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भारत की सबसे मुश्किल चुनौती का निकला समाधान, जानें कैसे

अंतरिक्ष अभियानों को सफलतापूर्वक संचालित करने के लिए 2030 तक चांद पर ईंधन केंद्र बनाए जाने की योजना बनाई जा रही है।

By Lalit RaiEdited By: Published: Tue, 23 May 2017 11:35 AM (IST)Updated: Tue, 23 May 2017 04:53 PM (IST)
भारत की सबसे मुश्किल चुनौती का निकला समाधान, जानें कैसे
भारत की सबसे मुश्किल चुनौती का निकला समाधान, जानें कैसे

नई दिल्ली [स्पेशल डेस्क] । पूरा विश्व ऊर्जा संकट का सामना कर रहा है। दुनिया के अलग अलग हिस्सों में ऊर्जा के दूसरे विकल्पों की तलाश में सेमिनार होते रहते हैं। विश्व के वैज्ञानिक समुदाय में गहन चिंतन और मंथन जारी है कि किस तरह से लोगों की ऊर्जा जरूरतें पूरी हो सकती है। इन सबके बीच उम्मीद की किरण चांद में दिखाई दे रही है। अनसुलझे चांद के रहस्य को सुलझाने के लिए दुनिया के अलग अलग देश अभियान चला रहे हैं। वैज्ञानिकों के बड़े समूह का मानना है कि चांद पर इतनी मात्रा में हीलियम थ्री मौजूद है जिसके जरिए विश्व ऊर्जा संकट से आसानी से निजात पा सकता है। इसके अलावा चांद पर ईंधन केंद्र के जरिए सुदूर अंतरिक्ष अभियानों को जारी रखने में मदद मिलेगी। 

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हीलियम थ्री भविष्य का ईंधन

चांद पर मिलने वाले हीलियम थ्री को भविष्य के ईंधन के तौर पर देखा जा रहा है। इसके अलावा अंतरिक्ष अभियानों को सफलतापूर्वक संचालित करने के लिए चांद पर ईंधन केंद्र बनाए जाने की योजना पर काम चल रहा है। भारत ने चंद्रयान-1 के जरिए ये साबित कर दिया कि वो अब स्पेस साइंस में दुनिया के कुछ विकसित देशों के साथ कदमताल करने को तैयार है। 

ब्रिटेन के कल्हम साइंस सेंटर के मुताबिक हीलियम थ्री से न्यूक्लियर फ्यूजन के ज़रिए बड़ी मात्रा में ऊर्जा निकाली जा सकती है। इसके लिए बड़ी मशीन की जरुरत होगी। इसमें एक समय में एक ग्राम के सौंवें हिस्से के बराबर ईंधन डाला जाता है। इस ईंधन का एक किलो उतनी उर्जा देता है जितना पेट्रोलियम का  दस हजार टन देगा और इससे प्रदूषण भी बहुत ही कम होगा। वैज्ञानिकों का कहना है कि चांद पर इतना हीलियम थ्री है कि उससे सैंकड़ों वर्षों तक पृथ्वी की ऊर्जा जरूरतें पूरी की जा सकती हैं। चांद पर कई रॉकेट भेजकर हीलियम थ्री पृथ्वी पर लाया जा सकता है।

जानकार की राय

अंतरिक्ष मामलों के जानकार डा. रमेश कपूर ने Jagran.com को बताया कि चांद पर ईंधन केंद्र बनाए जाने से न केवल सुदूर अंतरिक्ष अभियानों को सफलतापूर्वक संचालित करने में मदद मिलेगा, बल्कि भारत की ऊर्जा जरूरतें भी पूरी होंगी। अब ये स्थापित तथ्य है कि चांद पर हीलियम थ्री का विशाल भंडार है। जो देश आक्रामक तौर पर चंद्र अभियान को चलाएंगे वो अपनी बादशाहत आगे भी कायम रख सकेंगे। इसरो द्वारा प्रस्तावित अगले साल चंद्र-2 अभियान से भारत अमेरिका और रूस को खुलकर चुनौती देने में कामयाब होगा। 

चांद और पृथ्वी के बीच बनेगा डिपो

पृथ्वी और चांद के बीच अंतरिक्ष में मौजूद अर्थ- मून लैगरेजियन प्वाइंट(एल1) में ईंधन डिपो के रूप में एक अंतरिक्ष यान स्थापित किया जाएगा। चांद से छोटे अंतरिक्ष यानों के जरिए बर्फ को इस डिपो तक पहुंचाया जाएगा। लॉकहीड मार्टिन और बोइंग कंपनियां इस चांद पर ईंधन केंद्र बनाने की योजना पर काम कर रही हैं। यह केंद्र सुदूर अंतरिक्ष अभियानों के लिए ईंधन उपलब्ध कराएगा। कंपनियों ने कालटेक स्पेस चैलेंज 2017 के जरिए विश्व के 27 छात्रों के साथ इसकी संभावना तलाशी। प्रोजेक्ट की शुरुआत 2020 से शुरू होगी जो 2030 में ईंधन केंद्र के रूप में सामने आएगी। इस ईंधन केंद्र में एक हजार लोगों के रहने की व्यवस्था भी होगी। 

पृथ्वी से पर्याप्त ईंधन ले जाना मुश्किल

सुदूर अंतरिक्ष अभियानों के लिए बड़ी मात्रा में ईंधन की जरूरत होती है। लेकिन इतना ईंधन ले जाना संभव नहीं है। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से निकलने के लिए अंतरिक्ष यान को 11 किमी प्रति सेकेंड की रफ्तार से वजनी ईंधन के साथ उड़ान भरते हैं। इस दौरान अधिक ऊर्जा के लिए अधिक ईंधन की खपत होती है। ईंधन की बड़ी मात्रा इतने सफर में ही समाप्त हो जाती है। इस वजह से सुदूर अंतरिक्ष अभियान संभव नहीं हो पाता है।

 

शोध यान के तीन हिस्से

 प्रोस्पेक्टर- यह चांद पर मौजूद बर्फ के स्थानों का पता लगाएगा।

कंस्ट्रक्टर- यह चयनित स्थान पर छोटे यानों के लिए लांच पैड और तीसरे शोध यान के लिए रास्ता बनाएगा।

 माइनर्स- यह चांद की सतह पर खुदाई करके बर्फ निकालेगा और उसे भंडार केंद्र तक ले जाएगा।

ऐसे भरेगा ईंधन

पृथ्वी से अंतरिक्ष यान को एक खाली ईंधन टैंक के साथ निचली कक्षा में लांच किया जाएगा। वहां से उसे एक सौर ऊर्जा चालित यान की की सहायता से एल1 तक ले जाकर उससे जोड़कर उसमें ईंधन भरा जाएगा।

बर्फ से बनेगा ईंधन

डिपो में सौर ऊर्जा की मदद से बर्फ पिघलाई जाएगी। फिर विद्युत अपघटन के जरिए पानी से हाइड्रोजन और ऑक्सीजन प्राप्त किए जाएंगे। अत्याधुनिक रॉकेट में ईंधन के रूप में इन्हीं का प्रयोग किया जाता है।  


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