दिव्य कुमार सोती। इजरायल ने ईरान में सैन्य कार्रवाई की तो है, लेकिन न तो वह कुछ खुलकर कह रहा और न ही ईरान आधिकारिक रूप से यह स्वीकारना चाहता है कि उसे इजरायल ने निशाना बनाया। इजरायल-ईरान में टकराव की जड़ में हमास द्वारा इजरायल पर गत 7 अक्टूबर को किया गया वह भीषण आतंकी हमला है, जिसमें एक हजार से अधिक इजरायली और अन्य देशों के लोग मारे गए थे। उसके बाद शुरू हुआ गाजा का संघर्ष इजरायल-ईरान युद्ध के कगार पर आकर खड़ा हो गया। यह आसानी से नहीं टलेगा।

पिछले सप्ताह ईरान ने इजरायल पर करीब 185 ड्रोन और 150 क्रूज एवं बैलिस्टिक मिसाइलों से हमला किया, क्योंकि इजरायली सेना ने सीरिया में ईरानी वाणिज्य दूतावास में ईरानी जनरलों को निशाना बनाया था। इसके बाद ईरान सरकार, जो इजरायल को धरती से मिटाने की कसमें खाती है, के पास हमले के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा। इसी बीच इजरायली सेना ने गाजा में हमास के शीर्ष नेता इस्माइल हानिया के तीन बेटे मार गिराए, इसलिए ईरान बौखला गया। यदि वह इजरायल को निशाना न बनाता तो पूरे विश्व में अपने कट्टरपंथी समर्थकों के बीच साख गंवा देता।

सीरिया में ईरानी दूतावास पर बमबारी कर इजरायल ने जिन ईरानी जनरलों को आतंकी साजिश रचने का जिम्मेदार बताते हुए मारा, उन पर दूतावास के बाहर भी हमला किया जा सकता था, परंतु उन्हें दूतावास में ही निशाना बनाया गया। इजरायल अच्छे से जानता था कि ऐसा करना कूटनीतिक प्रोटोकाल और अंतरराष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन होगा। फिर भी उसने संभवतः ऐसा इसलिए किया, क्योंकि 7 अक्टूबर के आतंकी हमले के बाद उसने ठान लिया था कि सही समय पर हमास की हरकत के लिए ईरान की जवाबदेही तय की जाएगी।

ईरान दशकों से हमास और हिजबुल्ला जैसे आतंकी संगठनों के जरिये इजरायल पर हमले कराता आया है-ठीक वैसे ही जैसे पाकिस्तानी फौज लश्कर, जैश जैसे संगठनों के जरिये भारत पर आतंकी हमले कराती रही है। अभी तक इजरायल ईरान समर्थित आतंकी संगठनों पर ही जवाबी कार्रवाई करता था, न कि उनके नियंत्रक ईरान पर। हमास के आतंकी हमले के बाद इजरायल का विचार बदला।

पूर्व इजरायली पीएम नफ्ताली बैनेट का कहना था कि हमसे यह गलती हुई कि हम आतंक रूपी आक्टोपस के पैरों यानी हमास, हिजबुल्ला से लड़ते रहे, परंतु उसके सिर यानी ईरान को कुचलने की कभी कोशिश नहीं की। सीरिया में अपने दूतावास पर इजरायली हमले के बाद ईरान के पास भी यह विकल्प था कि वह किसी और देश में उसके ठिकानों को निशाना बनाता, लेकिन ईरान के कट्टरपंथी शासक इजरायल को नक्शे से मिटाने के सपने अपने समर्थकों को दिखा रहे थे, इसलिए उनके पास उस पर सीधे हमले के अलावा और उपाय न था।

इजरायल पर ईरान के हमले ने उसके मिसाइल कार्यक्रम की कमजोरी ही उजागर की। इजरायल पर दागी गईं 150 मिसाइलों में से मात्र सात ही निशाने पर लगीं। हमले के समय इजरायल की सुरक्षा में अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस की सेनाएं एक साथ काम कर रही थीं। आधी से ज्यादा ईरानी मिसाइलों को मार गिराने की जरूरत ही नहीं पड़ी, क्योंकि वे इजरायली सीमा में प्रवेश करने से पहले ही गिर गईं। जो सात मिसाइलें लक्ष्य तक पहुंचीं, वे भी इजरायल के एक सैन्य हवाई अड्डे का मामूली नुकसान कर पाईं।

इसके बाद भी इस हमले ने इजरायली जनता के सामने ईरानी खतरे को मूर्त रूप दे दिया और दोनों देशों के बीच प्रतिरोधक क्षमता का संतुलन भी गड़बड़ा दिया। यदि इजरायल इस हमले का जवाब न देता तो भविष्य के लिए संकेत जाता कि ईरान सीधे उस पर बमबारी कर सकता है और फिर भी उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा।

इस समय पश्चिम एशिया में तनाव के चलते अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस आदि की सेनाएं तैनात हैं और ईरानी हमले को विफल करने में उन्होंने इजरायल की पूरी सहायता की, परंतु यह स्थिति हमेशा नहीं रहेगी, इसलिए इजरायल के लिए ईरान पर जवाबी कार्रवाई कर शक्ति संतुलन बहाल करना जरूरी था, ताकि भविष्य में ईरानी हमले नियमित न हो जाएं। खास बात यह है कि इजरायल ने ईरान पर हमला उसके सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई के जन्मदिन के मौके पर किया।

एक तरह से इजरायल और ईरान ने इतिहास में पहली बार एक-दूसरे पर सीधे सैन्य हमले किए। इजरायल के अंदर एक धड़ा है, जो ईरान के परमाणु कार्यक्रम को समाप्त करना चाहता है, क्योंकि यदि वह परमाणु बम बनाने में सफल हो गया तो वह पाकिस्तान की तरह परमाणु युद्ध की धमकी की आड़ में इजरायल के विरुद्ध व्यापक आतंकी युद्ध चलाता रह सकता है।

इस धड़े को सऊदी अरब समेत कई सुन्नी देशों का मौन समर्थन है। वे नहीं चाहते कि शिया देश ईरान के पास परमाणु बम हो। जार्डन की वायुसेना ने तो ईरानी हमले को विफल करने में इजरायल की मदद भी की। माना जाता है कि इजरायली खुफिया एजेंसियां लंबे समय से ईरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए ईरानी वैज्ञानिकों को निशाना बनाने के साथ अन्य विध्वंसक कार्रवाई करती आई हैं।

गत दिवस इजरायल ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को सीधा निशाना तो नहीं बनाया, पर उन शहरों के सैन्य ठिकानों पर कार्रवाई की, जहां उसके परमाणु संयंत्र भी हैं। ईरानी सूत्र इस हमले को एक छोटा और विफल ड्रोन हमला बता रहे हैं, क्योंकि सच स्वीकारने पर ईरान को फिर से इजराइल पर मिसाइल हमले करने होंगे, जो पहले की तरह विफल कर दिए जाएंगे और उसकी कमजोरी की पोल पुनः खुल जाएगी। ईरान का व्यवहार बालाकोट में भारत के हमले के बाद पाकिस्तान जैसा है।

इजरायल ने शायद इसलिए ईरान पर हमलों की जिम्मेदारी नहीं ली, क्योंकि ऐसा करना रूसी वायुसेना को ईरान में आने का बहाना दे सकता था, जैसा सीरिया में देखा जा चुका है और अमेरिका ऐसा नहीं चाहता। पश्चिम एशिया में ईरान-इजरायल का टकराव पहले ही यूक्रेन में अमेरिका समर्थित प्रतिरोध की धार कुंद कर रहा है। ऐसे में इन दोनों देशों का टकराव धीरे-धीरे तेजी पकड़ने और विश्व शांति को संकट में डालने वाला हो सकता है, जिसकी जद में देर-सबेर ईरानी परमाणु कार्यक्रम भी आ सकता है। चूंकि यह साफ है कि पश्चिम एशिया में शांति के आसार नहीं, इसलिए भारत को सतर्क रहना होगा।

(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)