तटीय और दक्षिण भारत बनेगा भाजपा का अगला रणक्षेत्र, ये होंगे हथियार
केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों मे भाजपा के लिए लड़ाई बहुत आसान नहीं है। पर केरल में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की जमीन है।
नई दिल्ली, आशुतोष झा। साल 2019 बहुत दूर नहीं है। राजनीतिक दल सांसे रोककर अगले लोकसभा चुनाव का इंतजार कर रहे हैं। विपक्षी दलों की धड़कनें इसलिए बढ़ गई हैं, क्योंकि भाजपा ने पिछली बार से भी बड़ा लक्ष्य तय कर लिया है। ऐसा नहीं कि खुद भाजपा के अंदर कइयों के मन में नए लक्ष्य को लेकर सवाल न उठ रहे हों। पर इसमें संदेह नहीं रह गया है कि अगले चुनाव का रणक्षेत्र दक्षिण और तटीय भारत बनेगा जो विपक्ष का गढ़ रहा है।
लोकसभा चुनाव 2019 की लड़ाई भाजपा के लक्ष्य के लिए ही नहीं, बल्कि वैचारिक रूप से संपूर्ण भारत में स्थापित करने के लिए भी है, जिसे भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पार्टी का स्वर्णिम काल मानते हैं। जाहिर तौर पर इस रोचक लड़ाई में भाजपा के योद्धाओं की सूची में कई ऐतिहासिक स्थानीय हीरो भी नजर आएंगे।
लोकसभा चुनाव का केंद्र हमेशा से मध्य और उत्तरी भारत हुआ करता है। दरअसल, इस क्षेत्र का संख्या बल ही सरकार तय करता है। 2014 के चुनाव मे भाजपा ने तीन दशक का इतिहास तोड़ दिया तो इसका कारण यह था कि गुजरात और राजस्थान में पार्टी ने सौ फीसद सांसद जुटाए वहीं उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे अन्य राज्यों में प्रदर्शन अस्सी नब्बे फीसद रहा। विपक्षी दलों की रणनीति का तो नहीं कहा जा सकता है, लेकिन वह इन्हीं राज्यों से आस लगाए बैठे हैं। उन्हें यह भरोसा है कि आम टूटकर उनकी ही झोली में गिरेगा।
विपक्षी दलों की झोली कितनी भरेगी यह वक्त बताएगा, लेकिन भाजपा दूसरे चरण की लड़ाई के लिए कमर कस चुकी है। पश्चिम बंगाल में हो रहे अलग अलग चुनावों में यह स्थापित हो चुका है कि सत्ताधारी तृणमूल की लड़ाई भाजपा से है। भाजपा की आक्त्रामकता का अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने विस्तारक योजना की शुरुआत पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी बूथ से की। तीन दशक तक राज्य की सत्ता पर काबिज रहे वाम दल पीछे छूट चुके हैं। अल्पसंख्यक राजनीति की चैंपियन रही ममता बनर्जी को भाजपा की रणनीतियों ने इतना मजबूर कर दिया कि उन्हें घोषणा करनी पड़ी कि वह हिंदू हैं।
ओडिशा में दो दशक से मौजूद बीजू जनता दल के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। पिछले पंचायत चुनाव में भाजपा का संख्या बल दस गुना से भी ज्यादा बढ़ा। मशक्कत, रणनीति और इच्छाशक्ति की धनी नई भाजपा का इन सभी राज्यों में रोडमैप लगभग एक सा है। लोकहितकारी केंद्रीय योजनाओं का जमीन तक प्रचार प्रसार और स्थानीय स्वाभिमान का जागरण। ध्यान रहे कि चार-पांच महीने पूर्व भुवनेश्र्वर में भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शामिल होने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दो सौ साल पहले हुए आदिवासियों के पाइका आंदोलन विद्रोहियों के परिवार से मिले। उन्हें सम्मानित भी किया और यह तय माना जा सकता है कि आने वाले वक्त में भी यह भाजपा के चुनाव प्रचार का हिस्सा होगा। ध्यान रहे कि ओडिशा में लगभग 22 फीसद आदिवासी जनसंख्या है।
केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों मे भाजपा के लिए लड़ाई बहुत आसान नहीं है। पर केरल में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की जमीन है। केरल विधानसभा में पहली बार विधायक पहुंचाकर अंकुरण का संकेत दे दिया है। तमिलनाडु में भाजपा को एक अदद चेहरे की जरूरत है। लोकसभा के लिए तो खैर प्रघानमंत्री नरेंद्र मोदी ही चेहरा होंगे, जिनके सत्ताधारी अन्नाद्रमुक के दोनों घटक भी प्रशंसक हैं और राजनीति में कदम रखने की आहट दे चुके सुपरस्टार रजनीकांत भी।
वैसे आज के चेहरे न भी मिलें तो यह तय है कि भाजपा कवि तिरुवल्लुवर और महान राजा चोला को अपना हीरो बनाकर स्थानीय स्वाभिमान की चैंपियन बनेगी। इसका असर दिखा तो क्षेत्रीय दलों को भी हर्जाना भुगतना पड़ सकता है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने जिन 120 सीटों को प्राथमिकता में रखकर अपने वरिष्ठ मंत्रियों और पदाधिकारियों को अभी से जिम्मेदारी दी है उनमें अधिकांश सीट इन्हीं राज्यों में आते हैं। खुद शाह दो दिन बाद तमिलनाडु की तीन दिवसीय यात्रा पर जा रहे हैं। लगभग इसी वक्त अन्नाद्रमुक के दोनों धड़ों का विलय भी संभावित है। यह देखना रोचक होगा कि बिहार में नीतीश कुमार के जदयू के साथ दोबारा दोस्ती के बाद क्या तमिलनाडु में भाजपा और अन्नाद्रमुक औपचारिक रूप से गले मिलते हैं या नहीं।
यह भी पढ़ें: आज एक हो सकते हैं अन्नाद्रमुक के दोनों धड़े, राज्यपाल विद्यासागर राव चेन्नई रवाना