उमेश चतुर्वेदी। राजनीतिक भ्रष्टाचार की चर्चा का एक सिरा चुनाव सुधार पर ही जाकर खत्म होता है। चुनावी फंडिंग भी इसका एक अहम पहलू है। इसी कड़ी में राजनीतिक फंडिंग को सुधारने की दिशा में 2018 में चुनावी बॉन्ड को एक बेहतर कदम के रूप में प्रस्तुत किया गया था, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने 15 फरवरी को खत्म कर दिया। चुनावों के ठीक पहले आए सरकार विरोधी फैसले पर विपक्ष का उत्साहित होना स्वाभाविक है, लेकिन सवाल यह है कि चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था को खारिज किए जाने के बाद राजनीतिक फंडिंग कैसे होगी?

सवाल सिर्फ फंडिंग का नहीं है, बल्कि उसकी पारदर्शी व्यवस्था का भी है। इस पर सुप्रीम कोर्ट से लेकर चुनावी बॉन्ड को न्यायिक चुनौती देने वाले भी किसी कारगर सुझाव को लेकर सामने नहीं आए हैं। अक्सर ऐसे लोगों की याचिका की पैरवी करने वालों के वकील प्रशांत भूषण भी इसे लेकर स्पष्ट नहीं हैं। हरसंभव मंच पर चुनावी बॉन्ड को खत्म किए जाने को लेकर सरकार को कठघरे में खड़ा कर रहे विपक्षी दलों के पास भी कोई ठोस वैकल्पिक सुझाव नहीं है।

पारदर्शी फंडिंग व्यवस्था और चुनावी बॉन्ड की जरूरत का जवाब बनकर सामने आई है चुनाव आयोग की कार्रवाई से जब्त मोटी रकम। सिर्फ प्रथम चरण के मतदान से पहले यानी 13 अप्रैल तक ही रिकार्ड मात्रा में नकदी, ड्रग्स, शराब और गहने आदि जब्त किए जा चुके हैं। इस दौरान करीब 4,650 करोड़ की नकदी, ड्रग्स, शराब और गहने आदि जब्त होने की सूचना है। 2019 की पूरी चुनाव प्रक्रिया के दौरान जब्ती से यह रकम बहुत ज्यादा है। वर्ष 2019 में करीब 844 करोड़ की नकदी जब्त की गई थी, जबकि इस बार पहले दौर के मतदान के पूर्व तक ही 395 करोड़ की नकदी जब्त की गई है।

इसी तरह 2019 में 304 करोड़ मूल्य की शराब की जब्ती हुई थी, जबकि इस बार 13 अप्रैल तक ही 490 करोड़ की शराब जब्त की जा चुकी है। चुनावों में बांटने और रकम आदि जुटाने के लिए ड्रग्स का भी इस्तेमाल इन दिनों बढ़ा है। चुनाव आयोग ने पिछले आम चुनाव में जहां 1,280 करोड़ की ड्रग्स जब्त की थी, वहीं इस बार अभी तक ही यह आंकड़ा 2,068 करोड़ रुपये तक चला गया है। इसी तरह उपहार आदि के रूप में पिछली बार जहां महज 60.15 करोड़ मूल्य के सामान जब्त हुए थे, तो इस बार 1,142 करोड़ के सामान जब्त किए जा चुके हैं। स्पष्ट है कि चुनाव दर चुनाव किस कदर आर्थिक भ्रष्टाचार बढ़ने पर है।

अमेरिका में चुनावी फंडिंग सरकारी और निजी दोनों तरह से जुटाई जा सकती है। हालांकि सरकारी फंडिंग से जुड़े नियम बेहद सख्त और पेचीदा हैं। इसलिए करीब सभी उम्मीदवार निजी फंडिंग का सहारा लेते हैं। वहां निजी फंडिंग की कोई सीमा भी नहीं है। उम्मीदवार अपनी पार्टी के सदस्यों, समर्थकों और कारपोरेट कंपनियों एवं संस्थानों से रकम जुटाते हैं। निजी फंडिंग लेने वाला व्यक्ति कानूनन सरकारी फंडिंग का दावा नहीं कर सकता। अमेरिका में चुनावी खर्च इतना अधिक हो चुका है कि उसकी पूर्ति के लिए सरकारी फंडिंग ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। इसीलिए उम्मीदवार निजी फंडिंग का सहारा लेते हैं। मौजूदा राष्ट्रपति चुनाव के दोनों प्रत्याशी राष्ट्रपति बाइडन और रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप करीब-करीब 600-600 करोड़ डालर की फंडिंग जुटा चुके हैं।

अमेरिका की तरह भारत में भी चुनाव महंगे होते जा रहे हैं। चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव के लिए खर्च सीमा 70 लाख से बढ़ाकर 95 लाख कर दी है, मगर हकीकत में इतने में कोई प्रत्याशी ठीक से विधानसभा का भी चुनाव नहीं लड़ सकता। चुनाव में खर्च होने वाली मोटी रकम की कहानी सभी दल जानते हैं। इसलिए अपने हिसाब से नियम की काट खोजते हुए पानी की तरह पैसा बहाते हैं, लिहाजा सबको भारी फंडिंग की जरूरत होती है। सवाल यह है कि चुनावी बॉन्ड को खत्म करने के बाद सरकार पर हमलावर दल क्या यह दावा कर सकते हैं कि उन्हें मिलने वाला फंड पवित्र और जायज है? चुनावी बॉन्ड में बेशक भाजपा को सबसे ज्यादा रकम मिली और उसके सत्तारूढ़ होने के कारण यह बहुत स्वाभाविक भी है, किंतु सवाल उठाने वाले दलों को मिली रकम भी कम नहीं है।

उदारीकरण के बाद से राजनीति में शुचिता का सवाल जितनी तेजी से उठा, सियासी फंडिंग का चलन भी उसी अनुपात में बढ़ा है। चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था से पहले नियम था कि कंपनियां अपने तीन साल के लाभ का सिर्फ सात प्रतिशत ही दलों को दान कर सकती थीं। चुनावी बॉन्ड को खारिज करने का मुख्य आधार गोपनीयता का नियम रहा, जिसके तहत बॉन्ड खरीदने वाले की जानकारी हासिल नहीं की जा सकती थी। चुनावी बॉन्ड के पहले तक तो यह भी पता नहीं होता था कि किसने, किस दल को, कितनी रकम दी? ज्यादातर रकम नकदी होती थी, जिसका ठोस हिसाब भी नहीं होता था।

1996 के आम चुनावों के ठीक पहले हवाला कांड में जनता दल के तत्कालीन अध्यक्ष शरद यादव पर एक लाख रुपये लेने का आरोप था। तब उन्होंने स्वीकार किया था कि दल चलाने के लिए कब और कहां से पैसे आते हैं, इसका हिसाब नहीं रखा जा सकता। नकदी से मिली बेहिसाब रकम की जब चोरी आदि हो जाती थी, तब भी नेता पुलिस में रिपोर्ट लिखाने से बचते थे, क्योंकि चोरी में रकम की जानकारी देते तो उसका स्रोत भी बताना पड़ता। कई दल अपने सैकड़ों करोड़ की नकदी को कार्यकर्ताओं और अपने सदस्यों से दान रूप में हासिल करने का झूठा दावा भी इसी वजह से करते रहे।

अब जब चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था समाप्त हो गई है तो राजनीतिक दल अपने खर्च के लिए येन-केन प्रकारेण पैसे जुटाएंगे। कानूनी प्रविधानों के छिद्रों का इस्तेमाल भी होगा। इस लिहाज से देखें तो चुनावी बॉन्ड एक सीमा तक बेहिसाब फंडिंग को हिसाबी दायरे में ही ला रहा था। पारदर्शिता के लिहाज से उसमें सुधार किया जा सकता था। राजनीतिक शुचिता का हिमायती होने का दावा करने वालों को चाहिए कि वे फंडिंग की ऐसी पारदर्शी वैकल्पिक व्यवस्था प्रस्तुत करे, जिसमें संदेह की गुंजाइश न हो। अन्यथा चुनाव सुधार और पारदर्शी फंडिंग का समर्थन भी खोखला ही माना जाएगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक टिप्पणीकार हैं)