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और सटीक होगी आर्कटिक की बर्फ की निगरानी, इस तरह काम करती है नवीन प्रणाली

बीएएस एआइ लैब के डाटा विज्ञानी और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक टाम एंडरसन के मुताबिक आर्कटिक उन स्थानों में शामिल है जहां जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर देखने को मिलता है। बीते 40 वर्षो में यहां काफी गर्माहट देखने को मिली है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 28 Aug 2021 01:33 PM (IST)Updated: Sat, 28 Aug 2021 01:37 PM (IST)
और सटीक होगी आर्कटिक की बर्फ की निगरानी, इस तरह काम करती है नवीन प्रणाली
बीएएस और द एलन ट्यूरिंग इंस्टीट्यूट के विज्ञानियों ने विकसित की है नई प्रणाली। फाइल/इंटरनेट मीडिया

लंदन, पीटीआइ। ग्लोबल वार्मिग का असर दुनिया के हर छोर पर पड़ रहा है और आर्कटिक भी इससे अछूता नहीं है। विज्ञानी इसकी बर्फ की लगातार निगरानी करते हैं। अब इस दिशा में ब्रिटिश अंटार्कटिक सर्वे (बीएएस) और द एलन ट्यूरिंग इंस्टीट्यूट के नेतृत्व में विज्ञानियों के एक दल ने आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस आधारित एक खास टूल विकसित करने में सफलता हासिल की है, जिससे इसकी बर्फ की निगरानी और सटीकता के साथ की जा सकेगी। विज्ञानियों ने इस टूल को आइसनेट नाम दिया है।

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यह हो रहा है बदलाव: इस प्रणाली को विकसित करने वाले शोधकर्ताओं के मुताबिक, बढ़ते तापमान के कारण पिछले चार दशकों में आर्कटिक का समुद्री बर्फ क्षेत्र आधा रह गया है। यह नुकसान ग्रेट ब्रिटेन के आकार के लगभग 25 गुना क्षेत्र के बराबर है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इस बदलाव का असर दुनिया भर देखने को मिलेगा। यही वजह थी कि हम एक बेहतर पूर्वानुमान प्रणाली विकसित करना चाहते थे, ताकि और सटीकता से भावी परिवर्तन का अनुमान लगाकर उचित कदम उठाए जा सकें।

रोचक तथ्य

  • गर्मियों में आर्कटिक पर तापमान 0 डिग्री सेल्सियस के आसपास रहता है और दिन भर सूरज की रोशनी रहती है। इस दौरान बर्फीला कोहरा भी होता है, जो बर्फ को पूरी तरह पिघलने से रोकता है। गर्मियों में यहां की करीब 50 फीसद बर्फ पिघल जाती है
  • सर्दियों में आर्कटिक का तापमान -50 डिग्री सेल्सियस के करीब रहता है और अंधेरा छाया रहता है
  • आर्कटिक भले ही जीवन के लिहाज से बेहद कठिन हो, लेकिन जानवरों की करीब 400 प्रजातियों के लिए यहां का मौसम अनुकूल है। यहां विभिन्न प्रजातियों की व्हेल, सील, ध्रुवीय भालू पाए जाते हैं

यह होगा लाभ: आइसनेट की मदद से आर्कटिक की बर्फ के पिघलने का सटीक पूर्वानुमान एक सीजन पूर्व ही लगाया जा सकेगा। विज्ञानियों ने इस प्रणाली को 95 फीसद सटीक पाया है। इसके जरिये समय रहते उचित कदम उठाए जा सकेंगे, जिससे यहां रहने वाले जीवों को बर्फ के पिघलने से होने वाले नुकसान से बचाया जा सके।

इसलिए मुश्किल है पूर्वानुमान: उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों पर दिखाई देने वाले जमे हुए समुद्री जल की विशाल परत की प्रकृति और व्यवहार के बारे में पूर्वानुमान लगाना बेहद मुश्किल है। इसकी वजह बर्फ के ऊपरी और महासागर के भीतरी वातावरण के बीच बेहद जटिल संबंध होना है।

इस तरह काम करती है नवीन प्रणाली: आइसनेट प्रणाली के बारे में विस्तृत जानकारी नेचर कम्यूनिकेशनंस नामक जर्नल में प्रकाशित की गई है। बीएएस एआइ लैब के डाटा विज्ञानी और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक टाम एंडरसन के मुताबिक, आर्कटिक उन स्थानों में शामिल है, जहां जलवायु परिवर्तन का सबसे अधिक असर देखने को मिलता है। बीते 40 वर्षो में यहां काफी गर्माहट देखने को मिली है। यही वजह है कि अभी तक यहां की बर्फ की निगरानी के लिए जिन पारंपरिक प्रणालियों का प्रयोग हो रहा था उससे बेहतर प्रणाली की जरूरत पड़ी। आइसनेट को डीप लर्निग कांसेप्ट के आधार पर तैयार किया गया है। इस नई प्रणाली में सेटेलाइट सेंसर से मिले डाटा का विश्लेषण पारंपरिक जलवायु माडल के डाटा के साथ किया जाता है।


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