Move to Jagran APP

जानिए आखिर क्यूं और किन कारणों से अंटार्कटिका में पिघलते जा रहे बर्फ के ग्लेशियर

अंटार्कटिका के समुद्री ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं। एक रिसर्च में सामने आया है कि ये सब समुद्र में परमाणु परीक्षणों की वजह से हो रहा है।

By Vinay TiwariEdited By: Published: Sun, 20 Oct 2019 04:43 PM (IST)Updated: Sun, 20 Oct 2019 04:43 PM (IST)
जानिए आखिर क्यूं और किन कारणों से अंटार्कटिका में पिघलते जा रहे बर्फ के ग्लेशियर
जानिए आखिर क्यूं और किन कारणों से अंटार्कटिका में पिघलते जा रहे बर्फ के ग्लेशियर

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। देश दुनिया में कम होते जा रहे प्राकृतिक संसाधनों के लिए हम खुद जिम्मेदार है। अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत करने के लिए तमाम देशों के वैज्ञानिक जिस तरह से रिसर्च कर रहे हैं उसका खामियाजा दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों, ग्लेशियरों और अन्य को भुगतना पड़ रहा है। समय के साथ ये पुरातन चीजें धीरे-धीरे ही सही हमारे पास से खत्म होती जा रही है। कई दुर्लभ जीव जंतु तो अब खत्म भी हो चुके हैं। वहीं कुछ खात्मे की कगार पर है। 

loksabha election banner

कुछ सालों में खत्म हो जाएंगी बर्फ की चादर 

इनको बचाने-सहेजने के प्रयास अब शुरू किए गए हैं मगर वो नाकाफी हैं। ताजा उदाहरण बर्फ की सफेद चादर के ग्लेशियर हैं। ये धीरे-धीरे पिघलते जा रहे हैं और खत्म होते जा रहे हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि इसी तरह से ये ग्लेशियर पिघलते रहे तो आने वाले कुछ सालों में ये पूरी तरह से खत्म हो जाएंगे।

परमाणु हथियारों के परीक्षण का दिख रहा असर 

दरअसल 1950-1960 के दशक में प्रशांत महासागर में अमेरिका ने परमाणु हथियारों का परीक्षण किया था। इस परीक्षण से कुछ रेडियोधर्मी तरंगें निकली, वो यहां अंटार्कटिका महासागर में बर्फ के ग्लेशियरों तक पहुंची, ये रेडियो एक्टिव गैसें बर्फ की चादरों पर जमा हो गई। ये तरंगें अभी भी यहां मौजूद हैं। जो इन बर्फ की चादरों को पिघलने के लिए मजबूर कर रही हैं।

अध्ययन में हुआ खुलासा 

जियोफिजिकल रिसर्च जर्नल - एटमॉस्फियर के एक रिसर्च में इसका खुलासा किया गया है। एक अध्ययन में इसकी डिटेल रिपोर्ट प्रकाशित की गई है। यूरोपियन सेंटर फॉर रिसर्च एंड टीचिंग इन जियोसाइंसेज एंड द एनवायरनमेंट इन ऐक्स-एन-प्रोवेंस, फ्रांस के एक भू-वैज्ञानिक ने इस पर खास रिसर्च की है। वैज्ञानिक का नाम मेलेनी बारोनी है। उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ अंटार्कटिका के विभिन्न हिस्सों में क्लोरीन उत्सर्जन की जांच की, इसके बाद ये रिपोर्ट तैयार की। क्लोरीन की जांच के लिए दो जगहों का चयन किया गया था, इनमें से एक जगह वो शामिल की गई थी जहां वार्षिक बर्फबारी अधिक होती है और दूसरी वो जगह ली गई जहां कम बर्फबारी होती है।

बर्फ की उम्र जांच के लिए रेडियोधर्मी आइसोटोप का इस्तेमाल 

वैज्ञानिक आमतौर पर पृथ्वी के पिछले जलवायु के रहस्यों में अनुसंधान के हिस्से के रूप में बर्फ की चादरों में ड्रिलिंग करके बर्फ की उम्र का पता लगाते हैं। इसके लिए रेडियोधर्मी आइसोटोप का उपयोग किया जाता है। कुछ क्लोरीन -36 प्राकृतिक रूप से बनता है लेकिन यह परमाणु विस्फोट के दौरान भी उत्पन्न हो सकता है जब न्यूट्रॉन समुद्री जल में क्लोरीन के साथ प्रतिक्रिया करते हैं। विशेषज्ञों ने पता लगाया कि क्लोरीन -36 के उच्च स्तर अभी भी बर्फ की सतह के पास मौजूद हैं।

अंटार्कटिका की बर्फ की परतों पर जमा होते क्लोरीन 

वैज्ञानिकों का कहना है कि कई बार प्राकृतिक रूप से पैदा होने क्लोरीन भी अंटार्कटिका की बर्फ की परतों पर जमा हो जाता है। मगर अभी जो क्लोरीन यहां पाए जा रहे हैं वो 1950 और 1960 के दशक में बम परीक्षणों द्वारा निर्मित मानव निर्मित क्लोरीन है। नई रिसर्च के लेखक बारोनी ने कहा कि वैश्विक वातावरण में अधिक परमाणु क्लोरीन -36 नहीं है। यही कारण है कि हमें प्राकृतिक क्लोरीन -36 के स्तर का हर जगह निरीक्षण करना चाहिए।

अमेरिका ने किया था परमाणु परीक्षण 

अमेरिका ने 1946 और 1962 के बीच पैसिफिक प्रोविंग ग्राउंड्स में परमाणु परीक्षण किया था जिससे ऐसी प्रतिक्रियाएं हुईं थी। इन्हीं से क्लोरीन -36 उत्पन्न हुई। जब ये परीक्षण किया गया उसके बाद गैसें पैदा हुई, ये पूरे वायुमंडल में घूमती रही मगर जब कुछ गैस अंटार्कटिका पहुंची, यह अंटार्कटिका की बर्फ पर जमा हो गई और तब से ग्लेशियरों के पिघलने का सिलसिला जारी है।  

समुद्री परमाणु बम परीक्षणों से रेडियोएक्टिव क्लोरीन 

रशियन वोस्तोक रिसर्च स्टेशन के वैज्ञानिकों का कहना है कि 1950 और 1960 के समुद्री परमाणु बम परीक्षणों से रेडियोधर्मी क्लोरीन निकलने का सिलसिला जारी है। विशेषज्ञों ने कहा कि इन गैसों को रोकने के लिए जो राशि भी जारी की जा रही है वो इसको रोकने की दिशा में किए जाने वाले काम के लिए बहुत ही कम है। 

1.5 मिलियन साल पुराना आइस कोर 

बारोनी ने कहा कि वर्तमान में अंटार्कटिक में 1.5 मिलियन वर्ष पुराने आइस कोर के लिए ड्रिल करने की योजना बनाई जा रही है। इसको ड्रिल करने के बाद वैज्ञानिक इस बात का पता लगा सकेंगे कि आखिर ग्लेशियर के पास ये मानव निर्मित क्लोरीन -36 जमा हुआ है। जिसकी वजह से ग्लेशियर पिघल रहे हैं।  


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.