संजय गुप्त। सभी प्रमुख दलों के घोषणा पत्र सामने आ चुके हैं। यह कहना तो कठिन है कि मतदाता इन घोषणा पत्रों को देखकर ही अपने मत का निर्धारण करेंगे, लेकिन उनमें किए गए वादों की अनदेखी भी नहीं की जा सकती। जहां भाजपा अपने दस साल के कार्यों और नीतियों को आगे बढ़ाते हुए अपने चुनावी वादों को मोदी की गारंटी बता रही है, वहीं कांग्रेस ने यह भरोसा दिलाया है कि यदि वह सत्ता में आई तो अग्निवीर योजना समाप्त करने के साथ जीएसटी कानून बदलने का काम करेगी। उसने विभिन्न समुदायों के पर्सनल कानून जारी रखने का वादा भी किया है। कांग्रेस का एक प्रमुख वादा एमएसपी की गारंटी वाला कानून बनाने का भी है। उसने कर्ज माफी का भी वादा किया है। उसने जातिगत जनगणना कराने और आरक्षण सीमा 50 प्रतिशत से अधिक बढ़ाने का भी वचन दिया है। उसके घोषणा पत्र में ऐसे भी वादे हैं, जिन्हें रेवड़ी कहा जा रहा है। कांग्रेस ने गरीबी खत्म करने के साथ सरकारी नौकरियों पर भी जोर देते हुए 30 लाख सरकारी पदों को भरने की बात कही है, लेकिन उसने पुरानी पेंशन योजना और नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए पर चुप्पी साध ली है।

कांग्रेस के अलावा उसके सहयोगी दलों ने भी अपने घोषणा पत्रों में भाजपा की नीतियों का विरोध करते हुए लोक-लुभावन वादों पर जोर दिया है। कांग्रेस के साथ खड़े डीएमके, सपा, राजद और वामदलों के भी ऐसे वादों से यह साफ है कि उन्होंने राज्यों की वित्तीय स्थिति की परवाह नहीं की है। वे यह देखने को तैयार नहीं कि समृद्ध माने जाने वाले केरल, तमिलनाडु, पंजाब आदि की वित्तीय हालत खराब हो रही है। इन दलों के चुनावी वादों में उस वामपंथी सोच की छाप दिख रही है, जो अब एक बड़े वर्ग को आकर्षित नहीं करती। कांग्रेस और उसके साथी दल गरीबी हटाने, नौकरियां देने, सरकारी आर्थिक सहायता देने के वादे तो खूब कर रहे हैं, लेकिन देश में आर्थिक समृद्धि लाने की कोई ठोस योजना उनके घोषणा पत्रों में नहीं दिखती। कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को घोषणा पत्रों में विरोधाभास भी दिखता है, जैसे माकपा परमाणु हथियार खत्म करने की बात कह रही है। उसने पीएमएलए जैसे कानून खत्म करने का वादा करते हुए अमीरों पर टैक्स बढ़ाने की भी घोषणा की है। आम आदमी पार्टी का दावा है कि हम दिल्ली और पंजाब में रामराज्य की अवधारणा पर जो काम कर रहे हैं उसे ही देश भर में फैलाएंगे।

जिन मुद्दों पर कांग्रेस और साथी दल अपने को कठघरे में खड़ा पाते हैं या भाजपा के निशाने पर हैं, उन पर वे मोदी सरकार को घेर रहे हैं, जैसे कि भ्रष्टाचार। विपक्षी दल ईडी यानी प्रवर्तन निदेशालय की शक्तियों में कटौती चाह रहे हैं। यह तब है, जब ईडी की कार्रवाई का सामना करने वालों में महज तीन प्रतिशत नेता हैं। क्या विपक्षी दल यह नहीं चाहते कि भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ कार्रवाई हो? क्या वे जांच एजेंसियों के हाथ बांध देंगे? क्या वे इसकी अनदेखी कर सकते हैं कि बीते दस साल में ईडी ने संप्रग शासन की तुलना में भ्रष्ट तत्वों के खिलाफ कहीं अधिक व्यापक कार्रवाई की है? विपक्षी दल चुनावी बांड पर मोदी सरकार को घेर रहे हैं और कांग्रेस ने तो यहां तक कहा है कि वह इस योजना की जांच कराएगी, लेकिन उसके पास इस सवाल का जवाब नहीं कि आखिर उन अनेक कंपनियों ने उसके समेत अन्य विपक्षी दलों को चंदा क्यों दिया, जिन्हें लेकर वे भाजपा को घेर रहे हैं?

विपक्ष दल जिस तरह सीएए और यूसीसी का विरोध कर रहे हैं, उससे यह साफ है कि वे अल्पसंख्यकों और विशेष रूप से मुस्लिम तुष्टीकरण की अपनी नीति नहीं छोड़ पा रहे हैं, जबकि सीएए का किसी भारतीय नागरिक से कोई लेना-देना नहीं। यह भी अल्पसंख्यकों को बरगलाने-डराने वाली बात है कि यूसीसी से उनके अधिकार कम होंगे। कांग्रेस और उसके अनेक सहयोगी दलों के घोषणा पत्रों से यही झलकता है कि रोजगार का मतलब सरकारी नौकरियां हैं और सरकार का काम उद्योग-धंधे चलाना है। किसी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि वह इतनी संख्या में नौकरियां कैसे देगा? शायद वे इस तथ्य से अनजान रहना चाहते हैं कि जब भी कहीं सरकारों ने उद्योग चलाने की कोशिश की, तब उनकी गुणवत्ता और सेवा में कमी आई और ऐसे उद्योग घाटे की चपेट में आए।

कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने मोदी सरकार की आर्थिक-सामाजिक मोर्चे पर हासिल उपलब्धियों को तो नकारा ही है, यह देखने से भी इन्कार किया है कि बीते दस वर्ष में किस तरह देश का कद बढ़ा और भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि निखरी। क्या यह सामान्य बात है कि दस वर्ष में देश पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया और अब तीसरे स्थान पर पहुंचने वाला है? विपक्षी दल राष्ट्रवाद के उभार और भारतीय संस्कृति के प्रति लोगों के जुड़ाव के साथ इसे भी अनदेखा कर रहे हैं कि लोग अब विकसित भारत के लक्ष्य की प्राप्ति को लेकर आशान्वित हैं। विपक्षी दल मोदी सरकार की जनकल्याणकारी नीतियों की सफलता और आर्थिक प्रगति के साथ आधारभूत ढांचे के उल्लेखनीय निर्माण का भी महत्व नहीं समझ रहे हैं। कांग्रेस और सहयोगी दलों ने सामाजिक और आर्थिक प्रगति का अपना जो खाका पेश किया है, वह पहले भी कई दल पेश कर चुके हैं और सत्ता भी हासिल कर चुके हैं। सब जानते हैं कि उससे न तो सामाजिक-आर्थिक न्याय का लक्ष्य हासिल किया जा सका और न ही देश को आगे ले जाया जा सका।

विपक्षी दलों के चुनावी वादे देश को 1970-80 के दशक वाले उसी दौर में ले जाने वाले हैं, जिससे देश बड़ी मुश्किल से बाहर निकला और मोदी सरकार ने अपनी नीतियों और योजनाओं से उसे एक नई दिशा और गति दी। इन्हीं नीतियों और कार्यक्रमों से भारत आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है। इसके विपरीत विपक्षी दल के वादे लोगों की सरकार पर निर्भरता बढ़ाने वाले हैं। एक तरह से वे देश की प्रगति की दिशा को पलटने की कवायद करते दिख रहे हैं। इसीलिए उनके चुनावी वादों को देखकर यह कहना कठिन है कि वे देश की जनता के सामने कोई ठोस वैकल्पिक एजेंडा रख सके।

(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)