सीबीपी श्रीवास्तव। स्वतंत्रता, समानता और न्याय भारत के संवैधानिक लोकतंत्र के तीन अंतर्निहित सिद्धांत हैं। भारत में न्याय शासन का मुख्य संचालक है। स्वतंत्रता और समानता इसके दो आधार स्तंभ हैं, जिन पर न्याय का पूरा ढांचा टिका है। प्रश्न है कि क्या न्याय मुख्य रूप से कानूनी होना चाहिए या प्राकृतिक? संविधान के ढांचे में अर्थपूर्ण न्याय देने का विचार अंतर्निहित है, जिसका अर्थ है अन्याय को दूर कर न्याय उपलब्ध कराना। यानी कानूनी और प्राकृतिक न्याय, दोनों से ही अर्थपूर्ण न्याय मिलना चाहिए।

हालांकि यदि किसी मामले में कानूनी न्याय अर्थपूर्ण न्याय देने में सक्षम नहीं है तो प्राकृतिक न्याय को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। यही भारत के उच्चतम न्यायालय की कार्यप्रणाली का मूल मंत्र रहा है, जिसने हाल में अपनी हीरक जयंती मनाई है। संविधान निर्माताओं ने महसूस किया कि मितव्ययी न्याय तक पहुंच सुनिश्चित करने वाली एक ऐसी प्रणाली बनाई जानी चाहिए, जो प्रक्रियात्मक बाधाओं से स्वतंत्र रहे।

दूसरे शब्दों में न्याय प्रणाली में सभी की समावेशिता ही लोकतंत्र को समावेशी बनाएगी। शायद यही कारण है कि न्यायपालिका वर्षों से ऐसी बाधाओं को दूर करने और अर्थपूर्ण न्याय देने के लिए कुशल प्रौद्योगिकियों को अपनाने के लिए प्रयासरत है। इसके बावजूद अभी भी कुछ गंभीर चुनौतियां कायम हैं, जिन्हें यथाशीघ्र दूर करना होगा, क्योंकि सभी के लिए न्याय तक पहुंच विकसित भारत के मूलभूत स्तंभों में से एक होगी।

समय पर न्याय न मिलना एक ऐसी समस्या है, जिसका समाधान होना ही चाहिए, क्योंकि अदालतों में करोड़ों मामले लंबित हैं। न्यायिक समावेशन की दिशा में ई-कोर्ट परियोजना अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसका लक्ष्य सभी न्यायालयों को आपस में जोड़कर, कागज रहित न्यायालयों के बुनियादी ढांचे की स्थापना, डिजिटलीकरण द्वारा उनके कामकाज में क्रांतिकारी बदलाव लाना है।

सुप्रीम कोर्ट की हीरक जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री ने नागरिक-केंद्रित सूचना एवं प्रौद्योगिकी पहल की, जिसमें डिजिटल सुप्रीम कोर्ट रिपोर्ट (डिजी एससीआर), डिजिटल कोर्ट 2.0 और सुप्रीम कोर्ट की नई वेबसाइट शामिल है। सरकार द्वारा न्यायपालिका की सुदृढ़ता के लिए ढांचागत सुविधाएं मुहैया कराने की पहल भी सराहनीय है। यह न्याय प्रणाली को अधिक प्रभावी बनाने में सहायक होगी।

आधारभूत ढांचे का निर्माण लंबित मामलों की संख्या घटाएगा। इसी क्रम में यह उल्लेखनीय है कि उच्चतम न्यायालय के परिसर में एक नए भवन के निर्माण का कार्य 27 अतिरिक्त न्यायालयों का प्रविधान करेगा। दूसरी ओर, भारत के मुख्य न्यायाधीश ने अपने कार्यकाल के आरंभ से ही स्थगन की संस्कृति को नियंत्रित करने और न्याय तंत्र में तकनीकी प्रयोग पर विशेष बल दिया है, जिससे न्यायपालिका में कार्यात्मक गतिशीलता बढ़ी है।

यह स्मरण रहे कि किसी भी न्याय तंत्र की कार्यकुशलता कानूनों के आधुनिकीकरण और उनके क्रियान्वयन के दृष्टिकोण पर व्यापक रूप से निर्भर करती है। इस दिशा में मौजूदा केंद्र सरकार अप्रासंगिक कानूनों को सुधारात्मक कानूनों से प्रतिस्थापित करने या उन्हें निरस्त करने का कार्य कर रही है। अब तक ऐसे 1827 कानूनों को चिह्नित कर 125 को निरस्त किया जा चुका है। संसद के पिछले सत्र में एक विधेयक पारित किया गया, जो और 76 ऐसे कानूनों को निरस्त करेगा।

भारत की विधिक प्रणाली में अब तक का सबसे बड़ा परिवर्तन औपनिवेशिक अपराध विधियों का बदलाव है। यहां इस बदलाव के तर्क पर विचार करना आवश्यक होगा। भारतीय दंड संहिता के बदले न्याय संहिता का निर्माण विधि के सकारात्मक दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है। औपनिवेशिक भारत में राज्य का उद्देश्य दंड देना था, जबकि नए कानून में दंड देना जरिया होगा और अंतिम उद्देश्य न्याय देना होगा। न्याय प्रणाली को तभी प्रभावशाली कहा जाएगा जब अभियुक्त और पीड़ित, दोनों के ही अधिकारों में संतुलन हो।

न्याय संहिता में मानव केंद्रित दृष्टिकोण अपनाकर पहले मानव शरीर के विरुद्ध अपराधों का उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार आपराधिक प्रक्रिया संहिता औपनिवेशिक दृष्टिकोण वाली थी, जिसके कारण अभियुक्त के प्रति एक पूर्वाग्रह की आशंका होती थी। नई नागरिक सुरक्षा संहिता अपने नाम से ही सकारात्मक दृष्टिकोण स्पष्ट कर रही है कि इसका उद्देश्य सुरक्षा देना है, न कि बदले की भावना से मुकदमा चलाना।

अपराध विधियों में बदलाव से समय पर न्याय मिलने की जो आस जगी है, वह पूरी होनी चाहिए। इसी के साथ न्यायपालिका में सभी वर्गों, विशेषकर महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाना अनिवार्य है, जो नैसर्गिक न्याय की सुरक्षा करेगा और न्याय तंत्र को समावेशी भी बनाएगा। इसके साथ ही स्थगन की संस्कृति का नियमन त्वरित न्याय उपलब्ध कराने में भी योगदान देगा।

एक सरकारी आंकड़े के अनुसार पिछले छह वर्षों में विभिन्न उच्च न्यायालयों में नियुक्त 650 न्यायाधीशों में से 75.7 प्रतिशत (492 व्यक्ति) सामान्य श्रेणी से थे। केवल 3.54 प्रतिशत (23 व्यक्ति) अनुसूचित जाति वर्ग से, 1.54 प्रतिशत (10 व्यक्ति) अनुसूचित जनजाति वर्ग से, 11.7 प्रतिशत (76 व्यक्ति) अन्य पिछड़ा वर्ग से और 5.54 प्रतिशत (36 व्यक्ति) अल्पसंख्यक समुदाय से थे।

महिला न्यायाधीशों का प्रतिशत कुल संख्या का 9.5 प्रतिशत और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की कार्यक्षमता का 13.6 प्रतिशत है। कुल मिलाकर यह कहा जाना चाहिए कि बदलती परिस्थितियों में न्यायपालिका अपनी भूमिका को गतिशील बनाने के लिए कटिबद्ध तो है, लेकिन और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। उच्चतम न्यायालय समाधान और न्याय की संस्था है। यह संस्था संपूर्ण न्याय तंत्र को इस रूप में दिशा दे रही है कि न्यायपालिका को अन्याय, अत्याचार और स्वेच्छाचारिता के विरुद्ध एक ढाल के रूप में काम करना चाहिए।

(लेखक सेंटर फार अप्लायड रिसर्च इन गवर्नेंस के अध्यक्ष हैं)