(ब्रिगेडियर आरपी सिंह)। रक्षा मंत्री (Defence Minister) राजनाथ सिंह (Rajnath Singh) ने तीनों सेनाओं के प्रमुखों के साथ मिलकर 14 जून को अग्निपथ (Agnipath) योजना का एलान किया। इसे सैन्य बलों में युवाओं की भर्ती के दृष्टिकोण से क्रांतिकारी योजना बताया जा रहा है। इस अवसर पर रक्षा मंत्री ने कहा कि इसका उद्देश्य सैन्य बलों के ढांचे को युवा बनाना है। इसका उद्देश्य समकालीन तकनीकों और रुझान से परिचित युवाओं को सैन्य बलों से जोड़कर उन्हें आवश्यक कौशल प्रदान कर अनुशासित एवं अनुप्रेरित मानव संसाधन में परिणित कर समाज एवं राष्ट्र को लाभान्वित करना है। सरकार का दावा है कि इस योजना से विभिन्न क्षेत्रों में नए कौशल के साथ रोजगार अवसरों में वृद्धि होगी।

अग्निपथ योजना में युवाओं को चार वर्षों के लिए भर्ती किया जाएगा। इस दौरान उन्हें आवश्यक कौशल के लिए जरूरी प्रशिक्षण दिया जाएगा। उन्हें अग्निवीर (Agnivir) का टैग मिलेगा। इसमें हर साल 46,000 अग्निवीरों की भर्ती की जाएगी, जिनमें से 25 प्रतिशत की सेवा को और 15 वर्षों के लिए जारी रखा जाएगा। यह भर्ती अखिल भारतीय स्तर पर होगी। सेवा के लिए साढ़े सत्रह वर्ष से 21 वर्ष आयु वर्ग निर्धारित किया गया है। अग्निवीरों के लिए शैक्षिक अर्हता वैसी ही रहेगी, जैसी तमाम अन्य श्रेणियों के लिए है। उन्हें 30,000 रुपये से लेकर 40,000 रुपये प्रतिमाह का वेतन मिलेगा। साथ ही 'जोखिम एवं कठिनाई' भत्ता उसी प्रकार लागू होगा, जैसा तीनों सेवाओं में दिया जाता है। सेना में चार वर्षीय सक्रियता के बाद अग्निवीरों को एकमुश्त 'सेवा निधि' दी जाएगी। इसमें सेवा काल के दौरान जितना योगदान अग्निवीर का होगा, उतना ही सरकार करेगी, जिस पर ब्याज का लाभ भी मिलेगा। इस प्रकार करीब 11.71 लाख रुपये की यह निधि कर मुक्त होगी। हालांकि उनके लिए ग्र्रेच्युटी और पेंशन जैसे लाभ नहीं होंगे। सैन्य बलों में रहने के दौरान अग्निवीरों को 48 लाख रुपये का बीमा कवर मिलेगा, जिसके लिए उन्हें कोई योगदान नहीं करना होगा।

जहां कुछ जानकारों ने अग्निपथ योजना की सराहना की है, वहीं कुछ ने आलोचना। सराहना करने वालों ने इस योजना को क्रांतिकारी बताया है। उनका कहना है कि इसके माध्यम से सैन्य बलों में युवा, फिट और बदलते तकनीकी परिवेश में बेहतर प्रशिक्षण योग्य युवाओं का प्रवेश होगा। लेफ्टिनेंट-जनरल अनिल पुरी का कहना है, 'युवा अपने जोश, जज्बे और जुनून के लिए जाने जाते हैं। जब उन्हें अच्छा नेतृत्व मिलता है तो उनमें उच्च जोखिम लेने वाली क्षमताएं विकसित होती हैं।' इस योजना का सबसे बड़ा लाभ तो आर्थिक मोर्चे पर होगा, क्योंकि इससे पेंशन पर खर्च होने वाली सरकार की भारी-भरकम रकम बचेगी। साथ ही इससे सैन्य बलों में मानव संसाधन के भारी अभाव की भी पूर्ति होगी। इस समय तीनों सेनाओं में करीब नौ हजार अधिकारियों और विभिन्न रैंक पर एक लाख से अधिक रिक्तियां हैं।

अग्निपथ के आलोचक भी अपने तर्कों के साथ डटे हैं। वे रूसी कांसक्रिप्ट (अनिवार्य सैन्य सेवा जैसे माडल) के लचर प्रदर्शन का उदाहरण देते हैं। सैन्य अभियान संचालन महानिदेशक रहे लेफ्टिनेंट जनरल विनोद भाटिया का कहना है, 'भारतीय सैनिकों का समर्पण, जोश और पेशेवर रुख अतुलनीय है, क्योंकि वह नाम, रेजीमेंट की प्रतिष्ठा, वफादारी और देशभक्ति की भावना के लिए लड़ता है। यह अनूठी पहल असल में लागत-लाभ विश्लेषण पर आधारित है, जिसमें मारक क्षमताओं और परिचालन तत्परता जैसे पहलुओं को अनदेखा किया गया है। अग्निपथ भारतीय सैन्य बलों की प्रकृति के अनुरूप भी नहीं है।' उन्होंने संक्षिप्त प्रशिक्षण अवधि को लेकर भी यह कहा है कि कि कोई नौसिखिया सैनिक तमाम लोगों का जीवन जोखिम में डाल सकता है।

यहां मैं भी अपना कुछ अनुभव साझा करना चाहूंगा। यह अनुभव 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्र्राम में मुक्ति वाहिनी के गुरिल्ला अनुभवहीन लड़ाकों से जुड़ा है। युद्ध की शुरुआत से पहले मेरी यूनिट लड़ाई में शामिल नहीं हुई और सैन्य मुख्यालय के लिए रिजर्व में रखी गई थी। उसी दौरान लेफ्टिनेंट जनरल जेएस अरोड़ा (Lt.Gn. JS Arora) के नेतृत्व में 30 नवंबर, 1971 को भारत-बांग्लादेश संयुक्त कमान गठित की गई। उस समय मैं मुक्ति वाहिनी के अधिकारी प्रशिक्षण प्रभाग में इंस्ट्रक्टर था। उसमें हमने 132 अधिकारियों को प्रशिक्षण दिया, जिनमें बांग्लादेश की मौजूदा प्रधानमंत्री शेख हसीना (Sheikh Hasina) के भाई कैप्टन शेख कमाल भी शामिल थे। युद्ध के दौरान बांग्लादेशी अधिकारियों की कमी पड़ने के चलते जनरल अरोड़ा ने स्वयंसेवकों से मुक्ति वाहिनी के सैनिकों का नेतृत्व करने के लिए कहा। कोई प्रशिक्षु अधिकारी आगे नहीं आया। चूंकि मेरी यूनिट सैन्य मुख्यालय के लिए रिजर्व थी तो स्वैच्छिक रूप से आगे आकर मैंने युद्ध के रोमांच का अनुभव लेने का फैसला किया।

जिन सैनिकों का नेतृत्व मैंने संभाला, उनसे मैं परिचित नहीं था। न ही मैंने उन्हें प्रशिक्षित किया। मैं उन गुरिल्ला लड़ाकों के नाम या उनकी पृष्ठभूमि से भी अवगत नहीं था। मैंने 3 दिसंबर, 1971 को मुक्ति वाहिनी की एक यूनिट की कमान संभाली, जिसमें 850 स्वतंत्रता सेनानी थे, जिनकी आयु 18 से 35 वर्ष के बीच थी। अगले ही दिन यानी 4 दिसंबर को हम रण क्षेत्र में उतर गए। उसी बीच शकरगढ़ सेक्टर में एक अभियान के दौरान मैंने पाया कि अनुभवहीन सैनिकों में खतरे के प्रति अलग-अलग प्रतिक्रिया देखने को मिली। जहां कुछ डरे हुए थे, क्योंकि जीवन में पहली बार उनका इस प्रकार की स्थितियों से सामना हो रहा था, जहां दुश्मन की गोलियां उन्हें निशाना बना रही हों। वहीं कुछ संयत थे। हालांकि एक-दो मुठभेड़ के बाद करीब-करीब सभी में डर का स्तर कम होता गया। उसमें सबसे प्रमुख पहलू तो आयु एवं वैवाहिक स्थिति का था। जिनकी उम्र 25 साल से कम रही और जिनकी शादी नहीं हुई थी वे अपने से उम्रदराज एवं विवाहितों की तुलना में जोखिम लेने और जान की बाजी लगाने के लिए कहीं ज्यादा तत्पर थे। कुल मिलाकर पूरी यूनिट का प्रदर्शन बेहद शानदार था। उस लड़ाई में अपनी उम्दा रणनीति से हमें शानदार जीत मिली।

पुन: अग्निपथ योजना पर विचार करें तो यही लगता है कि उसमें चार साल की अवधि कम है, क्योंकि तीन से चार साल तो नौकरी के साथ समायोजन में बीत जाते हैं। बेहतर होता कि यह अवधि पांच से सात वर्षों की निर्धारित की जाए। साथ ही उनके लिए अर्धसैनिक बलों, राज्य पुलिस और सार्वजनिक उपक्रमों आदि में भर्ती की ठोस व्यवस्था प्राथमिकता के आधार पर की जाए। अग्निपथ एक बढ़िया कदम है और यह माना जाना चाहिए कि कमांडिंग अधिकारियों एवं सेवा प्रमुखों के स्तर पर नियमित समीक्षा एवं उनके सुझावों से इसमें और निखार होगा। उत्कृष्ट नेतृत्व के साथ अग्निपथ का प्रवर्तन सहज ही संभव होगा।

(लेखक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी हैं)