[ आशुतोष झा ]: आजादी के बाद के कुछ वर्षों को छोड़ दें तो गुजरे साल को भारत के लिहाज से सबसे अधिक घटना प्रधानवर्ष कहा जा सकता है। दरअसल पिछले सात-आठ महीनों के अंदर ही कुछ इतने बड़े फैसले और प्रयोग हुए जिनमें भारत का नया स्वरूप, नया रुख, नई दिशा-दशा तय करने की क्षमता है। हालांकि समाज खासकर विश्वविद्यालयों एवं राजनीति में तत्काल इसका अनुकूल-प्रतिकूल प्रभाव दिखने लगा है, लेकिन ये फैसले इतने बड़े हैं कि उनके व्यापक असर की छाप लंबे वक्त के बाद ही स्पष्ट हो सकेगी।

वक्त तय करेगा कि आक्रामक विपक्ष का आंदोलन सिर्फ बुलबुला है या फिर जमीनी हकीकत

वक्त ही तय करेगा कि अनुच्छेद 370, नागरिकता कानून, एनपीआर एवं एनआरसी और तीन तलाक जैसे मुद्दों पर आक्रामक दिख रहे विपक्ष का आंदोलन सिर्फ बुलबुला है या फिर जमीन पर इसका कोई स्थायी प्रभाव भी है? या कहीं ऐसा तो नहीं कि विपक्ष जिसके जरिये अपनी ताकत जुटाने की कोशिश कर रहा है, वह सत्तापक्ष की ताकत बनने वाला है। ऐसा इसलिए, क्योंकि विपक्ष और विपक्षी सरकारों द्वारा जिस तरह संविधान की दुहाई देते हुए संवैधानिक प्रक्रिया को ही कमजोर किया जा रहा है, वह दोधारी तलवार बन सकता है।

जो बीज 2019 में पड़े हैं उसकी असली परीक्षा 2021 में होगी

विपक्ष जिसे सांप्रदायिक बता रहा, कहीं जनता उसे जरूरत तो नहीं मान रही है, खासकर ननकाना साहिब की घटना के बाद। नया साल मंथन का साल होगा। जो बीज 2019 में पड़े हैं उसकी असली परीक्षा 2021 में होगी और बहुत कुछ वहीं से तय होगा कि देश की राजनीति किस दिशा में आगे बढ़ेगी।

महाराष्ट्र और झारखंड चुनाव ने विपक्ष को जिंदा कर दिया

फिलहाल राजनीति बहुत गर्म है। इतनी तपिश उस वक्त भी नहीं थी जब 2014 में नरेंद्र मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने थे। विरोध जारी था, लेकिन वह कभी मजबूत शक्ल नहीं ले पाया। बुलबुले की तरह विरोध की हवा उठी और गायब हो गई, लेकिन इस बार दो चीजें एक साथ हुईं। एक तरफ बड़े बहुमत के साथ दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में सरकार ने पूरी मुस्तैदी के साथ अपनी घोषित और जनमत से पारित विचारधारा को शक्ल देना शुरू किया। वहीं लगभग उसी वक्त में महाराष्ट्र और झारखंड में भाजपा सत्ता से बाहर हो गई और उसने विपक्ष को एकबारगी जिंदा कर दिया। महाराष्ट्र में जिस तरह भाजपा को अलग-थलग किया गया और झारखंड में बिखरे हुए विपक्ष ने इकट्ठा होकर भाजपा को सत्ता से बेदखल किया उसने उत्प्रेरक का काम किया।

लंबे अरसे के बाद पहली बार विपक्ष सीएए, एनपीआर, एनआरसी पर एकजुट दिख रहा

अगर राज्यों में ये घटनाएं नहीं होतीं तो कहा जा सकता है कि सीएए, एनपीआर, एनआरसी को लेकर विरोध उग्र नहीं दिखता। खैर, लंबे अरसे के बाद पहली बार विपक्ष एकजुट दिख रहा है। दरअसल यह विपक्ष की कुलबुलाहट है और कुछ हद तक हताशा है, जिसके कारण वह यह अवसर गंवाना नहीं चाहता। राजनीति में जिस तरह कड़वाहट घुली है और गैर भाजपा शासित राज्यों में संवैधानिक संकट खड़ा होने की स्थिति आ गई है, वह इसी का सुबूत है। केंद्र के अधिकार क्षेत्र में आने वाले और संसद से पारित कानून तक को राज्य सरकारें अंगूठा दिखा रही हैैं। केरल से प्रस्ताव पारित कर नागरिकता कानून को निरस्त करने की अपील हो रही है। यह कितना घातक हो सकता है इसकी केवल कल्पना की जा सकती है।

एनपीआर पर अंगुली उठाकर विपक्षी दलों ने जनगणना पर विवाद का साया डाल दिया

अगर इस तरह विधानसभाएं संसद पर अंगुली उठाने लगें तो फिर ऐसी स्थिति भी आ सकती है कि एक राज्य की विधानसभा दूसरे राज्य की विधानसभा के खिलाफ प्रस्ताव पारित करने लगेगी। यह घोर अराजकता की स्थिति होगी, लेकिन विपक्ष को इसकी चिंता नहीं है। राजनीतिक कड़वाहट कितनी अधिक है, इसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि एनपीआर जैसी संवैधानिक प्रक्रिया पर अंगुली उठाकर विपक्षी दलों ने जनगणना पर भी विवाद का साया डाल दिया है। कुछ राज्यों में सत्ताधारी दल राज्यपाल को भी निशाना बनाने से नहीं चूक रहे हैं।

राजनीतिक हित के लिए संवैधानिक प्रक्रिया पर विवाद देश की जनता को शायद ही रास आए

केरल में तो हद ही हो गई जब राज्यपाल को बोलने से भी रोकने की कोशिश हुई। इस तरह के अनुचित विरोध और राजनीतिक हित के लिए संवैधानिक प्रक्रिया पर विवाद देश की जनता को रास आएंगे, यह मानना मुश्किल है, पर विपक्ष फिलहाल इस मौके को गंवाना नहीं चाहता, भले ही इसकी कीमत बाद में चुकानी पड़े।

जनता के फैसले से ही राजनीति की दिशा तय होती है

फैसला जनता को करना है। दरअसल फैसला वही माना जाता है जिस पर जनता मुहर लगाती है और उसके साथ ही राजनीति की दिशा तय होती है। इस साल दिल्ली और बिहार में चुनाव हैैं। वहीं 2021 में असम, केरल, बंगाल और तमिलनाडु में चुनाव होने हैं जहां भाजपा अपने लिए संभावना तलाश रही है। ध्यान रहे कि असम, बंगाल और केरल ही वे राज्य हैं जहां विरोध सबसे ज्यादा तीव्र है।

तमिलनाडु में 2021 के चुनाव में अंदरूनी कलह से भाजपा को अवसर मिल सकता है

असम में भाजपा की सरकार है और बंगाल तथा केरल में सत्ताधारी दल भाजपा की धमक से आशंकित हैं, जबकि तमिलनाडु में 2021 में पहला विधानसभा चुनाव करुणानिधि और जयललिता की गैर-मौजूदगी में होगा। माना जा रहा है कि वहां दोनों क्षेत्रीय दलों में अंदरूनी कलह बढ़ सकती है। ऐसे में भाजपा के पर फैलाने के लिए यह उचित अवसर होगा। एक दिलचस्प बात यह है कि पूर्व में हुए चुनाव के अनुसार जम्मू-कश्मीर में भी विधानसभा का काल 2021 में ही खत्म होता। हालांकि अब राज्य का स्वरूप बदल गया है। इसे केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया है। यदि वहां चुनाव की स्थिति बनती है तो अनुच्छेद 370 की भी जमीन पर परख होगी।

भाजपा के इतिहास में पहली बार पार्टी के ही एक सिपाही ने सीएम के खिलाफ बगावत कर हरा दिया

इस बीच महाराष्ट्र और झारखंड ने भाजपा के सामने कुछ प्रश्न खड़े किए हैं। भाजपा के इतिहास में पहली बार संगठन के ही एक सिपाही ने पार्टी के मुख्यमंत्री के खिलाफ बगावत कर उसे हरा दिया। वहीं महाराष्ट्र में भी कुछ चेहरे स्थानीय नेतृत्व को सीधी चुनौती देते दिखे।

हरियाणा में विज मुख्यमंत्री को चुनौती दे रहे हैं

हरियाणा में मंत्री अनिल विज अक्सर मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की शख्सियत को चुनौती देते दिख रहे हैं। यह अंतर्द्वंद भाजपा नेतृत्व के लिए एक प्रश्न है।

भाजपा की विचारधारा से जुड़े मुद्दे पूरे हो चुके हैं, इसका श्रेय मोदी और शाह को जाता है

भाजपा की विचारधारा से जुड़े मुद्दे लगभग पूरे हो चुके हैं। यह गौरव पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को जाता है। जिस राम मंदिर को लेकर लालकृष्ण आडवाणी के काल में भाजपा मजबूत कदम बढ़ाने में सफल रही थी, उस मंदिर की आधारशिला भी 2020 में ही रखी जानी है। वहीं विपक्ष का एक धड़ा अभी भी इसे लेकर सवाल खड़े कर रहा है। ऐसे में यह मानकर चलना चाहिए कि 2020 गहन मंथन का साल होगा।

( लेखक दैनिक जागरण के राष्ट्रीय ब्यूरो के प्रमुख हैैं )