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100 साल पुरानी पेटिंग असली है या नकली, ऐसे करें पहचान

1963 में परमाणु परीक्षणों पर आंशिक प्रतिबंध को लेकर हुए वैश्विक समझौते से पहले के दशक में दुनिया में बहुत बड़े पैमाने पर परमाणु परीक्षण हुए थे।

By Vinay TiwariEdited By: Published: Wed, 12 Jun 2019 06:00 PM (IST)Updated: Wed, 12 Jun 2019 06:00 PM (IST)
100 साल पुरानी पेटिंग असली है या नकली, ऐसे करें पहचान
100 साल पुरानी पेटिंग असली है या नकली, ऐसे करें पहचान

वाशिंगटन [न्यूयार्क टाइम्स]। यदि आप पेटिंग खरीदने के शौकीन है और पुरानी पेटिंगों को मुंहमांगे दाम पर खरीदते हैं तो आपको उसकी सत्यता की भी जांच करनी चाहिए। वैज्ञानिकों ने एक ऐसी तकनीक खोजी है जिसके आधार पर वो ये आसानी से पता लगा लेते हैं कि पेटिंग कितने साल पुरानी है, वो पुरानी है भी या बेचने वाला झूठ बोल रहा है। वैज्ञानिकों ने पिछली सदी में सतह पर हुए ढेरों परमाणु परीक्षणों के चलते परेशानी का सबब बने रेडियोएक्टिव प्रदूषण से पेंटिंग्स की दुनिया में चल रही जालसाजी का पता लगाने का नया तरीका ईजाद किया है।

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दरअसल 1963 में परमाणु परीक्षणों पर आंशिक प्रतिबंध को लेकर हुए वैश्विक समझौते से पहले के दशक में दुनिया में बहुत बड़े पैमाने पर परमाणु परीक्षण हुए थे। इन परीक्षणों के कारण वातावरण में रेडियोएक्टिव प्रदूषण बढ़ गया था। अब उस दौर में बढ़े हुए प्रदूषण को ही वैज्ञानिकों ने असली-नकली पेंटिंग्स का पता लगाने का माध्यम बना लिया है। 

क्या कहता है ये विज्ञान?
वैज्ञानिकों का कहना है कि हर जीव में एक निश्चित अनुपात में कार्बन के तीन प्रकार के परमाणु सी12, सी13 और सी14 पाए जाते हैं। इनमें से सी12 और सी13 स्थिर रहते हैं, जबकि सी14 यानी कार्बन14 रेडियोएक्टिव है। जैसे ही जीव की मृत्यु होती है, उसके शरीर में से सी14 परमाणु कम होने लगता है। सी14 के नष्ट होने की एक निश्चित गति है। इसी को आधार बनाकर किसी जीवाश्म में सी14 के अनुपात का आकलन करते हुए वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि वह जीवाश्म लगभग कितने साल या सदी पुराना होगा। इस तकनीक को कार्बन डेटिंग कहा जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि कार्बन डेटिंग पेड़-पौधों और सभी जीवों पर की जा सकती है।

परीक्षणों से बदला अनुपात

पिछली सदी में हुए परमाणु परीक्षणों के कारण वातावरण में कार्बन14 का स्तर बढ़ने लगा था। 1963 में परमाणु परीक्षण पर आंशिक रोक का समझौता होने तक वातावरण में इसका स्तर लगभग दोगुना हो गया था। 1963 के बाद पैदा हुए या मरे हुए हुर जीव में इस बढ़े हुए स्तर को देखा जा सकता है। यहां तक कि कैनवस बनाने में इस्तेमाल होने वाली लकड़ियों और फाइबर में भी यह अंतर स्पष्ट है। शोधकर्ता लौरा हेंडरिक ने कहा कि इस सर्वोच्च स्तर को अनोखे मानक की तरह अपनाया जा सकता है। यह अच्छी चीज तो नहीं है लेकिन फिलहाल कुछ अच्छे कामों में इसका इस्तेमाल संभव है।


कैसे करते हैं जांच?
किसी पेंटिंग को बनाने में कैनवस का इस्तेमाल होता है। इसके अलावा उसकी बाइंडिंग में और रंगों को घोलने के लिए कई तरह के तेल आदि भी प्रयोग में लाए जाते हैं। ये सभी वस्तुएं कार्बनिक हैं यानि इनमें कार्बन14 का स्तर मापा जा सकता है। अगर पेंटिंग में इस्तेमाल कैनवस 1963 के बाद बना होगा, तो कार्बन14 की बढ़ी हुई मात्रा का आसानी से पता लग जाएगा। अगर जालसाज ने कहीं से पुराने कैनवस का इंतजाम कर लिया होगा, तब भी बाइंडिंग में इस्तेमाल तेल व अन्य कार्बनिक पदार्थो की मदद से इसका पता चल जाएगा कि पेंटिंग 1963 से पहले बनी है या उसके बाद। इस तरह से किसी के भी दावे को चेक किया जा सकता है।

पकड़े गए हैं कई जालसाज
इस तकनीक की मदद से अमेरिका में रॉबर्ट ट्रोटर नाम के पेंटर को पकड़ा गया था। 1985 से 1990 के बीच उसने कई पेंटिंग्स बनाई और उन्हें 100 साल पुराना बताकर बेच दिया। कई लोगों ने पुरानी और खास पेटिंग समझकर उसे खरीद लिया। जब एक ग्राहक को इस पर संदेह हुआ तो जांच में पेंटर की जालसाजी सामने आ गई इससे पहले इटली में भी इस तरह का मामला सामने आ चुका है।

खत्म होती जा रहा कार्बन 14
वातावरण में कार्बन14 का बढ़ा हुआ स्तर धीरे-धीरे सामान्य हो रहा है। कुछ साल में स्थिति फिर परमाणु परीक्षण से पहले जैसी ही हो जाएगी।

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