[ ऋषभ कुमार मिश्र ]: भावी पीढ़ी के सुरक्षित भविष्य की उम्मीद में वर्तमान में अभिभावक शिक्षा के लिए हर संकट उठाने को तैयार रहते हैं, लेकिन क्या शिक्षा के भविष्य के बारे में सोचा जा रहा है? बदलते समय में शिक्षा की परिकल्पना और बदलाव को समझना आवश्यक है। शिक्षा के भविष्य पर बात करने से पहले इसके अतीत और वर्तमान का उल्लेख आवश्यक है। सीखने के समानार्थी रूप में शिक्षा मानव सभ्यता के आरंभ से शामिल रही है। यहां शिक्षा का मकसद व्यक्ति को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के कौशल सिखाना था। धीरे-धीरे शिक्षा सामाजिकता के विकास का माध्यम बन गई।

मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ नागरिकता के गुणों के विकास को भी शिक्षा के लक्ष्यों से जोड़ दिया गया। औद्योगिक क्रांति के बाद तो शिक्षा की भूमिका में आमूलचूल परिवर्तन आ गया। यह मानव संसाधन तैयार करने वाले साधन के रूप में स्वीकार की जाने लगी। लिखने, पढ़ने और गिनने की दक्षताएं, उत्पादन की कुशलताएं और प्रभावपूर्ण तरीके से मानसिक और शारीरिक श्रम की आदत का विकास शिक्षा व्यवस्था का लक्ष्य बन गया। बाल दिवस के अवसर पर इस पर विचार आवश्यक है कि इस लक्ष्य की क्या सीमाएं हैं और क्या यही लक्ष्य और स्वरूप भविष्य की शिक्षा के लिए उपयोगी है?

पिछले कुछ दशकों में समाज और संस्कृति में महत्वपूर्ण बदलाव आ चुके हैं। एक दौर में शिक्षा के कंधों पर विकास की जिम्मेदारी थी। आजकल यही शिक्षा विकास और वैश्वीकरण के पीछे चल रही है। शिक्षा की तीन संकल्पनाएं हैैं: पहली, सत्य की खोज, दूसरी, मानव की दशाओं में सुधार और तीसरी, बौद्धिक एवं शारीरिक श्रम का उत्पादन। हमारी शिक्षा व्यवस्था इनमें से बाद के दो उद्देश्यों को ढो रही है। जबकि अपने मौलिक रूप में शिक्षा खोज की एक सतत प्रक्रिया है। इसके अंतिम लक्ष्य को न तो तय किया जा सकता है और न ही मापा जा सकता है। आज हम एक ऐसे दौर में हैैं जब खुद के अलावा हर दूसरे को अपना प्रतियोगी मान रहे हैं।

ज्ञान द्वारा सत्य की सुंदरता और सहजीवन को सींचने के बदले आत्ममुग्धता में डूब रहे हैं। इन परिस्थितियों के लिए शिक्षा भी उत्तरदायी है। वह विकास की अनुगामी बन चुकी है। जबकि भारतीय परंपरा में आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय विकास एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। हम विचार और वस्तु में दोहन का संबंध देखने के बदले सृजन और सहअस्तित्व का रिश्ता बनाते हैं। हमारी परंपरा में शिक्षा केवल उपयोगिता को निर्मित और संवर्धित करने वाले विवेक का निर्माण नहीं है, बल्कि उचित-अनुचित का बोध विकसित करने वाली प्रज्ञा है। शिक्षा विकास का माध्यम नहीं है, बल्कि सद्-असद् के बोध का विकास ही शिक्षा है। ऐसी शिक्षा के लिए केवल औपचारिक प्रयासों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। हमारे घर, समुदाय और सांस्कृतिक गतिविधियां सभी शिक्षित करने का माध्यम हैं। हमें इन माध्यमों और अपनी भूमिका पर विचार करने की जरूरत है।

आखिर हम अपने बच्चों को शिक्षित करने के दौरान शिक्षा की प्रक्रियाओं से जुड़ने और उसमें योगदान करने का कितना प्रयास करते हैं? हमें स्कूल जो बता देता है उसे हम मान लेते हैं। हम यह भी मान लेते हैं कि स्कूल जो भी करता है, हमारे बच्चों की भलाई के लिए करता है, लेकिन इस भलाई के कार्य में अभिभावक के योगदान का क्या? उनकी भूमिका समान खरीदने वाले ग्राहक की होती जा रही है जो केवल सुनी-सुनाई पर विश्वास करता है। हमारे यहां न तो स्कूल यह जानना चाहता है कि उसकी दीवार के बाहर बच्चे की दुनिया कैसी है और न ही अभिभावक यह जानना चाहता है कि स्कूल के भीतर की दुनिया में क्या हो रहा है?

अभिभावक और स्कूल के बीच संवाद या तो प्रबंधन के स्तर पर है या बच्चों की उपलब्धि के विषय में। विचार कीजिए कि आज अभिभावक की दिनचर्या में बच्चों से बात करने का कितना हिस्सा है? कब हम उनके मीठे और कड़वे अनुभव से खुद को जोड़ते हैं? कब उनसे दुनियादारी की बातें करते हैं? कब स्कूल से हम उसकी गतिविधियों के बारे में सवाल करते हैं? स्कूल कब बच्चे के अनुभवों के बारे में अभिभावक को बताता है? कब अभिभावक और शिक्षक मिल बैठकर बच्चे की कमजोरी और मजबूती पर चर्चा करते हैं? इन सारे सवालों को हम केवल स्कूल के भरोसे नहीं छोड़ सकते। शिक्षा का भविष्य अभिभावक और समुदाय के सदस्यों की ओर से भी सक्रिय भागीदारी की अपेक्षा रखता है।

आज की अर्थ प्रधान दुनिया में शिक्षा स्वयं एक वस्तु के समान बन चुकी है जो आर्थिक लाभों के उद्देश्य से उपयोग में लाई जा रही है। वर्तमान परिवेश में हमारा ध्यान केवल उन्हीं दक्षताओं पर है जो उत्पादन व्यवस्था के लिए उपयोगी हैं। इसी व्यवस्था का प्रमाण है कि औपचारिक शिक्षा व्यवस्था हर क्षेत्र के लिए विशेषज्ञता का प्रमाणपत्र बांट रही है। हम ऐसे कामकाजी दिमागों को तैयार कर रहे हैं जो ग्राहक को अपने लुभावने व्यवहार और चमत्कृत कर देने वाली विश्लेषण क्षमता से बांध सकते हैं, लेकिन अपने पड़ोसी के सुख-दु:ख में भागीदार नहीं बन सकते। अब लिखने, पढ़ने और गिनने की दक्षताएं पीछे छूट चुकी हैं।

हमें सोच में नयापन, संप्रेषण में गर्मजोशी, समस्या के सृजनात्मक समाधान और सहभागिता के उत्साह जैसी दक्षताओं के सापेक्ष शिक्षा को विकसित करने की आवश्यकता है। शिक्षा का अर्थ विषय का ज्ञान देना या अनुशासन और चारित्रिक विकास करना मात्र नहीं है। मौजूदा शिक्षा कार्य करने की तत्परता वाले व्यक्ति तो तैयार कर देगी, लेकिन क्या सोचने-बूझने की नई दृष्टि का विकास होगा? जीवन और प्रकृति के प्रति आस्था का बोध विकसित होगा? आत्मकेंद्रित प्रवृत्ति से मुक्त करने वाली सांस्कृतिक चेतना का विकास होगा? ध्यान रहे कि ये विशेषताएं आज के समय की अनिवार्यताएं हैं। शिक्षा का भविष्य इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विषयों के ज्ञान तक सीमित नहीं रह सकता। उसे सामाजिक, भावनात्मक और नैतिक सरोकारों से जोड़ने की जरूरत है।

शिक्षा द्वारा ऐसा सांस्कृतिक माहौल तैयार करने की जरूरत है जो हमारी भावी पीढ़ी में विश्वास, प्रेम, सहयोग और आत्मीयता भर सके। वह न केवल व्यक्ति को खुद की क्षमताओं के प्रति जागरूक करे, बल्कि उन्हें जीवन को संपूर्णता के साथ जीने के लिए प्रेरित करे। इसके साथ ही उनमें सह जीवन के मूल्यों को पोषित करे। ये लक्ष्य स्वाभाविक रूप से व्यक्ति और समाज के जीवन में खुशहाली भर देगें।

[ लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि में असिस्टेंट प्रोफेसर हैैं ]