पढ़ें क्या है रोहिंग्या मुसलमानों का इतिहास और क्यों खड़ा हुआ इतना बड़ा बवाल
म्यांमार की रोहिंग्या समस्या से जहां भारत और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों पर असर पड़ रहा है, वहीं संयुक्त राष्ट्र में भी यह मुद्दा छाया हुआ है। आइए जानतें हैं कौन हैं रोहिंग्या।
नई दिल्ली, [स्पेशल डेस्क]। रोहिंग्या मुसलमान विश्व के सबसे अल्पसंख्यक समुदायों में से एक हैं। ऐतिहासिक रूप से इन्हें अरकानीज इंडियन भी कहा जाता है। म्यांमार में इनकी आबादी करीब दस लाख के आसपास है। रोहिंग्या मुस्लिमों के पास दुनिया में अपना कोई मुल्क नहीं है। इंडो-आर्यन मूल के रोहिंग्या बौद्ध बहुल देश म्यांमार के रखाइन प्रांत में सदियों से रह रहे हैं। बीते दिनों म्यांमार में हुई हिंसा में रोहिंग्या मुसलमानों के मारे जाने के बाद पूरे विश्व की नजरें इस ओर गई। आइए जानते हैं आखिर रोहिंग्या हैं कौन?
रोहिंग्या सिर्फ मुसलमान नहीं...
यहां गौर करने वाली बात यह है कि रोहिंग्या सिर्फ मुस्लिम ही नहीं हैं। हिंदू भी रोहिंग्या हैं। रोहिंग्याओं में भी मुस्लिम बहुसंख्यक और हिंदू अल्पसंख्यक हैं। इस बारे में दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. सुजीत कुमार बताते हैं कि दरअसल 1826 के बाद अंग्रेज पूर्वी बंगाल से लोगों को अराकान लेकर गए तो उनमें हिंदू भी थे और मुस्लिम भी। आम तौर पर इस प्रांत में रहने वाले सभी लोगों को रोहिंग्या कह दिया जाता है। इसलिए रोहिंग्या जनसंख्या में हिंदुओं की भी गिनती होती है।
1982 के बर्मीज सिटिजनशिप लॉ के तहत रोहिंग्याओं को म्यांमार की नागरिकता देने से इनकार कर दिया गया। रोहिंग्याओं के अनुसार वह अंग्रेजों के आगमन से पहले और बाद में भी पश्चिमी म्यांमार में रहते आए हैं, जबकि म्यांमार की सरकार उन्हें अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिए बताती है।
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स्टेटलेस हैं रोहिंग्या
डॉ. सुजीत ने Jagran.Com से बात करते हुए बताया कि क्यों रोहिंग्या लोगों को स्टेटलेस पीपल कहा जाता है। उन्होने बताया कि दरअसल यह लोग नदियों या समुद्र के किनारे पानी में झोपड़ी बनाकर रहते हैं। यह जमीन पर बहुत कम ही रहते हैं।
1962 के बाद बढ़ी रोहिंग्याओं की समस्या
डॉ. सुजीत ने Jagran.Com को बताया कि 1962 से पहले रोहिंग्या समस्या नहीं थी। 1948 में म्यांमार के आजाद होने के बाद वहां के पहले राष्ट्रपति ने रोहिंग्याओं को देश का मूल नागरिक माना था। लेकिन 1962 में सैन्य शासन आने के बाद रोहिंग्याओं की जिंदगी बदल गई। सैन्य शासन ने स्थानीय लोगों की भावनाओं को भड़काने के लिए रोहिंग्याओं के खिलाफ बोलना शुरू किया। इससे लोगों को एक मुद्दा भी मिल गया और क्रूर सैन्य शासन के खिलाफ आवाज उठने की गुंजाइश भी खत्म हो गई।
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ऐसा है रोहिंग्या का इतिहास
डॉ. सुजीत कुमार ने बताया कि रोहिंग्या 14वीं सदी से ही म्यांमार में रह रहे हैं। 1826 में म्यांमार और तत्कालीन ब्रिटिश इंडियन सरकार के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध में म्यांमार हार गया और उनके इलाकों पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। उस समय अंग्रेजों ने बांग्लादेश (पूर्वी बंगाल) से लोगों को रखाइन में बसाया। म्यांमार के लोग आज भी मानते हैं कि ब्रिटिश सरकार ने रोहिंग्याओं को वहां बसाया था, इसलिए वे म्यांमार के मूल निवासी नहीं हैं। म्यांमार ने 1986 में एक कानून बना दिया, जिसके अनुसार 1823 से पहले जो वहां रह रहे थे, उन्हीं को म्यांमार का मूल निवासी माना गया। रखाइन के मूल निवासियों, आदिवासियों को भी म्यांमार का नागरिक माना गया, रोहिंग्या भी इस तरह से वहां के मूल निवासी हैं। लेकिन रोहिंग्याओं को नागरिकता नहीं दी गई।
अल्लाह के बंदे थे कभी, अब भटक रहे दर-दर
रुईंगा और रवांग्या से आधुनिक रोहिंग्या शब्द की उत्पत्ति हुई है। लगता है, अराकान राज्य के लिए इस्तेमाल होने वाले अन्य शब्दों रखांगा या रोशांगा से रोहिंग्या शब्द निकला है। रोहिंग्या का शाब्दिक अर्थ है रोहांग के निवासी। माना जाता है कि रोहांग शब्द भी अरबी भाषा के रहम से बना है और अराकान के मुस्लिम खुद को अल्लाह के बंदे (खुदा के आशीर्वाद वाले लोग) कहते थे।
उर्दू इनकलाब के संपादक शकील हसन शम्सी ने बताया कि रोहिंग्या मुस्लिमों के साथ म्यांमार के बहुसंख्य बौद्धिक लोगों की समस्या काफी पुरानी है और कई सालों से दोनों के बीच संघर्ष चलता आ रहा है। रोहिंग्या मुसलमानों की स्थिति दयनीय उस वक्त हुई जब म्यांमार की सरकार ने वहां उनकी नागरिकता खत्म कर दी। ऐसे में ये अपने देश में होते हुए भी अपने नहीं है। यानि, अपना देश ही इन्हें अपनाने को तैयार नहीं है।
2014 से 16 के बीच सिर्फ 10 हजार को नागरिकता
म्यांमार में साल 2014 से 2016 के बीच सिर्फ 10 हजार रोहिंग्याओं को देश की स्थायी नागरिकता दी गई। कानून के अनुसार रोहिंग्याओं को म्यांमार की नागरिकता मिलनी चाहिए, लेकिन जातीय भेदभाव के कारण उन्हें नागरिकता नहीं मिलती। जबकि रोहिंग्या को वहां नागरिक अधिकार नहीं दिए जाते हैं। शिक्षा से लेकर नौकरियों में भी रोहिंग्याओं के साथ भेदभाव होता है।