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India and Nepal Relation: नेपाल के नए PM शेर बहादुर देउबा का क्‍या है भारत लिंक, बेचैन हो सकता है चीन

ऐसे में जाहिर है कि नई परिस्थितियों में शेर बहादुर देउबा के सामने जटिल चुनौतियां होंगी। आखिर देउबा के समक्ष क्‍या होगी चुनौती। उनके प्रधानमंत्री बनने से कैसे होंगे नेपाल और भारत के रिश्‍ते। देउबा के भारत से क्‍या है लिंक।

By Ramesh MishraEdited By: Published: Fri, 16 Jul 2021 05:29 PM (IST)Updated: Sat, 17 Jul 2021 12:35 AM (IST)
India and Nepal Relation: नेपाल के नए PM शेर बहादुर देउबा का क्‍या है भारत लिंक, बेचैन हो सकता है चीन
नेपाल के नए पीएम शेर बहादुर देउबा का क्‍या है भारत लिंक। फाइल फोटो।

काठमांडू, एजेंसी। सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद नेपाली कांग्रेस के अध्‍यक्ष शेर बहादुर देउबा मंगलवार को आधिकारिक तौर पर पांचवीं बार देश के प्रधानमंत्री बन गए। प्रधानमंत्री देउबा का कार्यकाल कैसा रहेगा। क्‍या उनके आने से नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता का दौर खत्‍म हो जाएगा। ऐसे में जाहिर है कि नई परिस्थितियों में शेर बहादुर देउबा के सामने जटिल चुनौतियां होंगी। आखिर देउबा के समक्ष क्‍या होगी चुनौती। उनके प्रधानमंत्री बनने से कैसे होंगे नेपाल और भारत के रिश्‍ते। देउबा के भारत से क्‍या है लिंक।

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प्रधानमंत्री देउबा के भारत से मधुर संबंध

  • देउबा नेपाल के नए प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ले चुके हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि देउबा का भारत से क्‍या लगाव है। देउबा का भारत से गहरा नाता है। उन्‍हें भारत के प्रसिद्ध विश्‍वविद्यालय जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की उपाधि भी मिल चुकी है। भारत की संस्‍कृति और सभ्‍यता के प्रति उनका गहरा लगाव है।
  • 13 जून 1946 को पश्चिमी नेपाल के दादेलधुरा जिले के एक गांव में जन्मे देउबा की कॉलेज के समय से ही राजनीति में दिलचस्‍पी थी। 60 के दशक में वह राजनीति में काफी सक्रिय हो चुके थे और काठमांडू की सुदूर-पश्चिमी छात्र समिति के नेता बन चुके थे। गौरतलब है कि यह छात्र समिति मुख्यधारा की राजनीति में काफी प्रभावशाली मानी जाती है। इसकी मदद देश के बड़े बड़े नेता लेते हैं।
  • देउबा ने कानून और राजनीति विज्ञान में भी मास्टर्स डिग्री ली। वह नेपाल के ज्यादातर नेताओं की तुलना में काफी पढ़े-लिखे और जानकार माने जाते हैं। भारत से भी उनके अच्छे संबंध रहे हैं। खास बात यह रही है कि लंबे समय से नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष के तौर पर काम कर रहे देउबा आज तक किसी भी चुनाव में पराजित नहीं हुए हैं। नब्बे की शुरुआत में देउबा को प्रतिनिधि सभा के लिए चुना गया था। इसके बाद से वे कभी नहीं हारे। वह गिरिजा प्रसाद कोइराला की सरकार में गृह मंत्री भी रहे।
  • देउबा ने नेपाल के 40वें प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी, लेकिन वह पहली बार नहीं, बल्कि पांचवीं बार देश के प्रधानमंत्री बने हैं। 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने उन्‍हें पहली बार प्रधानमंत्री नियुक्त किया था। उस वक्‍त भी नेपाल में खासी राजनीतिक उथलपुथल थी। संसद को भंग करने की कोशिश की जा रही थी। नेपाल में लोकतंत्र पर संकट था। ऐसे हालात में देउबा ने देश की राजनीतिक अस्थिरता के दौर को खत्‍म किया था।
  • पहली बार 1995 से 1997 तक प्रधानमंत्री रहने के बाद वह दोबारा वर्ष 2001 में प्रधानमंत्री बने। उस वक्‍त उनका कार्यकाल एक वर्ष का था। तीसरी बार जून 2004- फरवरी 2005 और चौथी बार जून 2017- फरवरी 2018 तक देउबा नेपाल के पीएम रहे। अब शपथ ग्रहण के बाद देउबा को 30 दिनों के अंदर उन्हें सदन में विश्वास मत हासिल करना होगा। हालांकि यह माना जा रहा है कि ओली के कारण देश की राजनीतिक अस्थिरता के कारण देउबा के लिए ये मुश्किल काम नहीं होगा।

ओली के कार्यकाल में तल्‍ख हुए भारत-नेपाल के संबंध

अगर भारत के साथ रिश्‍तों में देखें तो केपी ओली के कार्यकाल में दोनों देशों के बीच खटास पैदा हुई थी। दोनों देशों के बीच कई विवादित मुद्दों पर टकराव की स्थिति उत्‍पन्‍न हुई थी। ओली की गिनती चीन के समर्थक के रूप में है, वह भारत के विरोधी रहे हैं। उससे कई बार ये भी साफ हुआ कि वो सीधे-सीधे चीन के इशारों पर काम कर रहे हैं। ओली को बचाने की चीन ने भी अपने स्तर पर कई कोशिशें कीं। पहले प्रचंड और ओली में सुलह कराने की कोशिश, फिर राष्ट्रपति के साथ चीनी प्रतिनिधियों की बैठकें।

देउबा की बड़ी चुनौती

उनके समक्ष पक्ष और विपक्ष को साथ लेकर चलने की चुनौती होगी। संसद का आधिकारिक तौर पर भरोसा जीतने की बड़ी चुनौती है। उनके समक्ष माओवादियों के समर्थन की शर्तों को पूरा करने की चुनौती और साथ ही राजशाही समर्थकों को भी अपने साथ जोड़ना होगा। सत्‍ता से बाहर ओली गुट भी उनके लिए एक बड़ी चुनौती खड़ा कर सकता है। साथ ही राष्ट्रपति विद्यादेवी भंडारी का रुख भी अहम मायने रखेगा, जो लगातार ओली को बचाने के लिए किसी भी हद तक जाती नजर आती रही हैं। पिछली बार भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी उसे न मानने की रणनीतिक और तथाकथित संवैधानिक चालबाजियां और अब एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट के दबाव में देउबा की ताजपोशी की मजबूरी। जाहिर है देउबा की राह आसान नहीं है। 


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