इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने एक बार फिर कांग्रेस के लिए संकट खड़ा करने का काम किया। उन्होंने अमेरिका में विरासत टैक्स का हवाला देते हुए यह कहा कि भारत में ऐसा नहीं है और हमें इस पर बहस करनी चाहिए। उनके इस कथन ने इसलिए तूल पकड़ लिया, क्योंकि कांग्रेस ने अपने घोषणा पत्र में लोगों की संपत्ति के सर्वे का वादा किया है। इसकी व्याख्या भाजपा पहले से ही इस रूप में कर रही है कि कांग्रेस लोगों की संपत्ति का आकलन करके संपन्न-सक्षम लोगों की संपदा का एक हिस्सा लेने का इरादा रखती है।

चूंकि सैम पित्रोदा का कथन कुछ इसी ओर संकेत करता दिख रहा था, इसलिए भाजपा ने नए सिरे से उनके बयान को मुद्दा बना दिया। प्रधानमंत्री ने तो उन्हें निशाने पर लिया ही, गृहमंत्री अमित शाह ने भी यह कह दिया कि यदि कांग्रेस वैसा कुछ करने का नहीं सोच रही है, जैसा सैम पित्रोदा कह रहे हैं तो वह अपने घोषणा पत्र से संपत्ति के सर्वेक्षण वाली बात हटाए।

पहले सैम पित्रोदा ने अपने बयान पर यह सफाई दी कि उनके कहने का वह मतलब नहीं था, जो समझा गया, फिर कांग्रेस ने स्वयं को उनके कथन से अलग कर दिया। कहना कठिन है कि इस सबसे उसका संकट कम हो जाएगा, क्योंकि सैम पित्रोदा केवल इंडियन ओवरसीज कांग्रेस के अध्यक्ष ही नहीं, बल्कि राहुल गांधी के करीबी सलाहकार माने जाते हैं।

यह पहली बार नहीं, जब सैम पित्रोदा के किसी बयान से कांग्रेस को रक्षात्मक रवैया अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ा हो अथवा उनके कथन को उनकी निजी राय बतानी पड़ी हो। इसके पहले उन्होंने 1984 के दंगों को लेकर हुआ तो हुआ.. कहकर कांग्रेस को असहज किया था। उनके कुछ और बयान भी विवाद का विषय बने हैं।

जब चुनावों के समय छोटी-छोटी बातों को तूल दे दिया जाता है या फिर उनकी मनचाही व्याख्या की जाने लगती है, तब नेताओं को संभलकर बोलना चाहिए। निःसंदेह सैम पित्रोदा अमेरिका का उदाहरण देकर उस पर भारत में बहस की जरूरत जता रहे थे, लेकिन उन्हें गलत समय ऐसा उदाहरण नहीं देना चाहिए था, जो तथ्यात्मक रूप से पूरी तरह सही न हो और जिसके विवाद का विषय बनने की भरी-पूरी आशंका हो।

यह तो कांग्रेस ही जाने कि वह संपत्ति के सर्वे के जरिये क्या हासिल करना चाहती है, लेकिन इससे इनकार नहीं कि देश में आर्थिक असमानता कम करने की आवश्यकता है। इसके बाद भी इस आवश्यकता की पूर्ति न तो वामपंथी सोच वाले तौर-तरीकों से की जा सकती है और न ही उन उपायों से, जो समाज में विभाजन पैदा करें। जो भी निर्धन-वंचित हैं या सामाजिक-आर्थिक रूप से पीछे छूट गए हैं, उनके उत्थान की अतिरिक्त चिंता की जानी चाहिए, लेकिन बिना उनका जाति, मजहब देखे।