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चिंतन धरोहर: फल-त्याग के सामने काम्य और निषिद्ध कर्म खड़े ही नहीं रह सकते

कुछ कर्मों का स्वरूप ही ऐसा होता है कि फल त्याग की युक्ति का उपयोग करें तो वे कर्म स्वत ही गिर पड़ते हैं। फल-त्यागपूर्वक कर्म करने का तो यही अर्थ होता है कि कुछ कर्म छोड़ने ही चाहिए। फल-त्यागपूर्वक कर्म करने में कुछ कर्मों के प्रत्यक्ष त्याग का समावेश हो ही जाता है। इस पर जरा गहराई से विचार करें।

By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarPublished: Mon, 01 Apr 2024 03:08 PM (IST)Updated: Mon, 01 Apr 2024 03:08 PM (IST)
चिंतन धरोहर: फल-त्याग के सामने काम्य और निषिद्ध कर्म खड़े ही नहीं रह सकते

आचार्य विनोबा भावे। गीता की सारी शिक्षा पर हम दृष्टि डालें तो स्थान-स्थान पर यही बोध मिलता है कि कर्म का त्याग मत करो। गीता कर्म-फल के त्याग की बात करती है। गीता में सर्वत्र यही शिक्षा दी गई है कि कर्म तो सतत करो, परंतु फल का त्याग करते रहो। लेकिन यह एक पहलू हुआ। दूसरा पहलू यह मालूम पड़ता है कि कुछ कर्म किए जाएं और कुछ का त्याग किया जाए। अंतत: 18वें अध्याय के आरंभ में अर्जुन ने प्रश्न किया- एक पक्ष तो यह कि कोई भी कर्म फल त्यागपूर्वक करो और दूसरा यह कि कुछ कर्म तो अवश्यमेव त्याज्य हैं और कुछ करने योग्य हैं, इन दोनों में मेल कैसा बिठाया जाए?

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जीवन की दिशा जानने के लिए यह प्रश्न है। फल-त्याग का मर्म समझने के लिए यह प्रश्न है। जिसे शास्त्र संन्यास कहता है, उसमें कर्म स्वरूपत: छोड़ना होता है अर्थात कर्म के स्वरूप का त्याग करना होता है। उत्तर में भगवान ने एक बात स्पष्ट कह दी कि फल-त्याग की कसौटी सार्वभौम वस्तु है। फल-त्याग का तत्व सर्वत्र लागू किया जा सकता है। सब कर्मों के फलों का त्याग तथा राजस और तामस कर्मों का त्याग, इन दोनों में विरोध नहीं है।

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कुछ कर्मों का स्वरूप ही ऐसा होता है कि फल त्याग की युक्ति का उपयोग करें तो वे कर्म स्वत: ही गिर पड़ते हैं। फल-त्यागपूर्वक कर्म करने का तो यही अर्थ होता है कि कुछ कर्म छोड़ने ही चाहिए। फल-त्यागपूर्वक कर्म करने में कुछ कर्मों के प्रत्यक्ष त्याग का समावेश हो ही जाता है। इस पर जरा गहराई से विचार करें। जो कर्म काम्य हैं, जिनके मूल में कामना है, उन्हें फल-त्यागपूर्वक करो, ऐसा कहते ही वे ढह जाते हैं।

फल-त्याग के सामने काम्य और निषिद्ध कर्म खड़े ही नहीं रह सकते। फल-त्यागपूर्वक कर्म करना कोई केवल कृत्रिम, तांत्रिक और यांत्रिक क्रिया तो है नहीं। इस कसौटी के द्वारा यह अपने आप मालूम हो जाता है कि कौन से कर्म किए जाएं और कौन से नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि गीता केवल यही बताती है कि फल-त्यागपूर्वक कर्म करो, पर यह नहीं बताती कि कौन से कर्म करो। परंतु वस्तुत: ऐसा नहीं है, क्योंकि फल-त्यागपूर्वक कर्म करो, इतना कहने से ही पता चल जाता है कि कौन से कर्म करें और कौन से नहीं। हिंसात्मक कर्म, असत्यमय कर्म, चौर्य कर्म फल-त्यागपूर्वक किए ही नहीं जा सकते।

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फल-त्याग की कसौटी पर कसते ही ये कर्म गिर पड़ते हैं। सूर्य की प्रभा फैलते ही चीजें उजली दिखाई देने लगती हैं, पर अंधेरा भी क्या उजला दिखाई देता है? वह तो नष्ट ही हो जाता है। ऐसी ही स्थिति निषिद्ध और काम्य कर्मों की है। हमें सब कर्मफल-त्याग की कसौटी पर कस लेने चाहिए। पहले यह देख लेना चाहिए कि जो कर्म मैं करना चाहता हूं, वह अनासक्ति पूर्वक, फल की लेशमात्र भी अपेक्षा न रखते हुए करना संभव है क्या? फल-त्याग ही कर्म करने की कसौटी है। इस कसौटी के अनुसार काम्य कर्म अपने आप ही त्याज्य सिद्ध होते हैं। उनका त्याग ही उचित है। अब बचे शुद्ध सात्विक कर्म। वे अनासक्ति पूर्वक अहंकार छोड़कर करने चाहिए। काम्य कर्मों का त्याग भी तो एक कर्म ही हुआ। फल-त्याग की कैंची उस पर भी चलाओ। काम्य कर्मों का त्याग भी सहज रूप से होना चाहिए। 


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