संदीप घोष। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘अबकी बार, चार सौ पार’ के चुनावी आह्वान पर मिश्रित प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। अधिकांश लोग इसकी व्याख्या एक मजबूत नेता की सत्ता में वापसी को लेकर उसके आत्मविश्वास के साथ जोड़कर देख रहे हैं। वहीं कुछ लोग इसे विपक्षी खेमे का हौसला पस्त करने वाला जुमला बता रहे हैं। कुछ लोग इसे विपक्ष को रौंदने का प्रयास और तानाशाही की ओर बढ़ते कदम के अशुभ संकेत के रूप में देख रहे हैं।

राहुल गांधी जैसे नेताओं ने खुलेआम आरोप लगाए हैं कि भाजपा की योजना संविधान बदलने और लोकतंत्र के मूल स्वरूप में परिवर्तन करने की है। उन्होंने ऐसे किसी संभावित ‘दुस्साहस’ के परिणाम भुगतने और सड़कों पर उतरकर उसके विरोध की धमकी भी दी है। ऐसे उकसावे और संकेतों से मोदी विरोधियों ने वैश्विक समुदाय के समक्ष यही संदेश देने का प्रयास किया है यदि मोदी सत्ता में लौटते हैं तो इससे भारतीय लोकतंत्र के समक्ष जोखिम बढ़ सकते हैं।

ऐसी मनगढ़ंत बातों को अंतरराष्ट्रीय मीडिया के एक हिस्से द्वारा लपक लिया जाता है। वह लोकतांत्रिक संस्थानों पर आरएसएस के कब्जे, मीडिया पर नियंत्रण, जांच एजेंसियों के दुरुपयोग और चुनावी बांड के जरिये भ्रष्टाचार से जुड़े विपक्ष के आरोपों में अपना सुर मिलाने लगता है। कुछ लोग तो न्यायपालिका तक को नहीं बख्शते कि उसकी भी सरकार से मिलीभगत है। कुछ को ईवीएम में खोट नजर आता है कि उसके जरिये चुनाव प्रभावित किया जा सकता है। इन सबके बीच मोदी बेफिक्र होकर अपने लक्ष्य की पूर्ति में जुटे हुए हैं।

मोदी कई मंचों पर कह चुके हैं कि तीसरे कार्यकाल की उनकी कार्ययोजना तैयार है। आचार संहिता लागू होने से पहले ही उन्होंने सत्ता में वापसी के बाद शुरुआती सौ दिनों का एजेंडा भी पेश किया। भाजपा ने संकल्प पत्र के नाम से अपने घोषणा पत्र में भविष्य को लेकर अपनी योजनाओं का खाका प्रस्तुत किया है, जिसमें कई नीतियों में निरंतरता रखने का उल्लेख है।

एक ऐसे समय में जब लगभग हर एक राजनीतिक पंडित भाजपानीत राजग की सत्ता में वापसी को लेकर आश्वस्त है, तब भी मोदी पूरे जी-जान से चुनाव अभियान में जुटे हुए हैं तो इसी कारण कि वह 400 से अधिक सीटों के लक्ष्य को पाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। जो ऐसा सोचते हैं कि इतनी सीटें जीतकर मोदी राजीव गांधी के रिकार्ड को तोड़ना चाहते हैं तो वे प्रधानमंत्री की मानसिकता को नहीं समझते। मोदी अपनी एक विरासत छोड़ना चाहते हैं। दो कार्यकालों के अनुभव से वह जानते हैं कि भाजपा और राजग को अपने वादे पूरे करने हैं तो संसद के दोनों सदनों में बहुमत चाहिए होगा। इसीलिए मोदी और अमित शाह दो स्तरों पर काम में जुटे हैं।

जहां मोदी मतदाताओं को साधने में लगे हैं, जो केवल वही कर सकते हैं तो वहीं शाह गठबंधन के साथ ही विपक्षी नेताओं को जोड़ने में लगे हैं, जो भाजपा की सीटों की संख्या बढ़ाने में योगदान दे सकें। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब भाजपा जीत को लेकर इतनी ही आश्वस्त है तो फिर वह क्यों इतने गठबंधन कर रही है, जिसमें कई बार उसे कुछ अतिरिक्त सीटें सहयोगियों के साथ साझा करनी पड़ रही हैं? इसका जवाब लोकसभा चुनावों से इतर की राजनीति में निहित है। कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव तो साथ में ही हो रहे हैं और कुछ राज्यों के लोकसभा के तत्काल बाद होने हैं।

पिछले दस वर्षों में मोदी ने ‘डबल इंजन’ सरकार की महत्ता समझी है। उन्होंने समझा है कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच बढ़िया जुगलबंदी के बिना विकास के एजेंडे को सिरे चढ़ाना संभव नहीं। विपक्षी दलों की सत्ता वाले कई राज्यों में यह देखने में आया है कि उन्होंने आयुष्मान भारत जैसी केंद्र की कई योजनाओं की राह में अवरोध खड़े किए। साथ ही श्रम सुधारों के साथ ही अन्य विकास गतिविधियों के लिए जमीन अधिग्रहण में भी अपेक्षित एवं आवश्यक सहयोग नहीं दिया। अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने के मोदी के प्रयासों के पीछे कुछ और भी कारण हैं।

पिछले कुछ समय से भारतीय राज्यों में रेवड़ियां बांटने की होड़ बढ़ी है। इसने वित्तीय फिसलन की चुनौतियां बढ़ा दी हैं, क्योंकि लुभावने चुनावी वादों की पूर्ति के चक्कर में राज्य सरकारें कर्ज का अंबार लगा बैठी हैं। अंतत: इसका बोझ केंद्र पर ही पड़ना है। हाल में दक्षिण के कुछ राज्यों द्वारा राहत पैकेज के मामले में सुप्रीम कोर्ट में लगाई गई याचिकाएं इसका उदाहरण हैं। इसके चलते विकास गतिविधियों के लिए धन का अभाव निश्चित है। यह स्थिति न केवल वित्तीय रूप से घातक है, बल्कि इस पर लगाम नहीं लगाई गई तो यह देश के संघीय ढांचे पर भी खतरे बढ़ा सकती है।

विपक्ष के सामने हाशिये पर पहुंचने का संकट बढ़ गया है। खासतौर से कांग्रेस बहुत परेशान है और इससे उबरने के लिए वह वामपंथी रुख अख्तियार करते हुए अति लोकलुभावन वादे करने में लगी है। कांग्रेस के घोषणा पत्र में सरकारी नौकरियों और ‘न्याय’ के नाम पर नकदी इसके उदाहरण हैं। कांग्रेस से सबक लेते हुए कुछ क्षेत्रीय दल और आगे की सोच रहे हैं। वे भी रेवड़ियों का सहारा ले रहे हैं। कुछ नस्लीय विवाद छेड़ने पर आमादा हैं तो कुछ संसाधनों के वितरण की दृष्टि से उत्तर एवं दक्षिण के बीच विभाजन की खाई को गहरा करने में लगे हैं।

विपक्षी नेताओं के खिलाफ जांच एजेंसियों की सक्रियता के मुद्दे पर भी टकराव है। कुछ दलों ने भाजपा के हिंदुत्व की हवा निकालने का दांव चला है तो कुछ जातिगत जनगणना के जरिये भाजपा को घेरने और अपनी नैया पार लगाने की जुगत में लगे हैं। विपक्षी दलों का मोर्चा आइएनडीआइए छिन्न-भिन्न सा हो गया है। ऐसे में कांग्रेस ही भाजपा को मुख्य रूप से चुनौती पेश कर रही है।

कांग्रेस और विपक्षी दलों की राजनीति खंडित जनादेश और गठबंधन सरकारों की वापसी की दिशा में ले जाने वाली है। दूसरी ओर भाजपा और मोदी ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ की संकल्पना के साथ आगे बढ़ रहे हैं। मोदी का मानना है कि युवा भारत आकांक्षी है, जो मुफ्त रेवड़ियों के बजाय समृद्ध भारत की राह चुनेगा। ऐसा भारत बनाने के लिए मोदी को व्यापक बहुमत की आवश्यकता होगी। इस वजह से चार सौ पार का आह्वान उनके लिए महज चुनावी नारा नहीं, बल्कि एक अपरिहार्यता है। इसीलिए वह पूरे देश को नापने में लगे हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)