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गीता मनुष्य-मनुष्य में ऊंच-नीच की दरार नहीं डालती

गीता मनुष्य-मनुष्य में ऊंच-नीच की दरार नहीं डालती। गीतोक्त धर्म मनुष्यों के हृदय में जो दुखों का कारण है, उसका निवारण तथा सहज सुख की प्राप्ति का साधन है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Tue, 28 Mar 2017 11:29 AM (IST)Updated: Tue, 28 Mar 2017 05:09 PM (IST)
गीता मनुष्य-मनुष्य में ऊंच-नीच की दरार नहीं डालती
गीता मनुष्य-मनुष्य में ऊंच-नीच की दरार नहीं डालती

 धार्मिक विकृतियों का कारण केवल शास्त्र का विस्मृत हो जाना, उसकी अवहेलना और उस पर अनर्गल प्रतिबंधों का लगना है। गीता धर्मशास्त्र के रूप में प्रतिष्ठित होते ही स्पष्ट हो जाएगा कि मानव एक परमात्मा की संतान हैं। परमधर्म परमात्मा ही एकमात्र शाश्वत सत्य है, वही नित्य तत्व है। उसे धारण करना धर्म है। उसे धारण करने की विधि, संपूर्ण साधना-पद्धति गीता है।

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गीता मनुष्य-मनुष्य में ऊंच-नीच की दरार नहीं डालती। गीतोक्त धर्म मनुष्यों के हृदय में जो दुखों का कारण है, उसका निवारण तथा सहज सुख की प्राप्ति का साधन है। 
गीता का पहला श्लोक है : धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:। मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।
धर्म एक क्षेत्र है तथा कुरु एक क्षेत्र है। वस्तुत: वह क्षेत्र कहां है? वह युद्ध कहां हुआ? क्षेत्रज्ञ कौन है? गीताकार स्वयं स्पष्ट करते हैं :
इदं शरीरं कौंतेय क्षेत्रमित्यभिधीयते 13/1 अर्जुन यह शरीर ही एक क्षेत्र है। इसमें बोया हुआ भला-बुरा बीज संस्काररूप में उगता है। शुभ या अशुभ अनंत योनियों का कारण भी यही है। जो इसका पार पा लेता है, वह क्षेत्रज्ञ
है। वह इस क्षेत्र में फंसा नहीं, बल्कि इसका रक्षक है। इससे उद्धार कराने वाला क्षेत्रज्ञ है। अर्जुन सभी शरीरों में
मैं क्षेत्रज्ञ हूं। जो इसे जान लेता है, वह भी क्षेत्रज्ञ है। स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण एक महायोगेश्वर पूर्ण सद्गुरु हैं।
शरीर एक क्षेत्र है। इसमें लड़ने वाली प्रवृत्तियां दो हैं-धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र। एक परमधर्म परमात्मा जो शाश्वत है, अनादि है, सत्य है, उसे धारण करने की विधि और दूसरा है कुरु अर्थात करो, करते ही रहो। सदा प्रवृत्त रहो। चलते रहो। पहुंचोगे कहीं नहीं, चाल कभी नहीं रुकेगी। इसका नाम है प्रवृत्ति मार्ग, जिसमें अज्ञानरूपी धृतराष्ट्र है, गो अर्थात इंद्रियों के आधारवाली दृष्टि गांधारी से जिसका गठन होता है। अज्ञान से प्रेरित मोहरूपी दुर्योधन,
दुर्बुद्धिरूपी दु:शासन, विजातीय कर्मरूपी कर्ण, भ्रमरूपी भीष्म, द्वैत का आचरणरूपी द्रोणाचार्य, संशयरूपी शकुनि। इस प्रकार आसुरी संपद अनंत हैं, फिर भी इन्हें ग्यारह अक्षौहिणी कहा गया। दस इंद्रियां और एक
मन-मनसहित इंद्रियमयी दृष्टि से जिसका गठन है, वह है कुरुक्षेत्र। वृत्ति मार्ग, आसुरी संपद, विजातीय संपद,
जिन पर हमें विजय पाना है। परम शाश्वत एकमात्र परमतत्व परमात्मा है।
परमहंस स्वामी अड़गड़ानंद कृत
श्रीमद्भगवद्गीता भाष्य यथार्थ गीता से साभार

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