इश्क रूह का
प्लेटॉनिक लव में तो सिर्फ महकते हैं रिश्ते... बहकने की तो गुंजाइश ही नहीं। बस साथ बहने की जुंबिश रहती है फिजाओं में। प्यार तो वाकई सिर्फ प्यार होता है ।
प्लेटॉनिक लव में तो सिर्फ महकते हैं रिश्ते... बहकने की तो गुंजाइश ही नहीं। बस साथ बहने की जुंबिश रहती है फिजाओं में। प्यार तो वाकई सिर्फ प्यार होता है । फिर वो चाहे किताब के बीच गुलाब में हो या गृहस्थी खंगालने में हाथ लगी चिट्ठी में...। इस पवित्र रिश्ते की पड़ताल कर रही हैं डॉ. लकी चतुर्वेदी बाजपेई और दिनेश दीक्षित शायद उसका ऑफिस राजीव चौक के आसपास ही था, क्योंकि मैं जब पटेल चौक से मेट्रो में चढ़ती तो वह हौले से अपनी सीट छोड़ खिसक जाता और मैं अपनी जिंदगी की तमाम उलझनें,
सुलझनें और बारीकियों को समेटे बैठ जाती...। वह सीट छोडऩे वाला लड़का इतना जरूरी है कि मैं भी उसकी सबसे बड़ी जरूरत बन गई हूं...। रिश्ता पटेल चौक से छतरपुर तक का बस। वह मुझे अपनी गर्लफ्रेंड की पिक दिखाता तो कभी मैं टिफिन से कुछ खिला देती...। जिस दिन वो नहीं मिलता मेट्रो उस दिन भी चलती, पर सिर्फ दौड़ती उसमें बैठी मैं जीती नहीं...। उस रिश्ते को मैं नाम न दे पाई। न जरूरत ही महसूस की... पर वो प्यारा सा लड़का मुझमें सुरखाब के पर लगाता है और मैं उड़ती हूं...।
इनसे इतर कुछ ऐसे भी खूबसूरत रिश्ते होते हैं, जो तमाम वर्जनाओं से परे सुकून की तलाश में पैदा होते हैं...। कोई हल्कापन नहीं, न छूने की ललक, न आगे बढऩे की लालसा सिर्फ और सिर्फ एकदूसरे को खुशियों से लबरेज करने का
संकल्प... यही है प्लेटॉनिक लव।
खामोशी से बोलता है यह कोलकाता के टालस्टाय स्ट्रीट पर उसका शोरूम है कम्प्यूटर हार्डवेयर
का। मैं अक्सर जाती थी उसकी उस खामोश सी जिंदगी को देखने जिससे मैं झंकृत हो उठती थी...। इशिता बताती हैं कि शायद दो-चार बार ही उससे बात हुई, पर गजब का चुंबक था
उसमें और धीरे-धीरे ऑफिशियल विजिट का बहाना बना, मैं उससे मिलने रोज पहुंच जाती...। वो तब तक समझ चुका था कि एक बेनाम रिश्ता बन रहा है हम दोनों में... पर न उसने कुछ कहा न मैंने कुछ कहना चाहा, मेरा ट्रांसफर गुवाहाटी हो गया। अब वो आता है मुझसे मिलने।
अब मैं 38 वर्ष की परिपक्व महिला हूं, दो बच्चे हैं, पर मुझे कहने में कोई हिचक नहीं कि वो मेरी जिंदगी का बेशकीमती रिश्ता है। घंटों बैठने के बाद मिनटों की बातें करते हैं हम और सदियों का समझते हैं एक-दूसरे को...।
अवचेतन गढ़ता है यह रिश्ता मनोवैज्ञानिक पहलू यही है कि हम सबमें एक कल्पना होती है आदर्श
की... और वही रिलेशनशिप आउटलाइन जब किसी से मैच कर जाती है वही प्लेटॉनिक बन जाता है।
उम्र, जेंडर, कल्चर ये बातें बेमानी सी हैं हमारे अवचेतन के आगे। यह सत्य है कि कोई भी रिश्ता हमारी निभाने की क्षमता से ज्यादा चुनाव की क्षमता से प्रभावित होता है।
रिसर्च साबित कर चुकी है कि जेंडर झुकाव जेनेटिक है। बेटी अपने पिता और बेटा अपनी मां को अवचेतन में रखकर ही अपने निजी रिश्ते खोजता है और वह जहां मिल जाता है वहीं वह ठहर जाता है। फिर वह चाहे सामाजिक स्वीकृति से पनपा रिश्ता हो या न हो।
तुमसे प्यार है पर 'वो' नहीं तुम नहीं आती तो कुछ खाली रहता है। जब भी कभी तुम अपनी परेशानियों में मुझसे मिलती हो तो मैं सिर्फ फिजीशियन नहीं रह पाता उससे आगे बढ़ सुनता हूं तुम्हारी तकलीफों को। अच्छा लगता है तुम्हारा बैठना, मरीजों की लंबी लाइन भूल जाना चाहता हूं उस दौरान। दर्द के बाद भी चहकती तुम्हारी आवाज, अधजगी आंखें न जाने क्यूं वह बोल जाती हैं जो न तुम कहती हो न मैं पूछता हूं...। जानता हूं हम दोनों ही तो शादीशुदा हैं, लेकिन उस उपस्थिति पर मैरिटल स्टेटस से क्या फर्क पड़ता है।
कौन सा हम शादी के लिए मिल रहे हैं, यह समझाता हूं खुद को... पर इतनी खुशी देने के बाद भी मेरे लिए तुम वो प्यार नहीं हो, जो मेरी पत्नी है क्योंकि मैं तुम्हारी तुलना करके अपने-तुम्हारे बीच पनपे इस रिश्ते को अपमानित नहीं करना चाहता... कहते हुए शांत हो जाते हैं डॉ. राकेश।