[ प्रो. निरंजन कुमार ]: देश भर के 1,125 केंद्रीय विद्यालयों में सभी धर्म के छात्रों के लिए संस्कृत श्लोक ‘असतो मा सद्गमय’ वाली प्रार्थना की अनिवार्यता मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है या नहीं, इसे लेकर जबलपुर के एक वकील ने गत वर्ष सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। याचिका में कहा गया है कि केंद्रीय विद्यालयों में प्रार्थना का हिस्सा यह श्लोक एक धर्म विशेष से जुड़ा धार्मिक संदेश है। संविधान के अनुच्छेद 28(1) के अनुसार सरकार द्वारा संचालित किसी भी विद्यालय या संस्थान में किसी भी विशिष्ट धर्म की शिक्षा नहीं दी जा सकती, इसलिए इस पर रोक लगाई जानी चाहिए। याचिका में यह भी कहा गया है कि प्रार्थना के बजाय बच्चों में वैज्ञानिक सोच विकसित की जानी चाहिए जिससे छात्रों में बाधाओं और चुनौतियों के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण की प्रवृत्ति विकसित होती है। बहस के दौरान यह बात भी उठी कि विवादित संस्कृत श्लोक हिंदू धर्म से जुड़े बृहदारण्यक उपनिषद से लिया गया है और इसलिए यह धर्म विशेष से जुड़ा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की पीठ ने मामले को अब संविधान पीठ को सौंप दिया है।

प्रसिद्ध अमेरिकी राजनीति विज्ञानी सैमुअल हटिंगटन ने लगभग ढाई दशक पहले ‘क्लैश ऑफ सिविलाइजेशंस’ में कहा था कि शीत युद्ध के बाद लोगों की सांस्कृतिक एवं धार्मिक पहचान ही संसार में संघर्षों का मुख्य कारण होगी। वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हटिंगटन के सिद्धांत की अपनी सीमाएं हैं, लेकिन भारत के संदर्भ में सांस्कृतिक संघर्षों की बात एक हद तक सही है। हालांकि इसकी शुरुआत हटिंगटन की घोषणा के बहुत पहले से हो गई थी। खासतौर से भारत की स्वाधीनता के बाद इसे भलीभांति रेखांकित किया जा सकता है, जिसका साकार रूप हमारे बौद्धिक और शैक्षणिक विमर्शों में स्पष्ट देखा जा सकता है। जिसमें एक तरफ वामपंथी और पश्चिम से प्रभावित तथाकथित उदारवादी बुद्धिजीवी थे तो दूसरी ओर वे लोग जो इस देश की मिट्टी और संस्कृति के माध्यम से अपनी पहचान बनाना चाहते थे। इस दूसरे पक्ष में गांधी जी की परंपरा से जुड़े लोगों के अतिरिक्त विभिन्न अन्य धाराओं के बुद्धिजीवी शामिल थे। दरअसल केंद्रीय विद्यालयों में प्रार्थना पर उठा यह विवाद इसी सांस्कृतिक-बौद्धिक संघर्ष से जुड़ा नया वाकया है। इस विवाद-मुकदमे में संविधानप्रदत्त मूल अधिकार के उल्लंघन का सवाल उठा है। वैसे देखा जाए तो प्रार्थना एवं अध्यात्म और वैज्ञानिक सोच के बीच संबंध के साथ-साथ इस देश के बौद्धिक विमर्श की दिशा सहित कुछ अन्य मुद्दे भी इससे जुड़े हैं।

यह सही है कि अनुच्छेद 28(1) के अनुसार सरकार द्वारा संचालित कोई भी संस्थान किसी भी विशिष्ट धर्म की शिक्षा नहीं दे सकता, लेकिन ‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मामृतं गमय’, जिसका अर्थ है, ‘मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मुझे मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो’ केवल इसलिए धार्मिक नहीं हो जाता कि यह हिंदुओं के उपनिषद से उद्धृत है। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कोर्ट में ठीक ही कहा कि ‘असतो मा सद्गमय’ धर्मनिरपेक्ष है। यह सार्वभौमिक सत्य के वचन हैं जो सभी धर्मावलंबियों पर लागू होते हैं। मेहता ने यह दलील भी दी कि सुप्रीम कोर्ट के प्रतीक चिन्ह पर भी संस्कृत में ‘यतो धर्मस्ततो जय:’ लिखा है जो श्रीमदभगद्गीता से उद्धृत है। इसका मतलब यह तो नहीं हुआ कि सुप्रीम कोर्ट धार्मिक है।

मेहता का तर्क सही है, नहीं तो भारत का राष्ट्रीय आदर्श वाक्य सत्यमेव जयते भी एक धार्मिक वाक्य हो जाएगा, क्योंकि यह मुंडकोपनिषद से लिया गया है। और तो और हमारा राष्ट्रीय प्रतीक-चिन्ह अशोक स्तंभ भी धार्मिक हो जाएगा, क्योंकि सत्यमेव जयते अशोक स्तंभ के नीचे अंकित है। ज्ञातव्य है कि सम्राट अशोक द्वारा बनवाए इस सिंह स्तंभ में यह आदर्श वाक्य मूल रूप से नहीं है। इस वाक्य को राष्ट्रीय प्रतीक-चिन्ह में अलग से जोड़ा गया। इसे पंडित नेहरू, डॉ. आंबेडकर और अन्य नेताओं ने 26 जनवरी, 1950 को स्वीकारा था। फिर जिस श्लोक की प्रार्थना पर विवाद हो रहा है वह कोई धार्मिक शिक्षा नहीं है और उसे कांग्रेस सरकार के समय शुरू किया गया था।

कोई प्रबुद्ध समाज अपनी गौरवशाली विरासत को नकार कर आगे नहीं बढ़ सकता। प्रसिद्ध अश्वेत चिंतक मारकस गार्वी लिखते हैं कि अपने अतीत, मूल और संस्कृति के ज्ञान के बिना व्यक्ति एक जड़हीन पेड़ की तरह है। चूंकि भारतीय सांस्कृतिक विरासत की बड़ी थाती संस्कृत परंपरा से आती है तो इसे कैसे छोड़ दिया जाए? फिर इस विरासत के प्रगतिशील, मानवतावादी और धर्मनिरपेक्ष तत्वों को ही अपनाने की बात की जा रही है, विशुद्ध धार्मिक प्रतीकों को नहीं। याचिका के तर्क को अगर मान लिया जाए तो स्कूल-कॉलेजों में पढ़ाए जा रहे हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के पाठ्यक्रम से महान भक्ति साहित्य को ही बाहर कर देना पड़ेगा, जिसे देसी-विदेशी विद्वानों, यहां तक कि मार्क्सवादी साहित्यकारों और चिंतकों ने भी मुक्त कंठ से सराहा है।

प्रार्थना के विरुद्ध याचिका में दिया एक अन्य तर्क कि यह वैज्ञानिक सोच में बाधक है, भी सही नहीं है। सभी धर्मों में प्रार्थना पर जोर दिया जाता है, लेकिन इसका अर्थ वहां कर्म और वैज्ञानिक सोच से विमुख होना नहीं है। यहां प्रार्थना किसी विशेष वस्तु के लिए न होकर अपनी आत्मा और अंत:शक्ति को जागृत करने के लिए, स्वयं के परिष्कार के लिए है। और यह पूरे स्कूली कार्यक्रम और समय का अत्यंत छोटा हिस्सा है। फिर आज की जटिल होती जा रही जिंदगी में जब बच्चे, किशोर और युवा आत्मिक रूप से कमजोर होकर कई तरह की विकृतियों का शिकार हो रहे हैं उस स्थिति में ‘असतो मा सद्गमय’ जैसी पंक्तियां उनमें आत्मविश्वास और नैतिक शक्ति का संचार कर सकती हैैं।

दरअसल आजादी के बाद से हमारा सांस्कृतिक, बौद्धिक और शैक्षणिक विमर्श जाने-अनजाने वामपंथी और पश्चिमी प्रभाव से आतंकित अंग्रेजीपरस्त लोगों के चंगुल में चला गया था, जहां भारतीय तत्वों के प्रति उपेक्षा या हीनता का और पश्चिमी चीजों के प्रति श्रद्धामिश्रित भय का भाव होता है। इसी भाव के कारण हम आज भी चाणक्य को भारत का मैकियावेली कहते हैं तो कालिदास को भारत का शेक्सपियर और समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन, जबकि कालक्रम, प्रतिभा और उपलब्धियों-तीनों ही दृष्टियों से चाणक्य, कालिदास और समुद्रगुप्त ऊपर हैं। इसी मानसिकता के कारण साहित्य के माध्यम से भारतीय परिवेश में कानून की गुत्थियों को समझने के लिए किसी भारतीय कृति की जगह हैरी पॉटर को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाता है। समय आ गया है कि इस सांस्कृतिक-बौद्धिक संघर्ष में हम अपने सांस्कृतिक अतीत की गौरवशाली जड़ों से जुड़ें। इसी में हमारा भविष्य है।

( लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं )