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अफगानी महिलाओं के साथ राष्ट्रपति अशरफ गनी भी शांति वार्ता को लेकर नाराज, ये है वजह

अफगानिस्‍तान से अपनी सेनाओं की वापसी को लेकर अमेरिका कुछ भी कर गुजरना चाहता है। फिर चाहे वह आतंकियों को भी सत्ता में भागीदारी दिलाने की बात ही क्‍यों न हो।

By Kamal VermaEdited By: Published: Fri, 08 Feb 2019 01:53 PM (IST)Updated: Fri, 08 Feb 2019 01:53 PM (IST)
अफगानी महिलाओं के साथ राष्ट्रपति अशरफ गनी भी शांति वार्ता को लेकर नाराज, ये है वजह
अफगानी महिलाओं के साथ राष्ट्रपति अशरफ गनी भी शांति वार्ता को लेकर नाराज, ये है वजह

नई दिल्‍ली [जागरण स्‍पेशल]। अफगानिस्‍तान में शांति स्‍थापना को लेकर आतंकी संगठन तालिबान से मास्‍को में चल रही वार्ता पर सभी की निगाहें लगी हुई हैं। वहीं दूसरी तरफ इस वार्ता से अफगानी महिलाएं डरी-सहमी हैं।तालिबानी हुकूमत के वापस आने की आशंका में अफगानिस्‍तान की महिला सांसदों ने खुलेतौर पर शांतिवार्ता को गलत करार दिया है। इन महिला सांसदों का कहना है कि उन्‍हें अपनी आजादी और आबरू की कीमत पर शांति नहीं चाहिए। वे इसलिए भी खौफजदा हैं, क्‍योंकि तालिबान के शासनकाल में कई महिला सांसदों ने उनका जुल्‍म सहा है। लिहाजा वे दोबारा उस दौर को नहीं जीना चाहती हैं। हालांकि अफगानिस्‍तान में सत्‍ता में आने को व्‍याकुल तालिबान फिलहाल महिलाओं पर पूर्व में लगाए प्रतिबंधों में ढील देने पर राजी हो गया है। मास्‍को में हुई वार्ता के दौरान तालिबान पदाधिकारियों के साथ-साथ अफगानी महिला प्रतिनिधि और अफगान प्रतिनिधियों के सामने यह वादा किया है। इस वार्ता की सबसे बड़ी चीज तो ये है कि इसमें जहां काबुल सरकार को बाहर रखा गया है। वहीं अफगानिस्‍तान के पूर्व राष्‍ट्रपति हामिद करजई को इसमें शामिल किया गया है।

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नाराज हैं राष्‍ट्रपति गनी
इस बात से खफा अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने कहा है कि उनकी सरकार के शामिल हुए बगैर कोई भी शांति समझौता सफल नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि किसी भी शांति वार्ता के आखिर में उनकी सरकार ही फैसला लेगी। दुनिया की कोई भी ताकत सरकार भंग नहीं कर सकती। कोई भी हमें दरकिनार नहीं कर सकता। मास्‍को में जारी इस शांति वार्ता में तालिबान ने यहां तक कहा है कि वह सत्‍ता पर एकाधिकार की मांग नहीं करेंगे। इसके अलावा उन्‍होंने शांतिवार्ता के दौरान देश में समग्र इस्लामिक प्रणाली और नए इस्लाम आधारित संविधान की मांग की है। इससे पहले इन प्रतिनिधियों की मुलाकात दोहा में हुई थी, वहां पर भी अफगानिस्‍तान के राष्‍ट्रपति अशरफ गनी को नहीं बुलाया गया था।

वर्षों से युद्ध की मार झेल रहा अफगानिस्‍तान
आपको बता दें कि अफगानिस्‍तान वर्षों से युद्ध की मार झेल रहा है। बीते 17 वर्षों से जारी युद्ध को समाप्त कर शांति स्‍थापित करने के लिए यह वार्ता हो रही है। इस वार्ता का एक दूसरा पहलू ये भी है कि अमेरिका अपनी फौज को सीरिया और अफगानिस्‍तान से वापस बुला रहा है। इसके लिए वह अब अफगानिस्‍तान को उनके ही लोगों के हवाले करना चाहता है। आपको यहां पर याद दिला दें कि अमेरिकी राष्‍ट्रपति डोनाल्‍ड ट्रंप ने सत्‍ता संभालने के बाद कहा था कि अमेरिका पूरे विश्‍व की चौकीदारी नहीं कर सकता है। इसलिए वह किसी भी ऐसी जगह अपने को व्‍यस्‍त नहीं रखना चाहता है, जहां उसको कोई फायदा नहीं है। अफगानिस्‍तान और सीरिया में वर्षों से मौजूद अमेरिकी सेना की तैनाती पर ट्रंप ने पूर्व की सरकारों को भी जमकर लताड़ा था।

विरोधाभासी बयान
मास्‍को में हुई शांति वार्ता के बाद दो विरोधाभासी बयान सामने निकलकर आए हैं। इसमें एक से एक में तालिबान के राजनीतिक कार्यालय के उप प्रमुख अब्दुल सलाम हनेफी ने दावा किया कि अमेरिका फौरन अपनी सेना को अफगानिस्‍तान से वापसी पर रजामंद हो गया है। यह प्रक्रिया फरवरी से अप्रैल तक जारी रहेगा। इसके बाद अमेरिकी वार्ताकार जाल्मय खलीलजाद ने तालिबान के इस दावे का साफतौर पर खंडन किया और कहा कि अमेरिका की ऐसी कोई योजना नहीं है। इसके अलावा उन्‍होंने ये भी साफ कर दिया कि जबतक सभी पर सहमति नहीं बन जाती तबतक किसी पर सहमति नहीं है। हर चीज में अनिवार्य रूप से अंतत:-अफगान वार्ता और समग्र संघर्ष विराम शामिल होना चाहिए। खलीलजाद के बयान की पुष्टि ट्रंप के उस बयान से भी होती है जिसमें उन्‍होंने कहा था कि यदि शांति वार्ता सफल रही तो अफगानिस्‍तान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या कम की जाएगी।

बन सकती है गले की फांस
इस शांति वार्ता को लेकर माना ये भी जा रहा है कि कहीं ये अफगानिस्‍तान के लिए गले की फांस न बन जाए। इसको लेकर कुछ सवाल ऐसे हैं जिनमें जवाब सामने आना बाकी है। इसमें पहला सवाल तो ये ही है कि तालिबान की सत्ता में वापसी को विश्‍व की कितनी सरकारें मान्‍यता दे सकेंगी। दूसरा सवाल है कि महिलाओं को लेकर तालिबान ने जो बातें कही हैं वह जमीनी हकीकत बनेंगी या नहीं। तीसरा सवाल ये है कि तालिबान की जो छवि विश्‍व मंच पर बनी हुई है वह बदलेगी भी या नहीं। चौथा सवाल ये है कि सत्‍ता में भागीदारी या बाहर रहते हुए भी कहीं तालिबान सरकार से बड़ा तो नहीं हो जाएगा। पांचवां और अंतिम सवाल ये है किसी आंतकी संगठनों की सरकार में सहभागिता आखिर कितनी जायज है। 

क्‍या है तालिबान
तालिबान की बात करें तो इसकी गिनती दुनिया के सबसे क्रूरतम शासन से की जा सकती है। 90 के दशक में तालिबान का उदय उस वक्‍त हुआ था जब अफगानिस्‍तान से सोवियत संघ की सेना वापस जा रही थी। उस वक्‍त लोगों को देश में शांति स्‍थापित होने की उम्‍मीद थी। यही वजह थी कि उन्‍होंने शुरुआती दौर में तालिबान का स्‍वागत भी किया। इसकी एक वजह ये भी थी कि सोवियत संघ की सेना की वापसी के बाद से वहां पर कई छोटे-छोटे गुट बन गए थे। इसकी वजह से वहां पर गृहयुद्ध छिड़ने की आशंका बढ़ गई थी। यही वजह थी कि तालिबान से लोगों को काफी उम्‍मीद थी। धार्मिक आयोजनों और मदरसों के जरिए अफगानिस्‍तान में अपनी जड़ें मजबूत करने वाले तालिबान को सऊदी अरब से फंडिंग की जाती थी।

तीन देशों ने दी थी तालिबान शासन को मान्‍यता
आपको यहां बता दें कि तालिबान पश्तो भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ज्ञानार्थी या ऐसे छात्र, जो इस्लामिक कट्टरपंथ की विचारधारा पर यकीन करते हैं। तालिबान इस्लामिक कट्टपंथी राजनीतिक आंदोलन हैं। इसकी सदस्यता पाकिस्तान तथा अफगानिस्‍तान के मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों को मिलती है। अपने शुरुआती दौर में तालिबान ने भ्रष्ट्राचर, अव्यवस्था पर अंकुश लगाया और अपने नियंत्रण में आने वाले इलाकों को सुरक्षित बनाया। 1995 में तालिबान ने ईरान सीमा से लगे हेरात प्रांत पर कब्‍जा कर लिया। 1996 में तालिबान ने बुरहानुद्दीन रब्बानी सरकार को सत्ता से हटाकर अफगागनिस्‍तान की राजधानी काबुल पर कब्‍जा कर लिया। 1997 के अंत तक तालिबान ने अफगानिस्‍तान के करीब 90 फीसद हिस्‍से पर कब्‍जा कर लिया था। तालिबान के पूरे शासनकाल में उसको केवल केवल तीन देशों ने मान्यता दी थी। इसमें पाकिस्तान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब शामिल था।

अफगानिस्‍तान में तालिबानी शिकंजा
तालिबान ने 2001 में अफगानिस्‍तान के बामियान में चट्टान काटकर बनाई गई प्रतिमा को तुड़वा दिया था। इसके बाद मानवाधिकार उल्‍लंघन के भी कई आरोप तालिबान पर लगे। जैसे-जैसे अफगानिस्‍तान में तालिबान ने जड़ें मजबूत की वैसे-वैसे महिलाओं के अधिकारों पर शिकंजा कसना भी शुरू कर दिया। इस्‍लामिक कानून के तहत कई लोगों को खुलेआम खौफनाक सजा दी गई। पुरुषों को दाढ़ी रखना अनिवार्य कर दिया गया। तालिबान के शासन में टीवी, सिनेमा देखने के अलावा संगीत पर भी शिंकजा कस दिया। लड़कियों के खुले में खेलने पर पाबंदी थी। 2001 में ही तालिबान पर ओसामा बिन लादेन और अल कायदा को शरण देने का भी आरोप लगा। यह वही दौर था जब अमेरिका ने अफगानिस्‍तान में तालिबान पर हमले शुरू किए थे। 23 अप्रैल 2013 को तालिबान के सबसे बड़े नेता मुल्‍ला उमर को अमेरिका ने खत्‍म कर दिया था। आपको यहां पर बता दें कि तालिबान एक समय में आतंकी संगठन आईएस का भी सहयोगी रह चुका है। मुल्‍ला उमर की मौत के बाद तालिबान का एक धड़ा खुलेतौर पर आईएस के साथ चला गया था।

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