पाकिस्तान में खून खराबे की तालीम से होती है नौनिहालों की शुरुआत, जैसी करनी वैसी भरनी
किसी देश समाज और व्यक्ति को अपनी कथनी और करनी में अंतर नहीं करना चाहिए। अगर कोई ऐसा करता है तो उसकी दुर्गति पाकिस्तान सरीखी होती है।
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। च से 'चाकू' पढ़ने वाले वाले पाकिस्तानी नौनिहालों के दिमाग में हिंसा और खून-खराबा उनके शुरुआती दिनों से ही बैठा दिया जाता है। शुरुआती जीवन में मिले उनको ये संस्कार जीवन भर भारत विरोधी आतंकवाद को सही ठहराने पर विवश करते हैं। पाकिस्तान में दो तरह के आतंकी संगठन सक्रिय है। एक तो जिनका प्रमुख लक्ष्य भारत विरोध है और दूसरे वे जो पाकिस्तान को निशाना बनाते हैं। दोनों तरह के संगठनों के प्रति पाकिस्तानी अलहदा विचार रखते हैं। भारत को घाव देने वाले लश्कर ए तैयबा (एलईटी) जैसों से उनको सहानुभूति है जबकि तहरीके तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के लिए गुस्से का भाव है। इसे समझने के लिए प्यू ग्लोबल एट्टीट्यूड्स सर्वे के आंकड़ों का विश्लेषण मदीहा अफजल ने अपनी नई किताब ‘पाकिस्तान अंडर सीज एक्ट्रीज्म, सोसायटी एंड द स्टेट’ में स्थान दिया। पेश है एक नजर:
ऐसे हुआ सर्वे
साल 2002 से प्यू ग्लोबल एट्टीट्यूट्स सर्वे पाकिस्तान में हर साल कराया जाता है। इसमें 18 साल से अधिक उम्र के लोगों को शामिल किया जाता है। साक्षात्कार उर्दू सहित स्थानीय भाषाओं में किए जाते हैं। इसका दायरा देश की 90 फीसद आबादी तक होता है। खास बात यह है कि इस सर्वे में उन इलाकों को नहीं शामिल नहीं किया जाता है जो असुरक्षित और सुरक्षा के लिहाज से गंभीर रूप से संवेदनशील है। जैसे फाटा, गिलगित- बाल्टिस्तान, खैबर पख्तूनख्वा। इसका मतलब कि जब सामान्य जगहों पर रहने वालों के ये विचार हैं तो आतंकी इलाकों के लोगों के विचार तो और ही भारत विरोधी होंगे।
दोगली सोच
अध्ययन में सामने आया कि पाकिस्तानी दूसरे देशों में कहर बरपाने वाले आतंकी संगठनों जैसे लश्करे तैयबा और अल कायदा के प्रति सहानुभूति रखते हैं जबकि पाकिस्तानी हुकूमत को जख्म देने वाले तहरीक-ए-तालिबान के प्रति उनमें गुस्से का भाव है। उदाहरण के लिए सर्वे में शामिल 14 फीसद लोग लश्करे तैयबा के समर्थन में दिखे जबकि तहरीक-ए-तालिबान के प्रति सिर्फ नौ फीसद लोगों का ही समर्थन था।
सामरिक हथियार
पाकिस्तान भारत को घाव देने वाले आतंकी संगठनों को एक सामरिक हथियार की तरह देखता है। इन्हें स्टेट नीति के एक अंग के रूप में देखा जाता है। सामाजिक राजनीतिक संगठन की तरह देश ने इन आतंकियों को काम करने की आजादी दे रखी है। इनका प्रोपेगंडा बहुत व्यापक है। इनके चैरिटी के काम बहुत सफल और प्रभावकारी माने जाते हैं।
समृद्धि बेअसर
अध्ययन में सामने आया कि समृद्ध तबके की राय लश्करे तैयबा को छोड़कर बाकी सभी आतंकी संगठनों के खिलाफ अच्छी नहीं है। युवा वर्ग लश्करे तैयबा समेत सभी आतंकी संगठनों से ज्यादा सहानुभूति रखता है। यह बताता है कि पाकिस्तान में चरमपंथ को कैसे बचपन से ही लोगों को सिखाया- पढ़ाया जाता है।
चैरिटी और प्रोपेगंडा
लश्करे तैयबा का चैरिटेबल विंग और फ्रंट जमात उद दावा स्कूल और एंबुलेंस की सेवा मुहैया कराता है। आपातकाल में मदद की भी व्यवस्था करता है। न्यू अमेरिका फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित एक अखबार के अनुसार पाकिस्तान में जमात उद दावा के पास देश की दूसरी सबसे बड़ी एंबुलेंस सेवा है। अक्टूबर 2005 में आए विनाशकारी भूकंप और 2010 में आई बाढ़ में इस संगठन ने वहां अपनी सेवाएं पहुंचाई जहां देश की मशीनरी नहीं पहुंच सकी। शायद इसी वजह से इसकी आतंकी गतिविधियों को जानते-समझते हुए भी लोग उस पर कुछ बोलना नहीं चाहते या फिर चुप लगा जाते हैं।
प्रचार के लिए पत्रिका
लश्करे तैयबा का प्रोपेगंडा बहुत व्यापक है। समूह द्वारा लोगों को भ्रमित करने के लिए पत्रिकाओं का प्रकाशन किया जाता है। युवाओं, महिलाओं और सामान्य पाठक वर्ग के लिए अलग-अलग पत्रिकाएं निकाली जाती हैं। इसमें सिर्फ भारत और पश्चिम विरोध की बातें ही नहीं होती हैं बल्कि धार्मिक जीवन जीना और बच्चे पालना भी बताया जाता है।
शिक्षा के स्तर पर विचारधारा
विश्वविद्यालयी शिक्षा के स्तर पर भी छात्रों की आतंकी संगठनों के प्रति इस मानसिकता में कोई बदलाव नहीं दिखता है। ये लश्करे तैयबा के जबरदस्त समर्थक हैं। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि हाफिज सईद खुद यूनिवर्सिटी ऑफ इंजीनिर्यंरग एंड टेक्नोलॉजी में प्रोफेसर रह चुका है। हालांकि हाई स्कूल या इससे कम शैक्षिक स्तर के लोगों में समर्थन का स्तर कम दिखा।
संगठनों से जुड़ाव
देश के मुख्यधारा के इस्लामिक संगठनों से जुड़ाव इन आतंकी संगठनों को एक नया चोला मुहैया कराता है। लश्करे तैयबा का मुखिया हाफिज सईद जमात-ए-इस्लामी का संस्थापक सदस्य है। इसके साथ ही वह जमायत उलेमा ए इस्लाम के सामी उल हक और जमायत ए इस्लामी के सिराज उल हक के साथ हाफिज सईद दीफा ए पाकिस्तान काउंसिल का भी प्रमुख है। इस संगठन का गठन 2011 में नाटो हमले के बाद किया गया था। इस हमले में 24 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए थे।