पहले से ज्यादा आग उगल रहा सूरज, अब भी न चेते तो नामो-निशान मिट जाएगा
धरती के लगातर बढ़ते तापमान ने लोगों का जीवन मुहाल कर दिया है। बढ़ते तापमान का असर भी दिखने लगा है। गर्मी से मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है।
नई दिल्ली, [स्पेशल डेस्क]। धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है और दुनियाभर के लोग इसको लेकर चिंतित हैं। इसके दुष्प्रभाव भी देखने को मिल रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग का असर हमारे मौसम चक्र पर भी पड़ा है, जिसके कारण अब पहले की अपेक्षा अब ज्यादा गर्मी और ज्यादा समय तक पड़ती है। ऐसे में चिलचिलाती धूप और उमस में लोगों का जीना मुहाल हो जाता है। इस साल लू से लोगों के मारे जाने की खबरें दुनिया के कई हिस्सों से आईं। अगर पृथ्वी का तापमान ऐसे ही बढ़ता रहा तो आने वाले समय में लू से मरने वालों की संख्या में इजाफा होगा, जो बेहद चिंताजनक है।
पृथ्वी एवं विज्ञान मंत्रालय के अनुसार, अपने देश में 2013 से 2016 के बीच 4,620 लोगों की मौत लू लगने के कारण हुई। साल 2017 में हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान का कराची शहर लू से 65 लोगों की मौत की वजह से सुर्खियों में आ गया। दूसरी तरफ जापान में इस साल लू के कारण सरकार को प्राकृतिक आपदा तक घोषित करनी पड़ी। जापान में लू के कारण 30 हजार से ज्यादा लोगों को अस्पतालों में भर्ती कराना पड़ा।
जिंदगी पर भारी पड़ेगा लगातार बढ़ता तापमान
हाल ही में शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि पेरिस समझौते के तहत पृथ्वी के बढ़ते तापमान को रोकने के लिए अगर निर्धारित लक्ष्यों को हासिल नहीं किया गया तो बढ़ता तापमान हमारी जिंदगी पर भारी पड़ेगा। आने वाले समय में बढ़ते तापमान से मरने वाले लोगों की संख्या और बढ़ेगी। यह हाल ही में स्प्रिंगर जनरल में छपे एक शोध में बताया गया है।
आपको याद ही होगा 2015 के पेरिस समझौते के तहत सभी देशों ने विश्व के औसत तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का लक्ष्य रखा था। जिससे कि जलवायु परिवर्तन के जोखिम और प्रभाव को कम किया जा सके। इसके साथ ही सभी देशों से तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने को कहा गया था।
लंदन स्कूल ऑफ हाइजीन एंड ट्रॉपिकल मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने वैश्विक तापमान का स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव पर अध्ययन किया है। यह अपनी तरह का पहला शोध है, जिसमें पेरिस समझौते के लक्ष्यों को ध्यान में रखकर शोध किया गया।
मौत का आंकड़ा लगातार बढ़ता जाएगा
शोधकर्ताओं की टीम ने सबसे पहले दुनिया के उन 23 देशों के 451 जगहों के डाटा का अध्ययन किया, जहां पर तापमान में बदलाव के कारण मौतें हुई थीं। जब 3 से 4 डिग्री सेल्सियस बढ़े तापमान और 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़े तापमान के कारण हुई मौतों के आकंड़ों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया तो परिणाम चौंकाने वाले रहे। उन पूरे क्षेत्रों में बढ़ते तापमान से होने वाली मौतों में +0.73 फीसद से +8.86 फीसद की बढ़ोतरी देखी गई। अधिकतर क्षेत्रों में मरने वालों की संख्या का कुल अंतर ज्यादा और बढ़ा हुआ है।
शोधकर्ताओं ने जब 2 डिग्री सेल्सियस और 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़े तापमान वाले क्षेत्रों का तुलनात्मक अध्ययन किया तो तस्वीर और जटिल हो गई। दक्षिण अमेरिका, दक्षिण यूरोप और दक्षिण-पूर्व एशिया जैसे गर्म क्षेत्रों में भी बढ़ते तापमान से मरने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि देखने को मिली। वहीं, ठंडे क्षेत्रों में तापमान में बदलाव के कारण होने वाली मौतों की संख्या पहले जैसी ही थी या फिर उसमें कमी देखने को मिली।
तापमान बढ़ने का असर होगा भयानक
इस शोध की पहली लेखिका अन्ना मारिया विकेडो-कैब्रेरा का कहना है कि हमारे शोध से पता चलता है कि अगर तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखा जाए तो लू के कारण मरने वालों लोगों की संख्या को सीमित किया जा सकता है। कम किया जा सकता है। उनका कहना है कि जलवायु में बहुत बड़े बदलावों के कारण विश्व के कई हिस्सों में लू से मरने वालों की संख्या में बड़ा इजाफा देखा जा सकता है। सर्दी से मरने वालो की संख्या में होने वाली कमी से इसको संतुलित नहीं किया जा सकता। कैब्रेरा का मानना है कि अगर हम अपने प्रयासों से तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने में कामयाब होते हैं तो इसका फायदा अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण एशिया में देखने को मिलेगा।
ये खतरा भी कम नहीं
ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं और पिछले कुछ सालों में इनकी पिघलने की रफ्तार और भी तेज हो गई है। जी हां अब तक कहा जा रहा था कि हमारे ग्लेशियर धीमी मौत मर रहे हैं, लेकिन अब जानकारी मिल रही है कि असल में यह रफ्तार काफी तेज है। डराने वाले आंकड़े यह हैं कि 1975 से 2012 के बीच आर्कटिक बर्फ की मोटाई 65 फीसद घटी है। 1979 के बाद प्रत्येक दशक में आर्कटिक की बर्फ घटने की दर 2.8 फीसद रही है।
2040 तक ही टिकेगी आर्कटिक की बर्फ
ग्लोबल वार्मिंग के कारण तीन दशकों में आर्कटिक पर बर्फ का क्षेत्रफल करीब आधा हो गया है। आर्कटिक काउंसिल की ताजा रिपोर्ट ‘स्नो, वॉटर, आइस, पर्माफ्रॉस्ट इन द आर्कटिक’ (स्वाइपा) के मुताबिक 2040 तक आर्कटिक की बर्फ पूरी तरह पिघल जाएगी। पहले अनुमान लगाया जा रहा था कि यह बर्फ 2070 तक खत्म होगी, लेकिन असामान्य और अनियमित मौसम चक्र की वजह से यह जल्दी पिघल जाएगी। पर्यावरणविदों के अनुसार आर्कटिक की बर्फ पिघलने से पृथ्वी के वातावरण में भयावह परिवर्तन आ सकते हैं। यह रिपोर्ट अंतरराष्ट्रीय पत्रिका द इकोनॉमिस्ट में पिछले साल प्रकाशित हुई थी।
ऐसा भी असर पड़ेगा
आर्कटिक में पर्माफ्रॉस्ट (बर्फ से ढकी मिट्टी की परत) में बड़ी मात्रा में जैव पदार्थ मौजूद हैं। बर्फ के पिघलने से यह पदार्थ गर्मी में जलकर कार्बनडाइ ऑक्साइड या मीथेन के रूप में वातावरण में घुल जाएंगे। इससे ग्लोबल वार्मिंग और तेज होगी।
डूब के खतरे में प्रमुख शहर
आर्कटिक घेरे में स्थित ग्रीनलैंड के बर्फ क्षेत्र में पृथ्वी का दस फीसद मीठा पानी है। अगर वहां की बर्फ पिघलती है तो समुद्र का स्तर इस सदी के अंत तक 74 सेमी से भी अधिक बढ़ जाएगा, जो खतरनाक साबित हो सकता है। इससे मुंबई, चेन्नई, मेलबर्न, सिडनी, केपटाउन, शांघाई, लंदन, लिस्बन, कराची, न्यूयार्क, रियो-डि जनेरियो जैसे दुनिया के तमाम खूबसूरत और समुद्र के किनारे बसे शहरों को खतरा हो सकता है। बता दें कि समुद्र का पानी बर्फ के मुकाबले गहरे रंग का होता है। ऐसे में यह ज्यादा गर्मी सोखता है। आर्कटिक पर जितनी ज्यादा बर्फ पिघलेगी, उतना ही अधिक पानी गर्मी को सोखेगा, जिससे बर्फ पिघलने की रफ्तार और भी ज्यादा बढ़ जाएगी।
भारत पर पड़ेगा ऐसा असर
आर्कटिक की बर्फ पिघलने से समुद्र के प्रवाह पर भी असर पड़ेगा। इससे प्रशांत महासागर में अल नीनो का असर तेज होने के साथ भारतीय मानसून भी प्रभावित होगा। ऐसा नहीं है कि सिर्फ आर्कटिक की ही बर्फ तेजी से पिघल रही है। अंटार्कटिक की बर्फ पिघलने की रफ्तार भी काफी तेज है। ऐसा होने से हिंद महासागर का तापमान भी बढ़ेगा, जो भारत में मानसून की रफ्तार प्रभावित करेगा।