एस.के. सिंह, नई दिल्ली। भारत में खेती में डिजिटल सेवाओं का प्रयोग बढ़ने का सीधा असर फसलों की उत्पादकता पर हुआ है। मोबाइल फोन आधारित एक्सटेंशन (सलाह) सेवा से फसलों की पैदावार में चार प्रतिशत वृद्धि हुई और खेती में इनपुट के इस्तेमाल में 22% सुधार हुआ है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की ‘स्टेट ऑफ फूड सिक्युरिटी एंड एग्रीकल्चर’ रिपोर्ट में यह बात कही गई है। रिपोर्ट के अनुसार, डिजिटल सर्विसेज से मशीनों तक किसानों की पहुंच आसान होगी और छोटे किसानों की लागत में भी कमी आएगी। डिजिटल टेक्नोलॉजी से ग्रामीण इलाकों में कम खर्च में बड़े पैमाने पर एक्सटेंशन और एडवाइजरी सेवाएं उपलब्ध कराई जा सकती हैं।

वैसे तो एफएओ की यह रिपोर्ट विश्व खाद्य सुरक्षा और शहरीकरण पर अधिक है, इसमें भारत के बारे में कई बातों का भी विशेष जिक्र है। यहां खेती पर शहरीकरण का प्रभाव शहर से बाहर भी दिखा है। जैसे, दिल्ली के आसपास खेती बदली है। शहरों में उच्च वर्ग के साथ निम्न और मध्य आय वर्ग में भी सब्जियों और डेयरी प्रोडक्ट की मांग बढ़ी है। ये लोगों के खानपान का अहम हिस्सा बन गए हैं। इसलिए दिल्ली के आसपास अनाज की जगह सब्जियां अधिक उगाई जा रही हैं और मवेशी अधिक पाले जा रहे हैं। दूसरी तरफ शहर के अवसरों का दूर-दराज के लाखों छोटे किसान लाभ नहीं उठा पाते। वहां कम उत्पादकता और अधिक परिवहन लागत के चलते कृषि विकास भी सीमित है। गांवों की तुलना में शहरों में दाल, बीज और नट्स पर लोगों का खर्च कम हुआ है। इसकी भरपाई लोग दूध तथा एनिमल प्रोटीन से कर रहे हैं।

शहरों से अधिक मांग और बेहतर ट्रांसपोर्ट व्यवस्था के कारण उत्तर प्रदेश और बिहार में कोल्ड स्टोरेज बढ़े हैं। इससे आलू किसानों को लाभ हुआ है। पारंपरिक ब्रोकरों की भूमिका कम हुई तथा किसान और उपभोक्ता के बीच की सप्लाई चेन छोटी हुई है। ई-कॉमर्स में खेती में ब्रोकरों की संख्या कम करने की क्षमता है। कोविड ने भारत में ई-कॉमर्स की ग्रोथ की दर 30% से 70% कर दी। हालांकि चीन में यह 10% से 20% ही बढ़ी क्योंकि वहां ई-कॉमर्स का प्रसार पहले से था। सप्लाई चेन छोटी होने से किसानों को अधिक कीमत मिलेगी और उपभोक्ताओं को कम दाम देना पड़ेगा।

दरअसल, फूड प्रोसेसिंग के साथ बागवानी उत्पाद, दूध से बने उत्पाद, ऑर्गेनिक प्रोडक्ट जैसे क्षेत्रो में मांग बढ़ रही है। डेलॉय इंडिया के पार्टनर आनंद रामनाथन का सुझाव है कि सरकार को इन क्षेत्रों के लिए विशेष मदद देनी चाहिए। इसके अलावा एआई, मशीन लर्निंग, रिमोट सेंसिंग, बिग डाटा, ब्लॉकचेन, इंटरनेट ऑफ थिंग्स, ड्रोन तथा रोबोट का प्रयोग कृषि में बढ़ रहा है। इनका उचित ईकोसिस्टम भी तैयार करने की जरूरत है।

शहरीकरण से बदल रहा खान-पान का व्यवहार

एफएओ की इस साल की रिपोर्ट की थीम अर्बनाइजेशन यानी शहरीकरण है। इसमें कहा गया है, अभी दुनिया की 56% आबादी शहरों में रह रही है। वर्ष 2050 तक यह अनुपात 70% हो जाएगा। शहरीकरण हमारे एग्री फूड सिस्टम को नया आकर दे रहा है। इस सिस्टम में खाद्य उत्पादन से लेकर फूड प्रोसेसिंग, उनका वितरण, मार्केटिंग और उपभोक्ताओं का व्यवहार सब शामिल हैं। आबादी बढ़ने के चलते छोटे-मझोले शहर, गांव तथा महानगर के बीच की कड़ी बन गए हैं। शहरीकरण के साथ खाद्य पदार्थों की मांग और उनकी आपूर्ति तेजी से बदल रही है। यह हमारी पारंपरिक सोच के लिए चुनौती है। कई मायने में खाद्य पदार्थों की खरीद शहरी परिवारों के साथ ग्रामीण परिवारों में भी बढ़ी है। शहर से सटे इलाकों (पेरी-अर्बन) और ग्रामीण क्षेत्रों में प्रोसेस्ड फूड की मांग तेजी से बढ़ रही है। सब्जियों, फलों, वसा तथा तेल की मांग शहर तथा गांव दोनों जगह समान गति से बढ़ रही है। यह बदलाव लोगों की खाद्य सुरक्षा और पोषण को भी प्रभावित कर रहा है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे कहां रह रहे हैं।

समुन्नति एग्रो के डायरेक्टर और मध्य प्रदेश के पूर्व कृषि सचिव प्रवेश शर्मा के अनुसार, हाल के वर्षों में कृषि उत्पादन का पैटर्न बदला है। अब हमारे किसानों को फल, सब्जी, डेयरी, पोल्ट्री आदि से काफी आमदनी होने लगी है। लेकिन दूर-दराज के इलाकों में इनके लिए कृषि एक्सटेंशन मशीनरी नहीं है, जिसे मजबूत करने की जरूरत है। रिपोर्ट के अनुसार, सिर्फ गांव और शहर को अलग-अलग मानकर नीति बनाने से काम नहीं चलेगा। अब एक मजबूत और बेहतर समन्वय वाले गवर्नेंस की व्यवस्था की जरूरत है।

भारत के लिए सेहतमंद खाने पर रिपोर्ट

सेहत के लिए शहरीकरण की चुनौतियां

रिपोर्ट के अनुसार, शहरीकरण का अफोर्डेबल और सेहतमंद खाने पर सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों प्रभाव पड़ता है। शहर के गरीबों का अफोर्डेबल खाना अक्सर सेहतमंद नहीं होता। पौष्टिक खाना महंगा होता है, इसलिए गरीब परिवार अधिक ऊर्जा वाला अफोर्डेबल खाना खाते हैं, जिसमें पोषण बहुत कम होता है। अधिक कैलोरी, वसा और नमक वाले फास्ट फूड कम कीमत पर और आसानी से उपलब्ध हैं। यह भी कुपोषण का एक कारण है। शहरों में प्रोसेस्ड फूड तथा घर से बाहर का खाना अधिक खाने की वजह से बच्चों में अधिक वजन की समस्या बढ़ रही है। यह समस्या शहर के आसपास के इलाकों और गांवों में भी बढ़ रही है। शहर के अन्य आय वर्ग के लोगों के लिए भी अफोर्डेबल और पौष्टिक भोजन की चुनौती है। सुपरमार्केट और फास्टफूड चेन में प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं।

शहरों में खाद्य असुरक्षा काफी हद तक आमदनी पर निर्भर करती है। कम आय वाले कमाई का बड़ा हिस्सा खाने पर खर्च करते हैं। उन पर बेरोजगारी, सेहत की समस्या और खाद्य महंगाई का असर भी अधिक होता है। पैसा ट्रांसफर करने की स्कीम, सामुदायिक किचन और फूड बैंक जैसी पहल अक्सर खाद्य असुरक्षा की समस्या दूर करने में नाकाम रहते हैं।

रिपोर्ट में कहा गया है कि शहरीकरण बढ़ने से एशिया और अफ्रीका में 2030 तक खेती की जमीन 3% कम हो जाएगी, लेकिन उत्पादन का नुकसान 6% से 9% होगा। कारण यह है कि अक्सर शहरों के आसपास की जमीन अधिक उपजाऊ होती है। शहरों के आसपास के किसानों को जानकारी बेहतर होती है और वे इनपुट का प्रयोग भी बेहतर करते हैं। इसलिए वे अधिक प्रोडक्टिव होते हैं। इसलिए जमीन के नुकसान की तुलना में उत्पादन का नुकसान अधिक होता है।

हालांकि शहरीकरण अवसर भी लेकर आता है। इससे हमारी खाद्य वैल्यू चेन अधिक औपचारिक बनती है, लोगों को रोजगार के साधन मिलते हैं तथा पोषक भोजन की वैरायटी बढ़ती है। गांव के आसपास शहरीकरण बढ़ने से किसानों को कृषि इनपुट तथा सर्विसेज की बेहतर व्यवस्था मिलती है।

भूख से जूझते लोगों की संख्या भी बढ़ी

रिपोर्ट के अनुसार विश्व स्तर पर भूख की समस्या महामारी से पहले की तुलना में अब भी काफी ज्यादा है। वर्ष 2022 में दुनिया की 9.2% आबादी भूख की समस्या से जूझ रही थी। 2019 में यह अनुपात 7.9% था। कुल आंकड़ा देखें तो 2022 में भूख से पीड़ित दुनिया में 73.5 करोड़ लोग थे, यह 2019 की तुलना में 12.2 करोड़ अधिक है। हालांकि विश्व स्तर पर भूख की समस्या से जूझ रहे लोगों का बढ़ना 2022 में रुक गया और 2021 की तुलना में इसमें 38 लाख की कमी आई, लेकिन यह सुधार बहुत धीमा है और यूक्रेन रूस युद्ध के कारण खाद्य पदार्थ और ऊर्जा की बढ़ी कीमत इस पर भारी पड़ रही है। अनुमान है कि 2030 तक 60 करोड़ लोग भूख की समस्या से जूझ रहे होंगे।

महामारी के कारण लोगों की आमदनी में कमी, सेहतमंद भोजन की बढ़ती कीमत और सामान्य महंगाई में वृद्धि के कारण स्वास्थ्यवर्धक भोजन लोगों की पहुंच से बाहर हो गया है। इसका नतीजा है कि दुनिया में 2022 में 5 साल से कम 22.3% यानी 14.81 करोड़ बच्चे स्टंटिंग यानी कम लंबाई से पीड़ित थे, 6.8% यानी 4.5 करोड़ वेस्टिंग यानी कम वजन से पीड़ित थे और 5.6% यानी 3.7 करोड़ बच्चे ज्यादा वजन से ग्रस्त थे। स्टंटिंग और वेस्टिंग की समस्या गांव में तो अधिक वजन की समस्या शहरों में अधिक है। बच्चों में अल्प पोषण कम करने के प्रयासों के बावजूद स्टंटिंग और वेस्टिंग का लक्ष्य 2030 तक पूरा नहीं होगा।

भारत में अल्प पोषण और मोटापे की समस्या

90 करोड़ लोगों के लिए खाद्य असुरक्षा गंभीर

स्टेट ऑफ फूड सिक्युरिटी एंड एग्रीकल्चर रिपोर्ट के अनुसार कोविड-19 से पहले की तुलना में दुनिया में गंभीर खाद्य असुरक्षा से पीड़ित लोगों की संख्या काफी बढ़ गई है। युद्ध, आर्थिक सुस्ती, खाद्य महंगाई और जलवायु परिवर्तन के कारण यह नौबत आई है। इन कारणों के साथ बढ़ती असमानता से सबको पोषक, सुरक्षित और सस्ता भोजन उपलब्ध कराना चुनौतीपूर्ण हो गया है। खाद्य असुरक्षा और कुपोषण के लिए जिम्मेदार ये कारक ‘नया सामान्य’ बनते जा रहे हैं। हमारे पास अपने एग्री फूड सिस्टम को बदलने के लिए प्रयास दोगुना करने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। वर्ष 2030 तक जीरो हंगर का सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल बड़ी चुनौती बन गया है।

इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) के पूर्व डायरेक्टर डॉ. पी.के. जोशी के अनुसार विश्व स्तर पर पिछले तीन दशक में खाद्य संकट के चार चरण देखे जा सकते हैं। 1990 के दशक की शुरुआत में पूर्वी एशिया में वित्तीय संकट आया। इससे लोगों की आमदनी घटी और उनके सामने खाद्य संकट पैदा हो गया। हालांकि वहां स्थिति में तेजी से सुधार हुआ। उसके बाद जलवायु परिवर्तन से 2008-11 में खाद्य पदार्थों के दाम काफी बढ़े थे। तब भी कई गरीब देशों में खाद्य संकट गहराया। खाद्य संकट का तीसरा चरण कोविड-19 महामारी के दौरान आया, और अब रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण फिर संकट खड़ा हुआ है। इसकी वजह से दाम बढ़े हैं और बड़ी संख्या में लोग महंगा खाद्य पदार्थ खरीदने की स्थिति में नहीं हैं। इन चारों चरणों के दौरान भारत में कोई खास समस्या नहीं हुई। हमारे पास पर्याप्त बफर स्टॉक था।

हालांकि भारत में कुपोषण की समस्या गंभीर है। वर्ल्ड फूड प्रोग्राम (WFP) के अनुसार अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर होने के बावजूद दुनिया के एक चौथाई अल्पपोषित और कुपोषित भारत में ही हैं। FAO की स्टैटिस्टिकल रिपोर्ट 2021 के मुताबिक 2018-20 के दौरान दुनिया में अल्पपोषित लोगों की संख्या 68.39 करोड़ और भारत में 20.86 करोड़ थी।

समस्या सिर्फ भूख की नहीं है। दुनिया की 42% आबादी यानी 310 करोड़ लोग 2021 में सेहतमंद भोजन अफोर्ड करने की स्थिति में नहीं थे। 2022 में 240 करोड़ लोग यानी दुनिया की 29.6% आबादी खाद्य असुरक्षा से जूझ रही थी। इसमें से 90 करोड़ यानी 11.3% गंभीर खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे थे। खाद्य असुरक्षा ग्रामीणों और महिलाओं को अधिक प्रभावित करती है। ग्रामीण इलाकों में 2022 में 33.3 प्रतिशत वयस्क मॉडरेट या गंभीर खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे थे। शहरों में यह अनुपात 26% और शहरों से सटे इलाकों में 28.8% था।