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बिना राजनीति के धर्म विधुर और बिना धर्म के राजनीति विधवा हो जाएगी : जगद्गुरु रामभद्राचार्य

Jagran Exclusive Interview इन सबका श्रेय संपूर्ण भारतीय जनता को देना चाहता हूं। अपने शुभचिंतकों को देना चाहता हूं। ऋषियों को उन पूर्वाचार्यों को जिनके आलोक में मैंने इस ज्ञान का इतना विकास किया और लगातार कर रहा हूं। चित्रकूट का मेरी साहित्यिक यात्रा में महत्वपूर्ण योगदान है। चित्रकूट न होता तो कदाचित साहित्य क्षेत्र के ऐसे नामचीन पुरस्कार ही नहीं मिलते।

By Jagran News Edited By: Mohammed Ammar Published: Sat, 09 Mar 2024 03:44 PM (IST)Updated: Sat, 09 Mar 2024 03:44 PM (IST)
बिना राजनीति के धर्म विधुर और बिना धर्म के राजनीति विधवा हो जाएगी : जगद्गुरु रामभद्राचार्य

ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने के बाद से प्रभु श्रीराम के वनवास काल की गवाह, धर्म-अध्यात्म की नगरी चित्रकूट के तुलसीपीठाधीश्वर जगद्गुरु रामानंदाचार्य रामभद्राचार्य जी महाराज आह्लादित हैं। वह इसे अपनी विद्या का समादर बताते हैं। कहते हैं, इस पुरस्कार का श्रेय संपूर्ण भारतीयों को है। ऋषियों, उन पूर्वाचार्यों को है, जिनके आलोक में अपने ज्ञान का इतना विकास किया और लगातार कर रहा हूं।

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संस्कृत और राम राष्ट्र की अस्मिता हैं। वह राजनीति में धर्म का हस्तक्षेप उचित मानते हैं। साथ ही गीदड़ों के बीच सिंह जैसे अपने भाग के रूप में इस पुरस्कार को प्राप्त करने लेने की बात से उनकी टीस भी झलकती है कि 58 वर्षों में दूसरी बार संस्कृत को इस पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया। प्रस्तुत हैं दैनिक जागरण कानपुर के उप मुख्य उप संपादक शिवा अवस्थी की उनसे विशेष वार्ता के प्रमुख अंश-

प्रश्न : आपका स्वास्थ्य अब कैसा है, आपको ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने पर दैनिक जागरण परिवार व करोड़ों पाठकों की ओर से बधाई। पुरस्कार मिलने के बाद कैसा महसूस कर रहे हैं?

उत्तर : प्रभु श्री राम की कृपा व करोड़ों शिष्यों व देश की कोटि-कोटि जनता की शुभकानाओं से अब मैं स्वस्थ हूं। ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए बधाई पर बहुत-बहुत धन्यवाद। वैसे, मैं पुरस्कार से बहुत प्रसन्न नहीं होता पर ज्ञानपीठ पाकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। मेरी विद्या का समादर हुआ है।

मैं सभी से कहूंगा कि स्वाध्याय से कभी विरत नहीं होना चाहिए। स्वाध्यायाम मा प्रमदा अर्थात स्वाध्याय से प्रसन्नता मिलती है। यह ऐसा पुरस्कार है, जो रामधारी सिंह दिनकर, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा के पास गया, वही मेरे पास आया है। मेरा दायित्व भी बढ़ गया है। आप लोग शुभकामना करें कि मैं निरंतर ज्ञान के लिए नया-नया करता रहा हूं।

प्रश्न : साहित्य से संबंधित लगभग सभी पुरस्कार आपको मिल चुके हैं, लेकिन संस्कृत के क्षेत्र में दूसरा ज्ञानपीठ पुरस्कर क्या देर से मिला, इसे कैसे देखते हैं?

उत्तर : वर्ष 1965 से ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना शुरू हुआ। संस्कृत का दूसरा पुरस्कार मुझे मिला। ये मेरी विद्या की समर्चा है। हो सकता है मेरी साधना अब परिपक्व हुई हो। अष्टाध्यायी पर काम किया। नौ हजार पृष्ठों की व्याख्या की। इसमें 50 हजार श्लोक हैं। तभी मेरी विद्या को समझा गया होगा।

प्रश्न : आप ऐसे अद्भुत व्यक्तित्व हैं, जिनके विषय में लोग कहते हैं कि पुरस्कार आपके समक्ष आकर पुरस्कृत होता है। ऐसे में साहित्य क्षेत्र के अलग-अलग पुरस्कारों के प्राप्त होने पर आपको कैसा लगता है? आप इनका श्रेय किसे देना चाहेंगे, चित्रकूट का क्या योगदान है?

उत्तर : (हंसते हुए) ... इन सबका श्रेय संपूर्ण भारतीय जनता को देना चाहता हूं। अपने शुभचिंतकों को देना चाहता हूं। ऋषियों को, उन पूर्वाचार्यों को, जिनके आलोक में मैंने इस ज्ञान का इतना विकास किया और लगातार कर रहा हूं। चित्रकूट का मेरी साहित्यिक यात्रा में महत्वपूर्ण योगदान है। चित्रकूट न होता तो कदाचित साहित्य क्षेत्र के ऐसे नामचीन पुरस्कार ही नहीं मिलते। चित्रकूट तो स्वयं प्रभु श्रीराम की आभा से कण-कण में विचित्र और सत्य है।

प्रश्न : संस्कृत को 58 वर्षों में दूसरी बार पुरस्कार मिला, क्या इससे पहले संस्कृत के लिए ऐसे काम नहीं होते थे। आप स्वयं लंबे समय से संस्कृत के लिए काम कर रहे हैं, क्या ये संस्कृत के मूल्यांकन का सबसे उपयुक्त समय चल रहा है? आपका क्या मत है?

उत्तर : संभव है पहले संस्कृत के लिए ऐसे कार्य न होते रहे हों। वैसे मैं कितना कहूं, इस पुरस्कार में अपनी विद्या की समर्चा देख रहा हूं। मेरी विद्या का सम्मान हुआ है। ऋषियों की तपस्या, आचार्यों की नमस्या व गुरुजन की वरिष्ठता का सम्मान हुआ है। संस्कृत ही राष्ट्र की उन्नति की कर्णधार है। इसके बिना कुछ भी बेहतर सोचना मुश्किल है।

प्रश्न : उर्दू को कई बार ज्ञानपीठ मिला, आपको संस्कृत का दूसरा ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने को कैसे देखते हैं?

उत्तर : उर्दू के लिए पांच बार ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है। ज्ञानपीठ पुरस्कार की कमेटी में वामपंथियों का अधिकार हुआ करता है। (हंसते हुए)....वहां से हम ज्ञानपीठ पुरस्कार ठीक वैसे ही ले आए, जैसे गीदड़ों के हाथ से सिंह अपना भाग ले आता है।

प्रश्न : आपने रामचरितमानस से लेकर अन्य धर्म ग्रंथों में टंकण या लेखन की त्रुटियां दूर कराई हैं?

उत्तर : रामचरितमानस में 4200 त्रुटियां थीं। हनुमान चालीसा में भी ऐसे ही कई जगह त्रुटि थी। जैसे...शंकर स्वयं केसरी नंदन होना चाहिए था पर लोग शंकर सुमन केसरी नंदन पढ़ रहे थे। सदा रहो नहीं, सादर हो रघुपति के दासा आदि। कितना बताएं, सभी ग्रंथों में तमाम त्रुटियां दूर कराईं और आगे भी साहित्य व समाज के उद्भव के लिए ऐसा करता रहूंगा। समाज को सही दिशा दिखाने के लिए अंतिम सांस तक लगा रहूंगा।

प्रश्न : आप बचपन से ही अत्यंत मेधावी और प्रतिभा संपन्न रहे हैं। इतना साहित्य सृजन व विषम परिस्थितियों के बाद भी सर्वोच्च पद पर आसीन हैं। वहीं, वर्तमान के युवा छोटी-सी परीक्षा, तनिक-तनिक बातों से ही अवसाद में आ जाते हैं, उनके लिए आपका संदेश क्या है?

उत्तर : तनाव से ग्रसित नहीं हों, वरन स्वयं को बेहतर बनाने का सोच लेकर काम करें। संघर्ष व बाधाएं तो जीवन में आती ही हैं। इनसे दो-दो हाथ करते हुए ही आगे बढ़ना है। मंजिल पाना है।

खासकर युवाओं और तनाव से ग्रस्त लोगों से मैं तो बस इतना ही कहूंगा कि स्वयं को कर सजग इतना कि प्रति सौभाग्य से पहले प्रभु साधक से ही पूछें कि बता तेरी समीहा क्या है। मन में अगर कुछ अलग करने की ठान कर आगे बढ़ेंगे तो फिर सफलता तय है। चाहे साहित्य सृजन हो या जीवन का कोई भी क्षेत्र, मंजिल मिलकर रहेगी।

प्रश्न : आपने धर्म एवं साहित्य सेवा के साथ ही मानवता की सेवा का अद्वितीय उदाहरण दिव्यांग विश्वविद्यालय की स्थापना के रूप में दिया है। उसका 24 वर्षों तक अपने श्रम से संचालन करते हुए उसे उत्तर प्रदेश सरकार को दिया। समाज को आपका संदेश क्या है?

उत्तर : साहित्य का सृजन हो या फिर कोई भी सेवाभाव से जुड़ा कार्य, हमेशा समाज के अंतिम छोर पर बैठे लोगों के लिए कार्य का सोच लेकर चलना चाहिए। समाज के लोग भी ऐसे ही काम करें, जैसे मैंने किया। निष्काम भाव से काम करना चाहिए। इससे ही हम दुनिया को वह देकर जा सकेंगे, जिसकी आवश्यकता है। कुछ नए उदाहरण पेश कर सकेंगे।

प्रश्न : आप रामानंद संप्रदाय के जगद्गुरु हैं। विश्वविद्यालय के आजीवन कुलाधिपति, निरंतर राम कथा में व्यस्त रहते हैं, हजारों लोगों का मार्गदर्शन करते हैं, तुलसी पीठ जैसी वृहद व्यवस्था का संचालन करते हैं, इसके बाद भी साहित्य सृजन, हिंदी व संस्कृत से ऐसा प्रेम भी है, ये सब कैसे कर लेते हैं?

उत्तर : सब परमेश्वर की कृपा है। मैं इतना ही कहूंगा कि चरण कमल बंदौं हरि राइ। जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अंधे कौं सब कछु दर्शाइ, बहिरौ सुनै, गूंग पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराइ, सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंदौं तिहिं पाइ...अर्थात श्रीहरि के चरण कमलों की मैं वंदना करत हूं, जिनकी कृपा से पंगु भी पर्वत को पार करने में समर्थ हो जाता है।

जिनकी कृपा से अंधे को सब कुछ दिखने लगता है, जिनके अनुग्रह से बहरा सुनने लगता है और गूंगा फिर बोल पड़ता है। जिनकी कृपा से भिखारी सिर पर छत्र धारण कर चलने वाला राजा बन जाता है। सूरदास कहते हैं, मैं अपने ऐसे उस करुणामय स्वामी के चरणों की बार-बार वंदना करता हूं।

प्रश्न : आप जौनपुर में जन्मे, काशी में शिक्षा पाई। देश के किसी भी तीर्थ को कार्यक्षेत्र चुन सकते थे। चित्रकूट को ही क्यों चुना?

उत्तर : चित्रकूट स्तुति सुनाते हुए... सब सोच विमोचन चित्रकूट, कलि हरण करण कल्याण बूट। सुचि अवनि सहावनि आलबाल, कानन बिचित्र बारी बिसाल, मंदाकिनि-मालिनि सदा सींच, बर बारि विषम नर-नार सींच...रस एक, रहित-गुन-करम-काल, सिय राम लखन पालक कृपाल। यही तो वह चित्रकूट है, जहां भगवान राम ने वनवास काल में लगभग 12 वर्ष तक निरावरण चरणारबिंद से भ्रमण किया।

सीता माता व लक्ष्मण जी का त्याग यहीं पर है। आज भी घाटों पर सीता जी का बालों का फटफटाना, रामजी का धनुष धोने का स्वर, भरत जी की सिसकियां सुनाई पड़ती हैं। कामदगिरि, हनुमत चरण, मंदाकिन को तीर, ये तीनों छूटैं नहीं जब लग रहे शरीर। बस यही वजह रही कि चित्रकूट मुझे अच्छा लगा।

प्रश्न : आपका राम मंदिर निर्माण का संकल्प पूर्ण हुआ। क्या ऐसे और भी कुछ संकल्प अभी शेष हैं?

उत्तर : राम मंदिर निर्माण राष्ट्र को आह्लादित करने वाला पल है।

अभी दो संकल्प शेष है। काशी विश्वनाथ ज्ञानवापी और मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि। इन कार्यों को भी पूरा होने में दो से तीन वर्ष ही लगेंगे। सनातन की ध्वजा विश्व में फहराने लगी है। जल्द और चटख रंग होगा।

प्रश्न : आप कहते हैं कि राष्ट्र का मंगल ही राम हैं तो जो राम को नहीं मानते क्या वे लोग राष्ट्र के मंगल के विरोधी हैं?

उत्तर : हां, निश्चित रूप से राम को न मानने वाले ऐसे लोग राष्ट्र के मंगल के विरोधी हैं। इनका कुछ नहीं करिए, ऐसे लोग स्वयं सुधर जाएंगे, नहीं तो भारत माता इन्हें दंड देंगी, जिसे देश का हर जन देखेगा। राष्ट्र के प्रति अच्छा सोच नहीं रखने वालों का तिरस्कार ही श्रेयष्कर है।

प्रश्न : आजकल राजनीति में चर्चा में बने रहने के लिए लोग रामचरितमानस जैसे पवित्र ग्रंथ पर भी प्रश्न चिह्न लगा रहे हैं, जिनका आप मुखर विरोध करते हैं। इससे कई बार आपको भी विरोध का सामना करना पड़ता है। क्या कहेंगे?

उत्तर : बस उसका दंड उन्हें अवश्य मिलेगा जल्द ही, चिंता मत करो। स्वामी प्रसाद मौर्य व चंद्र शेखर जैसों को जनता अब और अधिक दिन तक नहीं सहन करेगी। ऐसे लोग हमेशा ही सड़क पर रहेंगे। (हंसते हुए) ...जहां-जहां दीलारानी, वहां पड़े पाथर पानी...बाकी समझ जाओ कि ऐसे लोगों का पराभव तय है।

प्रश्न : लोग गोस्वामी तुलसीदास जी को वाल्मीकि जी का अवतार मानते हैं। आपको गोस्वामी जी का अवतार माना जा रहा है, क्या कहना है?

उत्तर : गोस्वामी जी के सेवक के तौर मैं बना रहूं, यही मेरा सौभाग्य है। भगवान की कृपा से रामचरितमानस को लेकर हमने खूब अच्छा किया। हम तुलसी व उनकी मानस के सेवक हैं। बस इससे अधिक कुछ नहीं।

प्रश्न : पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह सभी आपका आदर करते हैं। इससे माना जाता है कि आप भाजपा के प्रति अधिक लगाव रखते हैं। आप प्रधानमंत्री को अपना मित्र बताते हैं। भाजपा के अतिरिक्त और किन दलों से लगाव रखते हैं, क्या सच्चाई है?

उत्तर : प्रभु श्री राम जी से जुड़े लोगों से मुझे अधिक लगाव है। जो राम का नहीं, उनसे कोई जुड़ाव नहीं रखता हूं। रही बात मित्रता की तो वह उनसे है, जो सनातन के लिए काम कर रहे हैं। अब इसमें यही नाम हैं, जो आप ले रहे हैं। भाजपा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग हैं तो इसमें हमारा कोई दोष तो नहीं है।

हां, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मेरी मित्रता वर्ष 1988 से है, जो लगातार और प्रगाढ़ होती गई। जब वो मेरे पास आते हैं तो न मैं जगद्गुरु होता हूं और न ही वह प्रधानमंत्री रहते हैं, केवल मित्र रहते हैं। (हंसते हुए) ...बस दोनों मित्र हैं। मित्र के लिए तो सब कुछ करना ही होता है।

प्रश्न : क्या आप मानते हैं कि राजनीति में धर्म का हस्तक्षेप राष्ट्रहित में उचित है?

उत्तर : धर्म का हस्तक्षेप राजनीति में बहुत उचित है। शास्त्र यही कहते हैं कि धर्म पति व राजनीति पत्नी जैसी है। बिना राजनीति के धर्म विधुर व बिना धर्म राजनीति विधवा हो जाएगी। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

प्रश्न : संस्कृत व हिंदी में सृजन को लेकर वर्तमान में देश का ध्यान आपकी ओर है, इसे कैसे देख रहे हैं?

उत्तर : हम अच्छा कर रहे हैं। अभी और करेंगे। हमने संस्कृत में चार महाकाव्य लिखे हैं तो दूत काव्य, पत्रकाव्य, गद्य काव्य, गीत काव्यों की भी रचना की है। तमाम ग्रंथों की रचना कर रहा हूं। आगे अभी और करूंगा।

प्रश्न : ज्ञानपीठ, संस्कृत व राम को कैसे देखते हैं?

उत्तर : तीनों ही अविभाज्य हैं। संस्कृत और राम राष्ट्र की अस्मिता हैं। यह हर जन के लिए आवश्यक भी हैं।

प्रश्न : अब तक आपने कितने ग्रंथ लिखे हैं?

उत्तर : अब तक 240 ग्रंथ लिख चुका हूं। इनमें 130 संस्कृत में हैं। बाकी हिंदी व अन्य 22 भाषाओं में लिखे हैं। जल्द ही 255 से अधिक ग्रंथ पूरे हो जाएंगे, क्योंकि साहित्य सृजन अनवरत है।

प्रश्न : आपका राष्ट्र के लिए क्या संदेश है?

उत्तर : ज्ञान के लिए यत्न करते रहना चाहिए। भारत माता को देवी मानकर उन्हें ज्ञान के पुष्प अर्पित कर उनकी पूजा करते रहनी चाहिए।

प्रश्न : आपके साहित्य का संदेश क्या है?

उत्तर : साहित्य का मतलब ही स-हित व समाज के हित से है। हितेन सहितौ शब्दार्थौ साहित्यम अर्थात समाज का हित जिसमें छिपा हो, वही साहित्य है।

प्रश्न : चित्रकूट और अयोध्या दोनों में प्रभु राम रहे, आपके साहित्य में ये दोनों स्थल किस तरह महत्वपूर्ण हैं?

उत्तर : चित्रकूट और अयोध्या दोनों ही सनातन समाज के लिए महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। अयोध्या में प्रभु जन्मे तो चित्रकूट ने उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम बनाया है। उनकी यादें यहां अब तक जीवंत हैं।

अयोध्या में राम मंदिर बन चुका है। वहां लाखों लोग पहुंच रहे हैं। चित्रकूट दर्शन बिना यात्रा अधूरी ही समझिए। इसलिए कहा जाए कि चित्रकूट और अयोध्या दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।


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