Move to Jagran APP

जलवायु परिवर्तन के कारण पिघल चुका है आर्कटिक की समुद्री बर्फ का काफी हिस्सा

मानवीय गतिविधियां ही हैं जो जलवायु परिवर्तन को तेजी से धकेल रही हैं और इसके परिणाम भी हैं उतनी ही तेजी से देखने को मिल रहे हैं।

By Bhupendra SinghEdited By: Published: Sun, 26 Jan 2020 07:18 PM (IST)Updated: Sun, 26 Jan 2020 07:18 PM (IST)
जलवायु परिवर्तन के कारण पिघल चुका है आर्कटिक की समुद्री बर्फ का काफी हिस्सा
जलवायु परिवर्तन के कारण पिघल चुका है आर्कटिक की समुद्री बर्फ का काफी हिस्सा

लंदन, प्रेट्र। यदि जलवायु परितर्वन की दर धीमी या बदल जाए तो भी आर्कटिक की पिघली हुई समुद्री बर्फ अपनी पूर्वावस्था में नहीं आ सकती। ब्रिटेन की एक्सेटर यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक नए अध्ययन में यह दावा किया है। इसके लिए उन्होंने क्वाहोग क्लैम्स नामक जीव के खोल का इस्तेमाल किया।

prime article banner

क्वाहोग क्लेम्स जीव का आवरण बुहत कठोर और सैकड़ों वर्षो तक जिंदा रहते हैं

क्वाहोग क्लेम्स को हार्ड क्लेम भी कहा जाता है। इनका आवरण बुहत कठोर होता है। ये सैकड़ों वर्षो तक जिंदा रह सकते हैं और अपने शरीर में छल्लों का निर्माण करते हैं। जिस क्वाहोग के खोल में जितने ज्यादा छल्ले होंगे वह उम्र में उतना ही पुराना माना जाता है और उम्र बढ़ने के साथ-साथ इन छल्लों की संख्या भी बढ़ती जाती है।

क्वाहोग क्लेम्स के छल्लों से जलवायु परिवर्तनों को आसानी से मापा जा सकता है

शोधकर्ताओं का कहना है कि इस छल्लों की जांचकर पिछले जलवायु परिवर्तनों की माप आसानी से की जा सकती है। पिछले 1,000 वर्षों में आर्कटिक की समुद्री बर्फ में आए बदलावों को पता करने के लिए उन्होंने जलवायु मॉडल का भी विश्लेषण किया। इस दौरान शोधकर्ताओं की टीम ने पाया कि दशक-दर-दशक समुद्री बर्फ का क्षेत्र बदलता रहता है। इसलिए जलवायु परिवर्तन धीमा या उलट जाने पर पिघली हुई बर्फ के तेजी से अपनी पूर्वावस्था में लौटने की उम्मीद नहीं की जा सकती है।

संवेदनशील है जलवायु परिवर्तन का सिस्टम

जर्नल साइंटिफिक रिपो‌र्ट्स नामक जर्नल में प्रकाशित अध्ययन में इस बात की भी जांच की गई है कि क्या आइसलैंड के उत्तरी क्षेत्र में ज्वालामुखी विस्फोट जैसे कारकों के कारण बर्फीले क्षेत्र में कुछ बदलाव आया था या यह एक प्राकृतिक पैटर्न का हिस्सा था।

प्राकृतिक बदलावों के मुकाबले मानवीय गतिविधियों का पड़ रहा सर्वाधिक प्रभाव

यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर के शोधकर्ता और इस अध्ययन के प्रमुख लेखक पॉल हॉलोरान ने कहा कि पूर्व में आए कुल बदलावों में से कम से कम एक तिहाई बदलाव प्राकृतिक आपदाओं के कारण हुए थे, जो यह बताता है कि जलवायु परिवर्तन का सिस्टम बेहद संवेदनशील है।

विशेष घटनाओं के कारण बदलती है जलवायु

उन्होंने कहा कि इस बात के प्रमाण बढ़ रहे हैं कि हमारी बदलती जलवायु के कई पहलू प्राकृतिक भिन्नता के कारण नहीं हैं, बल्कि इसके लिए कुछ विशेष घटनाएं जिम्मेदार हैं। शोधकर्ताओं ने कहा कि यह अध्ययन उन बड़े प्रभावों को रेखांकित करता है जिससे आर्कटिक की समुद्री बर्फ प्रभावित होती सकती है। चाहे वे बेहद कमजोर हों या ज्वालामुखी जैसे भीषण।

मानवीय गतिविधियां बढ़ा रही हैं जलवायु परिवर्तन

हॉलोरान ने कहा कि आज जलवायु परिवर्तन के कारक इतने कमजोर नहीं हैं कि लंबे समय बाद इनका असर देखने को मिले। ये मानवीय गतिविधियां ही हैं जो जलवायु परिवर्तन को तेजी से धकेल रही हैं और इसके परिणाम भी हैं उतनी ही तेजी से देखने को मिल रहे हैं।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.