नई दिल्ली [अनंत विजय]। लगभग चार साल बाद नोएडा के फिल्म सिटी गया। ये वही इलाका है, जहां ज्यादातर समाचार चैनलों के कार्यालय हैं। कोरोना जनित कारणों से फिल्म सिटी में रौनक थोड़ी कम थी। न्यूज चैनल में कार्यरत एक मित्र से कुछ काम के सिलसिले में मिलने गया था। कोरोना की वजह से दफ्तर में बाहरियों के प्रवेश की मनाही थी। इस वजह से हमलोग फिल्म सिटी स्थित एक चाय की दुकान पर बैठकर बातें कर रहे थे। इतने में तीन पुराने सहयोगी चाय पीने उसी दुकान पर आ गए। दरअसल ये सब अलग अलग चैनलों में काम करते हैं, लेकिन चाय साथ ही पीते हैं। वहीं खड़े खड़े बातें होने लगीं। मुङो ध्यान नहीं था कि वह दिन गुरुवार था और उसी दिन चैनलों की टीआरपी आती है। टीआरपी रेटिंग पर बातें होने लगीं।

समाचार चैनल में लंबे समय तक काम करने की वजह से टीआरपी रेटिंग वाले दिन की अहमियत का पता था। उस दिन होनेवाली बातें भी वही थीं, जो आज से चार पांच साल पहले हुआ करती थीं। लिहाजा मुङो लगा कि थोड़ी देर में ये बातें खत्म भी हो जाएंगी, लेकिन मेरे एक मित्र ने दूसरे को रेटिंग को लेकर छेड़ दिया। रिया, सुशांत, कंगना से लेकर चीन और कोरिया के घटनाक्रम हमारी बातचीत के केंद्र में आने लगे थे। तब तक मुङो लग रहा था कि हल्की फुल्की बातें हो रही हैं, थोड़ी देर में हंसी-मजाक करके खत्म हो जाएगी। सब इस वक्त अलग अलग न्यूज चैनलों में काम जरूर कर रहे थे, लेकिन एक समय में सभी एक ही न्यूज चैनल का हिस्सा होते थे, इसलिए गहरे मित्र भी थे।

जिस मित्र ने दूसरे मित्र को रेटिंग कम होने को लेकर छेड़ा था, उसने एक और बात कह दी जिसको लेकर बात बढ़ गई। उसने कह दिया कि यह पुराना फॉर्मूला है कि जो चैनल अपनी स्टोरी को लेकर जितना गिरेगा उसकी टीआरपी उतनी ही बढ़ेगी। यह जुमला वर्षो से फिल्म सिटी में गूंजता रहा था, लेकिन मजाक में। पहले वाले मित्र ने कहा कि यार तुम ज्यादा ज्ञान मत दो। हमें मालूम है कि चैनलों ने टीआरपी के लिए क्या क्या नहीं किया। आज जब तुम्हारे चैनल की टीआरपी कम हो गई है तो तुम स्टोरी का वर्गीकरण करने लगे। जिस चैनल में इन दिनों तुम काम कर रहे हो न, उस चैनल को आसमान में साईं बाबा की आंख दिखाई दी थी और घंटों तक वह विजुअल चलता रहा था। 

जरा याद कर लो उस घटनाक्रम को। हम तीन लोग चुपचाप खड़े होकर उन दोनों की बातें सुन रहे थे। दोनों की बातों में तल्खी बढ़ने लगी थी। बीच बचाव करने की गरज से हम तीन में से एक बोल पड़ा कि अरे जाने दो भाई, सभी चैनलों ने कभी न कभी, कुछ न कुछ ऐसा चलाया है जो न्यूज चैनल पर नहीं चलना चाहिए था। इतना सुनना था कि आपस में झगड़ रहा हमारा एक साथी उस पर ही बिफर गया। कहने लगा कि तुम भी इसके साथ हो गए और ज्ञान देने लगे। वह दिन भूल गए जब तुमने स्वर्ग में सीढ़ी लगाई थी। 

वह दिन भूल गए जब एरिया 51 और बरमूडा ट्राइएंगल जैसे टीआरपी बटोरनेवाले कार्यक्रम लिखा करते थे। बड़े शौक और अकड़ से कॉलर ऊंचा करके उस दौर में घूमा करते थे कि इस हफ्ते नौ बजे की हमारी टीआरपी सबसे अधिक रही। शांति से अपनी बात कह रहा हमारा वह मित्र अपने ऊपर हुए व्यक्तिगत हमले को बर्दाश्त नहीं कर पाया। अब पलटवार करने की बारी उसकी थी। बोला, तुम क्या कम हो, आज जहां काम कर रहे हो, उस चैनल को देखो, सबसे पहले तो तुम्हीं लोगों ने यह काम शुरू किया था। प्रिंस जब गड्ढे में गिरा था, तो किसने गानेवालों को स्टूडियो में बुलाकर गाना गवाया था। किसने स्टूडियो में हवन और पूजन करवाया था। क्या न्यूज चैनल में ये सब बातें उचित थीं। जिस दिन प्रिंस गड्ढे में गिरा था, दरअसल उस दिन ही न्यूज भी गड्ढे में गिरा था।

हमारा चौथा मित्र जो शांति से सारी बातें सुन रहा था, वो जरा वामपंथी मिजाज का था। बहस बढ़ने लगी तो उसने भी सोचा कि वह क्यों पीछे रहे। उसने कहा कि देखिए, दरअसल हमको पूरी गंभीरता से और समग्रता में न्यूज चैनलों की इस समस्या का विश्लेषण करना चाहिए। हमें इस बात को भी रेखांकित करना चाहिए कि कब से न्यूज चैनलों पर खबरों से अलग हटकर कंटेंट देने की शुरुआत हुई। वो कौन सी सामाजिक-राजनीति- आर्थिक परिस्थितियां थीं, जिनमें उस दौर में चैनलों को इस तरह की चीजें दिखाने को मजबूर किया था। अब तीनों मिलकर उस पर टूट पड़े। ज्यादा समग्रता-वमग्रता की बातें मत करो, जरा सोचो कि न्यूज चैनलों पर आत्मा से बातें करवानेवाले कार्यक्रम क्यों चले थे। 

एक मुस्लिम महिला के पति के गायब होने के बाद जब उसकी शादी किसी और से हो गई थी और उसके बाद जब उसका पहला पति लौट आया था, तो इस घटना का तमाशा क्यों बना था। क्यों सरेआम कैमरे के आगे पंचायत लगवाकर निजी रिश्तों को तार तार किया गया था। जब न्यूज चैनलों पर मंदिर का रहस्य से लेकर बिना ड्राइवर की कार और नागिन का इंतकाम चलता था, तब तो तुम खामोश रहते थे, अब सैद्धांतिक बातें कर रहे हो। अब सभी एक साथ बोलने लगे थे और मैं सोच रहा था कि यार गलत दिन अपने मित्रों से मिलने आ गया।

बहस लंबी चलती देख चायवाले ने दूसरी बार चाय भेज दी। सबने चाय ली तो मुङो लगा कि अब बात खत्म हो जाएगी, लेकिन उस मित्र ने फिर से बात छेड़ दी, जिसके चैनल की टीआरपी इन दिनों बढ़ी हुई थी। उसने वामपंथी मित्र पर तंज कसा कि देखो यहां कोई दूध का धुला नहीं है, तुम्हारे जो आदर्श हैं न, उनके चैनल ने ही सबसे पहले एंकरिंग का मजाक बनवाया। बंटी और बबली फिल्म रिलीज होनेवाली थी या हुई थी तो अभिषेक बच्चन और रानी मुखर्जी से एंकरिंग करवाई थी। तब से ही एंकरिंग का तमाशा बनना शुरू हुआ। अब भड़कने की बारी वामपंथी मित्र की थी। वह शुरू हो गया और लगा नाम लेकर सबकी बखिया उधेड़ने। उस दौर के संपादकों को बुरा भला कहने। उसकी आवाज भी ऊंची होने लगी थी। बात बिगड़ती देख मैंने कहा कि अब हम सबको चलना चाहिए। 

एक ने कहा, भड़ास सुनते जाओ। वामपंथी मित्र अपेक्षाकृत जल्दी शांत हो गए। सभी इस पर सहमत दिखे कि टीवी न्यूज चैनलों के आरंभिक दिनों में गलतियां हुईं। एक ने तो कह भी दिया कि जब बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय। अब मेरे चारों मित्र उन पुराने न्यूज चैनल संपादकों के ज्ञान देने से क्षुब्ध दिखे जिनके कार्यकाल में बड़ों के नाम पर तमाशा हुआ करता था। एक मित्र ने कहा कि क्या ही अच्छा होता कि नैतिकता आदि के प्रश्न उठानेवाले उस दौर के संपादक पहले यह मानते कि उन्होंने गलतियां की थीं। कहते कि न्यूज चैनल अपने शैशवावस्था में थे, गलतियां हुईं। 

अब तो न्यूज चैनलों की आयु बीस साल से अधिक हो गई है, अब जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए। ऐसा होता तो पुराने संपादकों के उपदेश में वजन भी आता अन्यथा पर उपदेश कुशल बहुतेरे वाली बात लगती है। मैंने अपने मित्रों से विदा ली। लौटते समय बहुत देर तक सोचता रहा कि इसका क्या हल है? कब कोई खड़ा होगा और कहेगा कि खबरों को खबर की तरह चलाएं और उसकी सुनी भी जाएगी। उत्तर नहीं मिल पाया।

 चौबीस घंटे चलने वाले समाचार चैनलों को अस्तित्व में आए दो दशकों से अधिक का समय हो चुका है। इस दौरान इनमें बहुत से बदलाव आए, नहीं आया तो केवल टीआरपी की होड़ का। टीआरपी बनाए रखने के लिए कुछ भी करने-दिखाने की मानसिकता आज भी कायम है। यही कारण है कि तमाम अच्छाइयों के बीच आज समाचार चैनल के कवरेज कठघरे में आ चुके हैं। इनकी छवि में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए अभी बहुत कुछ करना होगा। समाचार चैनलों को आत्ममंथन करना चाहिए कि क्या दर्शक वैसी खबरें ही देखना पसंद करते हैं, जैसी वे दिखाते हैं।