फोन कर कहा कल से मत आना, ब्रिटेन में महिलाओं ने यूंं बताया लॉकडाउन और जॉब जाने का दर्द
लॉकडाउन में जिन लोगों की नौकरी चली गई उनकी कहानी यूं तो हर जगह ही एक सी है लेकिन इसका अहसास हर किसी के लिए कर पाना काफी मुश्किल है।
लंदन (न्यूयॉर्क टाइम्स)। ब्रिटेन में कोविड-19 से लोगों को बचाने के लिए लगाए गए लॉकडाउन में लोगों को काफी कुछ सहना पड़ा। इस दौरान कई लोगों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा तो कई लोगों को दूसरी कई तरह की परेशानियों से दो-चार होना पड़ा। मार्च के अंत में लगे लॉकडाउन के दौरान एक महिला को 9 जगहों पर अपनी क्लीनिंग जॉब से से हाथ धोना पड़ा। वहीं एक अन्य महिला को इसलिए निकाल दिया गया क्योंकि उसने अपने लिए मास्क की मांग कर दी थी। कुछ को इसलिए नौकरी से निकाल दिया गया क्योंकि वो आने जाने के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट का सहारा लेती थीं। ये कहानी सिर्फ कुछ लोगों की ही नहीं थी बल्कि ऐसा कई के साथ हुआ।
एक इंटरव्यू में तीन महिलाओं ने उस बुरे वक्त की कहानी को बयां किया। इनका कहना था कि ये उनके लिए बेहद बुरा दौर था। लेकिन लॉकडाउन हटने और बाजार ऑफिस खुलने के बाद भी उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। इनका ये भी कहना है कि ज्यादातर जगहों पर लोगों को या तो निकाल दिया गया या फिर निकाला जा रहा है, इसलिए उनके लिए जॉब के कोई आसार दिखाई नहीं दे रहे हैं। इसके अलावा यदि उन्हें इन मुश्किल दौर में जॉब मिल भी रही है तो वो भी पुरानी दरों पर ही मिल रही है, जबकि वर्तमान में हालात बेहद खराब हैं। इन तीनों में एक बात समान है। वो ये कि ये तीनों ही अश्वेत हैं। ब्रिटेन में अश्वेत लोगों के साथ भेदभाव का लंबा इतिहास रहा है। यहां के अश्वेत नागरिक वर्षों से इसके शिकार होते रहे हैं। कोरोना महामारी के दौरान भी इन लोगों पर न सिर्फ वित्तीय बल्कि मानसिक परेशानी भी पहले से कई गुणा बढ़ गई है। ब्रिटिश यूनिवर्सिटी और वूमेंस चेरिटी की तरफ से कराए गए एक सर्वे के दौरान ऐसी ही कुछ चौकाने वाली जानकारी सामने आई हैं।
लंदन की एक ऑर्गेनाइजेशन रनीमेड ट्रस्ट की अंतरिम डायरेक्टर जुबेदा हक का कहना है कि कोविड-19 ने कई कड़वी सच्चाई भी सामने लाकर रख दी हैं। ये सिर्फ शारीरिक भेदभाव से ही ताल्लुक नहीं रखती हैं बल्कि सामाजिक और आर्थिक भेदभाव से भी इनका संबंध है। ईस्ट लंदन में ब्यूटी सैलून में काम करने वाली कोरियाई महिला मिनजी पाएक ने बताया कि उसको कोरोना महामारी से पहले हर घंटे के 15 पाउंड मिलते थे। इसके अलावा टिप भी मिल जाया करती थी। लेकिन अब हर घंटे के केवल 10 पाउंड ही मिलते हैं। इतना ही नहीं स्टाफ की कमी की वजह से इस संकट में काम के घंटे भी बढ़ गए हैं। इसकी वजह से परेशानी कई गुणा बढ़ गई है। उन्होंने बताया कि उनका मैनेजर मौजूदा स्थिति को टेंपरेरी बताते हैं। उनके मुताबिक वो रिस्क ले रही है इसलिए कुछ ज्यादा पैसे पा लेती हैं।
न्यूयॉर्क टाइम्स की खबर के मुताबिक कोरोना वायरस से होने वाले नुकसान और इससे हुई मौतों पर सरकार जानकारी ले रही है। इसके मुताबिक यहां पर रहने वाले अश्वेत, एशियाई मूल के निवासी और दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय में इसकी दर श्वेत नागरिकों की अपेक्षा अधिक रही है। इसके मुताबिक ब्रिटेन के स्थायी नागरिक या मूल निवासियों की अपेक्ष यहां पर रह रहे चाइनीज, भारतीय, पाकिस्तानी और दूसरे एशियाई देशों के नागरिकों समेत केरेबियाई देशों के अश्वेत नागरिकों में कोविड-19 का शिकार होने और उनकी मौत का रिस्क कई गुणा अधिक है। यूनिवर्सिटी ऑफ मेनचेस्टर स्थित सेंटर ऑन डायनामिक्स ऑफ एथनिसिटी के डायरेक्टर ब्रिगेट बायर्न के मुताबिक जब हम इन लोगों में इसको लेकर होने वाले रिस्क की बात करते हैं तो इसकी प्रमुख वजह इनकी खराब डाइट है जो इसे बढ़ा देती है। उनका ये भी कहना था कि जब कोई कहता है कि वो खुद को सुरिक्षत महसूस नहीं कर रहा है तो इससे अन्य लोगों को भी चिंता होने लगती है।
48 वर्षीय केंडिस ब्राउन ने भी लॉकडाउन के दौर में अपनी जॉब को खोया है। उन्होंने बताया कि जहां वो जॉब करती थीं उन्होंने खुद फोन कर उन्हें कहा कि कल से आने की जरूरत नहीं है। वो मेनचेस्टर में करीब 9 घरों में काम करती थीं। जब उन्हें हर किसी ने आने से मना कर दिया तो वो शब्द उनके दिमाग पर किसी बम की तरह फटते थे। उन्होंने कहा कि काम न होने की सूरत में वो पूरी तरह से खाली हैं और मुश्किलें लगातार बढ़ रही हैं। बीते माह में उन्होंने सरकार से आर्थिक मदद मांगी थी लेकिन उन्हें इस तरह की आर्थिक मदद देने से इसलिए मना कर दिया गया क्योंकि उनके पास जॉब को लेकर किसी तरह का कोई लीगल पेपर या डॉक्यूमेंट नहीं था। अपने घर को चलाने के लिए उन्हें दूसरे लोगों से आर्थिक मदद मांगनी पड़ी। उन्होंने सरकार की एक अन्य योजना के तहत आर्थिक मदद पाने की भी कोशिश की है, लेकिन अब तक उसका कुछ नहीं हुआ है और वो केवल इंतजार ही कर रही हैं।