोड़ लोग डिफाल्टर हैं, वे बैंक को कर्ज लौटाने में सक्षम नहीं हैं। देश की आर्थिक स्थिति के प्रति लोगों का कॉन्फिडेंस निचले स्तर पर पहुंच गया है। चीन का दावा है कि उसके पास 40 करोड़ मध्य वर्गीय हैं, लेकिन कॉन्फिडेंस कम होने के कारण वे लोग खर्च नहीं कर रहे हैं।” हालांकि राष्ट्रपति शी जिनपिंग अब भी विदेशी निवेशकों को भरोसा दिला रहे हैं। उन्होंने पिछले दिनों कहा, “अगले एक दशक में चीन में मध्य वर्गीय आबादी दोगुनी, 80 करोड़ हो जाएगी। खपत का मोमेंटम बेहद मजबूत है।”

दीपक बताते हैं, “चीन में कॉलेज-यूनिवर्सिटी से निकलने वाले 16 से 24 आयु वर्ग में बेरोजगारी की दर 21.2% है। यह आंकड़ा जून 2023 का है। उसके बाद वहां के नेशनल ब्यूरो ऑफ स्टैटिसटिक्स ने आंकड़े देना ही बंद कर दिया। माना जाता है कि वास्तविक आंकड़ा काफी ज्यादा, 40% के आसपास हो सकता है।”

डॉ. गुंजन कहती हैं, “चीन की घरेलू नीति और घरेलू परिस्थितियां भी इसमें योगदान कर रही हैं। अमेरिका में लोग खर्च करते हैं। वहां घरेलू खर्च के कारण भी अर्थव्यवस्था को गति मिल जाती है। लेकिन चीन के लोग दुनिया में सबसे अधिक बचत करने वालों में गिने जाते हैं। महामारी के दौरान उन्होंने देखा कि अगर सरकार मदद नहीं करती है तो जीवन यापन के लिए बचत ही सहारा है।”

उनके मुताबिक, “महामारी के समय चीन सरकार की नीति ने वहां के लोगों को अधिक बचत करने के लिए ही प्रोत्साहित किया, खर्च करने के लिए नहीं। अब सरकार चाहती है कि लोग खर्च करें। लेकिन सवाल है कि लोग अचानक अपनी जमा पूंजी क्यों खर्च करने लगेंगे।”

ब्लैक होल में जा रहा पैसा

चीन के लोगों ने बचत खाते और एफडी जैसे लांग टर्म डिपॉजिट में काफी निवेश किया है। इसे हतोत्साहित करने के लिए पिछले साल अप्रैल में चीन के केंद्रीय बैंक पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना (PBoC) ने बैंकों से जमा पर ब्याज दर घटाने को भी कहा था। आम लोगों ने 2022 में बैंकों में 2.5 लाख करोड़ डॉलर जमा कराए थे। उसके बाद 2023 की पहली तिमाही में 1.4 लाख करोड़ डॉलर और जमा कराए। जमा बढ़ने से बैंकों का नेट इंटरेस्ट मार्जिन कम हो रहा है। 2023 की पहली छमाही में यह 1.7% रह गया, जो अब तक का रिकॉर्ड निचला स्तर है।

वर्ल्ड बैंक के अनुसार 2022 में चीन की बचत दर 46.98% थी। यह बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे ज्यादा है। चीन की बचत दर 20 वर्षों से लगातार 40% से ऊपर है। यह 2010 में तो 51% से भी अधिक हो गई थी। जून 2023 में कुल घरेलू जमा राशि 18.41 लाख करोड़ डॉलर हो गई थी जो ढाई साल की रिटेल बिक्री के बराबर है।

1990 के दशक की शुरुआत में जापान में भी ऐसी समस्या उत्पन्न हुई थी और वह अभी तक इससे जूझ रहा है। विशेषज्ञ चीन के भी जापान जैसी स्थिति में फंसने की आशंका जता रहे हैं। उनका कहना है कि पैसा एक तरह से ब्लैक होल में जा रहा है।

दरअसल, घरेलू निवेशक रियल एस्टेट और शेयर बाजार से पैसे निकाल कर बैंकों में जमा कर रहे हैं, ताकि कुछ तो रिटर्न मिले। आने वाले समय में स्थिति और बिगड़ने की आशंका तथा रोजगार संकट के कारण उपभोक्ता अनावश्यक खर्च करने से बच रहे हैं। मांग न बढ़ने के कारण कंपनियां भी निवेश करने के बजाय बैंकों में पैसे जमा कर रही हैं।

कम होती आबादी का असर

दो साल से चीन की आबादी कम हो रही है। इसके साथ कामकाजी लोग भी घट रहे हैं। इसे भी मांग घटने का एक कारण माना जा रहा है। थिंक टैंक ब्रॉयगल में सीनियर रिसर्च फेलो और पेरिस स्थित इन्वेस्टमेंट बैंक नेटिक्सिस में एशिया पेसिफिक की मुख्य अर्थशास्त्री एलिसिया गार्सिया हेरेरो के मुताबिक, “आबादी कम होने से विकास दर हर साल 1.3% कम होती जाएगी। इससे आने वाले जितने वर्षों तक हम देख सकते हैं, उसमें चीन की विकास दर एक प्रतिशत तक गिर सकती है। इसकी भरपाई उत्पादकता बढ़ाकर की जा सकती है, लेकिन अभी तक हमने चीन में उत्पादकता में वृद्धि नहीं देखी है।” हेरेरो हांगकांग यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी में एडजंक्ट प्रोफेसर भी हैं।

प्रो. दीपक के अनुसार, “पिछले चार दशक में चीन के तेज विकास में वहां की 30 करोड़ कामकाजी आबादी का बहुत बड़ा योगदान रहा। उन्हीं के बूते चीन ने मैन्युफैक्चरिंग में अपना दबदबा बनाया और रियल एस्टेट में इतने दशकों तक ग्रोथ बनी रही। चीन निश्चित रूप से रोबोट, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मैकेनाइजेशन का इस्तेमाल बढ़ा रहा है, लेकिन क्या ये सब उपाय घटती कामकाजी आबादी की जगह ले सकेंगे? मुझे इसकी संभावना कम दिखती है।”

हांग बो के अनुसार, “उम्रदराज लोगों की संख्या बढ़ रही है, साथ में बेरोजगारी भी काफी ज्यादा हो गई है।” गुंजन कहती हैं, “वहां जीवनयापन काफी महंगा होता जा रहा है और उस हिसाब से लोगों की आमदनी नहीं बढ़ रही है।”

डेलॉय के चीफ ग्लोबल इकोनॉमिस्ट इरा कलिश ने ग्लोबल इकोनॉमिक अपडेट में लिखा है, “सरकार ने एक दशक पहले एक बच्चे की नीति खत्म कर दी थी, लेकिन जन्म दर में अभी तक गिरावट आ रही है। महंगाई के कारण दंपती सिर्फ एक बच्चा चाहते हैं। सोशल मीडिया पर इन दिनों ‘न डेटिंग, न शादी, न बच्चे न घर” का नारा प्रचलित है।’

विदेशी निवेशक भी चीन से कतराने लगे

चीन सरकार ने 2020 में निजी कंपनियों पर सख्ती शुरू की थी। राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर अनेक विदेशी कंपनियों पर जुर्माना लगाया गया और उनके कर्मचारी हिरासत में लिए गए। उसके बाद उसे निवेश के मोर्चे पर भी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। प्रो. दीपक कहते हैं, “चीन-अमेरिका संबंधों में तनाव, ट्रेड वॉर, हाईटेक वॉर के चलते चीन में विदेशी निवेश में भी गिरावट आ रही है। अब डी-कपलिंग या डी-रिस्किंग के कारण बहुत सी कंपनियां भारत, वियतनाम तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के दूसरे देशों में जा रही हैं।”

बीते दशकों में चीन की सरकार ने भी निवेश में काफी योगदान किया, लेकिन अब उसका उल्टा असर हो रहा है। हेरेरो के अनुसार, अनेक सेक्टर ओवर कैपेसिटी की समस्या से जूझ रहे हैं। दूसरी तरफ डिमांड कम है। इससे कंपनियों का मुनाफा घट रहा है। वे एक और महत्वपूर्ण बात बताती हैं, “चीन की रफ्तार सुस्त पड़ने का एक और कारण एसेट पर मिलने वाला रिटर्न है। मैंने उनके माइक्रो डेटा के आधार पर आकलन किया है। वर्ष 2013 में चीन का एसेट पर रिटर्न 9% था, अब यह मुश्किल से दो प्रतिशत है।”

हांग बो के मुताबिक, “निजी क्षेत्र को लेकर सरकार की नीतियां उत्साहित करने वाली नहीं हैं। घरेलू खपत कम होने के कारण उनके प्रोडक्ट के दाम भी कम हुए हैं। इसलिए कंपनियां नया निवेश करने से बच रही हैं।”

सरकार की नीतियां निवेश को किस तरह हतोत्साहित कर सकती हैं, इसका एक उदाहरण पिछले महीने देखने को मिला जब हांग कांग की एक अदालत ने रियल्टी कंपनी एवरग्रांडे के लिक्विडेशन का आदेश दिया। हेरेरो कहती हैं, “आदेश हांगकांग की अदालत ने दिया है, इसलिए लिक्विडेशन की प्रक्रिया हांगकांग में ही हो सकेगी जबकि एवरग्रांडे के ज्यादातर ऐसेट मैनलैंड चीन में हैं। अब अगर कोई कंपनी विदेशी निवेशक के पास जाती है तो वह सवाल करेगा कि आपके एसेट कहां हैं? शेनझेन में? माफ कीजिएगा, हम आपको पैसा नहीं दे सकते।”

न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार 2021 में डिफॉल्ट करने वाली एवरग्रांडे पर 300 अरब डॉलर का कर्ज है। यह उसके एसेट से भी ज्यादा है। डॉ. गुंजन कहती हैं, “सरकार ने निजी क्षेत्र के साथ जो रवैया अपनाया, वह भी महत्वपूर्ण है। पार्टी की विचारधारा आधारित नीतियां अपनाने से निजी क्षेत्र को नुकसान हुआ है। इससे बिजनेस कॉन्फिडेंस कम हुआ और विदेशी कंपनियां जाने लगीं।”

स्थानीय सरकारों पर कर्ज और वुल्फ वॉरियर डिप्लोमेसी

स्थानीय सरकारों के कारण चीन की हालत और बिगड़ी है। हांग बो के अनुसार, केंद्र सरकार के कर्ज का स्तर बहुत ज्यादा नहीं कह सकते, लेकिन स्थानीय सरकारों का कर्ज काफी ज्यादा है। हेरेरो बताती हैं, “सरकारी कर्ज का 70% से ज्यादा स्थानीय सरकारों पर है। स्थानीय सरकारों के पास जमीन की बिक्री से होने वाली राजस्व आय के अलावा और कोई साधन नहीं है। अब जब डेवलपर जमीन नहीं खरीद रहे तो स्थानीय सरकारें घाटे में चली गई हैं। अगर केंद्र सरकार समय रहते या पर्याप्त राशि नहीं देती है तो स्थानीय सरकार डिफॉल्ट कर सकती है। यह बड़ी विकट स्थिति है।” आईएमएफ के अनुसार 2022 में स्थानीय सरकारों का कर्ज 12.6 लाख करोड़ डॉलर पहुंच गया था, जो चीन की जीडीपी के लगभग 76% के बराबर है। 2019 की तुलना में इसमें 62% की बढ़ोतरी हुई है।

कोविड-19 महामारी ने भी चीन की इकोनॉमी के इस हाल में पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभाई है। प्रो. दीपक कहते हैं, “लंबे समय तक जीरो कोविड पॉलिसी अपनाने से आर्थिक स्थिति तहस-नहस हो गई। और फिर ‘वुल्फ वॉरियर डिप्लोमेसी’ से विकसित देशों में चीन की छवि बहुत खराब हुई। उन्हें लगा कि चीन पूरी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को बदलने की कोशिश कर रहा है। इससे विकसित देश चीन के खिलाफ अमेरिका के साथ लामबंद हो गए।”

एक्सिस बैंक के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री सौगत भट्टाचार्य चीन की विकास दर गिरने के दो तरह के बुनियादी कारण मानते हैं- चक्रीय और संरचनात्मक। वे कहते हैं, चक्रीय कारणों में देखें तो घरेलू खपत कमजोर है। अर्थव्यवस्था में भरोसा कम होने के चलते लोग ज्यादा बचत कर रहे हैं। युवाओं में बेरोजगारी दर ऊंचे स्तर पर पहुंच चुकी है। सरकार का कर्ज का स्तर पर भी बहुत ज्यादा है और वह अपने बूते खर्च करके विकास को गति देने की स्थिति में नहीं है। संरचनात्मक कारण चीन की बूढ़ी हो रही आबादी है।

निर्यात में भी कमजोर प्रदर्शन

चीन के जनरल एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ कस्टम्स के अनुसार वर्ष 2023 में निर्यात 4.6% घटकर 3.38 लाख करोड़ डॉलर और आयात 5.5% घटकर 2.56 लाख करोड़ डॉलर रह गया। सालाना ट्रेड वॉल्यूम 5.94 लाख करोड़ डॉलर रहा और इसमें 5% गिरावट आई है। वर्ष 2016 के बाद पहली बार चीन के निर्यात में गिरावट आई है। 2023 में निजी क्षेत्र का निवेश भी 0.4% कम हुआ है।

प्रो. दीपक के मुताबिक, “जो निर्यात उनकी ताकत हुआ करता था, वह भी कमजोर हो रहा है। अमेरिका, चीन का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर होने के साथ चीनी वस्तुओं का सबसे बड़ा बाजार भी था। लेकिन पिछले साल चीन से अमेरिका को निर्यात 23.1% गिर गया। यूरोपियन यूनियन को चीन का निर्यात भी 20.6% गिरा है।”

डॉ. गुंजन भी कहती हैं, अमेरिका ने चीन से अनेक वस्तुओं के आयात पर टैरिफ बढ़ाया है। यूरोप भी ऐसा करने पर विचार कर रहा है। हांग बो के अनुसार, “यूरोपीय यूनियन इलेक्ट्रिक वाहनों पर टैरिफ लगाने पर विचार कर रहा है। जाहिर है इसका चीन के निर्यात पर नकारात्मक असर तो पड़ेगा ही।”

डेलॉय के कलिश ने कमजोर विश्व अर्थव्यवस्था को भी चीन के निर्यात में गिरावट का एक कारण बताया है। गुंजन कहती हैं, “इस समय दुनिया की ज्यादातर अर्थव्यवस्थाओं की स्थिति कमजोर लग रही है। सबकी विकास दर में गिरावट का अनुमान है और चीन इसके केंद्र में है क्योंकि मैन्युफैक्चरिंग हब होने के नाते चीन से काफी सप्लाई दूसरे देशों को जाती है।”

अमेरिका से बड़ी इकोनॉमी बनना दूर की कौड़ी

विकास की गति धीमी होने से चीन के दुनिया की सबसे बड़ी इकोनॉमी बनने के अनुमानों पर भी संदेह उठने लगे हैं। प्रो. दीपक के अनुसार, “पिछले चार दशकों में चीन की आर्थिक गति के आधार पर विशेषज्ञ अनुमान लगा रहे थे कि वह 2030 या फिर 2035 तक अमेरिका को पीछे छोड़कर दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन जाएगा। लेकिन मौजूदा स्थिति को देखते हुए ऐसा नहीं लगता।”

वे कहते हैं, “चीन की जीडीपी का आकार अमेरिका के 70% से 75% तक पहुंच गया था, लेकिन मौजूदा परिस्थितियों के आधार पर एक चीनी लेखक ने ही लिखा है कि अगले एक दशक में यह अनुपात घटकर 50% रह जाएगा।” हांग बो भी कहती हैं, “मेरे विचार से चीन की विकास दर के आंकड़े पहले जितने ऊंचे नहीं हो सकते। इसलिए अब लगता है कि अमेरिका को पीछे छोड़ने में उसे ज्यादा समय लगेगा।”

आगे क्या है अनुमान

प्रो. दीपक के अनुसार, “आज चीन के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह निवेश आधारित मॉडल को खपत आधारित मॉडल में कैसे बदले। यह स्ट्रक्चरल समस्या है और मुझे नहीं लगता कि साल-दो साल में यह समस्या दूर होगी। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि रियल एस्टेट समस्या के कारण जो स्थिति उपजी है, उसे सुधरने में 10 साल भी लग सकते हैं।”

वे कहते हैं, “आगे स्थिति इस बात पर निर्भर करेगी कि चीन स्ट्रक्चरल बदलाव कैसे करता है। अभी तक बीमा और बैंकिंग जैसे क्षेत्रों में उसने विदेशी निवेशकों को अनुमति नहीं दी है। प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्र में भी उन्होंने विदेशी निवेश आने नहीं दिया। कई ऐसे सेक्टर हैं जिनमें चीन की कंपनियों का एकाधिकार है। चीन को अनेक बुनियादी सुधार करने पड़ेंगे। जब तक चीन विभिन्न सेक्टर को विदेशी निवेश के लिए नहीं खोलेगा, तब तक विकसित देशों की कंपनियां वहां पैसा नहीं लगाएंगी।”

एलिसिया हेरेरो कहती हैं, “मांग में तेजी से वृद्धि जरूरी है। इसके लिए बड़ा स्टिमुलस पैकेज देना पड़ेगा, जिसकी संभावना कम है। यह भी कितना असरदार होगा, कह नहीं सकते क्योंकि चीन की समस्या स्ट्रक्चरल है।” डेलॉय के इरा कलिश के मुताबिक, “चीन फिस्कल स्टिमुलस से झिझक रहा है क्योंकि इससे करेंसी की कीमत काफी गिर सकती है। इससे सरकार का कर्ज भी बढ़ेगा। अगर सप्लाई ज्यादा है तो सब्सिडी घटाने जैसे सरकारी कदम बंद करने पड़ेंगे, लेकिन तब बेरोजगारी बढ़ने का खतरा होगा।”

मांग बढ़ाने के लिए पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना ने रिजर्व रेशियो 0.5% घटाया है। लेकिन हेरेरो इसे मजाक मानती हैं, “चीन में रिजर्व रेशियो 12.5% घटकर 12% हो गया। सेंट्रल बैंक में 12% लिक्विडिटी फंस कर रहना ही बड़ी समस्या है।” प्रो. हांग बो को भी इस कदम का ज्यादा असर होता नहीं दिखता “क्योंकि समस्या सप्लाई साइड की नहीं बल्कि डिमांड साइड की है। जरूरत डिमांड बढ़ाने की है। यही कारण है कि पिछले साल भी दो बार रिजर्व रेशियो घटाने के बावजूद उसका अर्थव्यवस्था पर कोई खास असर नहीं दिखा।”

पीपुल्स बैंक ऑफ चाइना ने 24 जनवरी को बैंकों के रिजर्व रेशियो (आरआरआर) में 0.5% कटौती करने की घोषणा की। इससे चाइनीज बैंकों के पास कर्ज देने के लिए अतिरिक्त 139 अरब डॉलर उपलब्ध होंगे। नई दर 10 फरवरी को नए साल का जश्न शुरू होने से पहले, 5 फरवरी से लागू हो गई। इससे पहले कटौती सितंबर 2023 में हुई थी, लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ। मांग बढ़ी नहीं और चीन की अर्थव्यवस्था अक्टूबर में डिफ्लेशन में चली गई।