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भारत हो या चीन, उ.कोरिया हो या द.कोरिया;जानें ट्रंप क्यों अपना रहे हैं दोहरा रवैया

भारत से गहरी दोस्ती,पर चीन से तनिक मात्र भी मित्रता न घटाना अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की दोहरी चाल ही कही जाएगी।

By Lalit RaiEdited By: Published: Mon, 11 Dec 2017 10:30 AM (IST)Updated: Mon, 11 Dec 2017 05:56 PM (IST)
भारत हो या चीन, उ.कोरिया हो या द.कोरिया;जानें ट्रंप क्यों अपना रहे हैं दोहरा रवैया
भारत हो या चीन, उ.कोरिया हो या द.कोरिया;जानें ट्रंप क्यों अपना रहे हैं दोहरा रवैया

नई दिल्ली [सुशील कुमार सिंह] । इस साल जनवरी में राष्ट्रपति बनते ही डोनाल्ड ट्रंप ने सात मुस्लिम बाहुल्य देशों के नागरिकों के अमेरिका में प्रवेश पर पाबंदी लगा दी। इनमें ईरान, यमन, सोमालिया, लीबिया, सीरिया जैसे देश शामिल हैं। उस दौरान व्हाइट हाऊस से यह भी संकेत मिल रहा था कि प्रतिबंधों की सूची में पाकिस्तान को भी शामिल किया जा सकता है और इसकी एक बड़ी वजह पाकिस्तान का आतंकियों को शरण देना माना जा रहा था। हालांकि अभी तक ऐसा नहीं हुआ है परन्तु जिस तरह पाकिस्तान आतंक की राह पकड़े हुए है और ट्रंप की धमकी जारी है, उससे साफ है कि पाक पर प्रतिबंध लग सकता है।

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ट्रंप की दोहरी नीति के मायने
इन सबके बावजूद सवाल है कि मुस्लिम देशों पर प्रतिबंध लगाने से किसकी इच्छा पूरी हुई। इसे अमेरिका की इच्छाओं की पूर्ति माना जाए या फिर ट्रंप की दबी हुई आकांक्षा की भरपाई। फिलहाल अमेरिका की सर्वोच्च अदालत ने करीब 11 माह पुराने ट्रंप के फैसले पर अपनी मोहर लगाकर उनकी आकांक्षा को पूरा कर दिया है। खास यह भी है कि निचली अदालतों में अमेरिका में उक्त मुस्लिम देश के नागरिकों के प्रवेश को ट्रंप की मुस्लिम विरोधी नीतियों का हिस्सा बताकर खारिज कर दिया गया था परंतु अब अमेरिका की शीर्ष अदालत के फैसले से प्रतिबंध पुख्ता हो गया है। गौरतलब है कि एक्शन और रिएक्शन के बीच ट्रंप के इस निर्णय को ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी से लेकर इंडोनेशिया तक में खूब आलोचना हुई थी। जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने तो यहां तक कहा था कि आतंक के खिलाफ वैश्विक लड़ाई का यह मतलब नहीं कि किसी देश के नागरिकों को आने पर ही प्रतिबंध लगा दिया जाए। उन्होंने जेनेवा समझौते की याद भी उन दिनों दिलाई थी पर इसका असर न तब हुआ था और न अब।

ट्रंप के फैसले और विवाद
ट्रंप का यह फैसला शुरू से ही विवादों में घिरा था। सत्ता पर काबिज होते ही जारी आदेश को बाद में वापस भी लेना पड़ा और कुछ संशोधनों के साथ जो दूसरे आदेश भी आए। जिस आदेश पर अमेरिका की शीर्ष अदालत ने अपनी मोहर लगाई है वह आदेश का तीसरा प्रारूप है। जाहिर है ट्रंप की अति महत्वाकांक्षा यदि यह थी कि ईरान, सोमालिया, सीरिया तथा लीबिया जैसे देशों पर प्रतिबंध हो तो वह मूल फैसला नहीं बल्कि संशोधित फैसला है और इस पर भी रिचमंड, वर्जीनिया एंड सैन फ्रांस्सिको और कैलिफोर्निया की शीर्ष अदालतों में चुनौती मिली जहां फैसले की समीक्षा जारी है। इन्हीं अदालतों में फैसले को ट्रंप के मुस्लिम विरोधी रवैये के तौर पर देखा जा रहा है। दरअसल ट्रंप राष्ट्रपति के चुनाव के अपने अभियानों में इस बात का गाहे-बगाहे उल्लेख करते थे कि सत्ता में आने पर कुछ इस प्रकार के निर्णय लेंगे। भले ही ट्रंप राष्ट्रीय सुरक्षा का बताकर और आतंक की बात कह कर प्रतिबंध वाले अपने निर्णय को सही साबित कर दिया हो पर ऐसे फैसले की गंभीरता पर सवाल उठने लाजमी हैं क्योंकि इससे दुनिया कई खेमों में बंट सकती है और आतंक की लड़ाई से लेकर जलवायु परिवर्तन की समस्या से जूझ रही दुनिया को झटका भी लग सकता है।

अमेरिकी फायदे से जुड़े हैं ट्रंप के फैसले
गौर करने वाली बात यह भी है कि अमेरिका ने आतंकवाद के नाम पर कुछ देशों के नागरिकों पर पाबंदी तो लगाई पर इसमें वही मुस्लिम देश शामिल हैं जहां से अमेरिका के व्यापारिक हित आड़े नहीं आते। वैसे फैसले में भी कई खामियां व झोल दिखाई देते हैं। प्रतिबंध की जद में जो देश हैं उन सभी पर यह समान रूप से लागू होता नहीं दिखाई देता। यहां बताते चलें कि उत्तर कोरिया के कुछ लोगों और वेनेजुएला के कुछ समूहों का प्रवेश भी अमेरिका में प्रतिबंधित हो गया है। जाहिर है वेनेजुएला का महज़ एक नागरिक समूह इससे प्रभावित होता है तो वहीं उत्तर कोरिया के चंद नाम इसमें आते हैं।

ट्रंप की कथनी और करनी में अंतर
उत्तर कोरिया के साथ अमेरिका का छत्तीस का आंकड़ा है और इन दिनों तो दोनों देश बिल्कुल लड़ाई के मुहाने पर खड़े हैं। ऐसे में यदि उत्तर कोरिया पर भी ट्रंप अमेरिकी प्रवेश पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाते हैं तो शायद ही वह इस निर्णय से शेष दुनिया आश्चर्यचकित होगी। ईरान के साथ शैक्षिक आदान-प्रदान की नीति प्रभावित होते नहीं दिखाई देती। साफ है कि अमेरिकी छात्रों का कुछ नहीं बिगड़ेगा। आतंक के नाम पर प्रतिबंध वाला ट्रंप का यह निर्णय पूरी तरह गले इसलिए भी नहीं उतरता क्योंकि इस सूची में पाकिस्तान नहीं है जबकि वह जानता है कि आतंक का सबसे बड़ा शरणगाह पाकिस्तान ही है। शायद यही वजह है कि अमेरिकी जनता से लेकर ट्रंप के आलोचक तक यह संदेश गया है कि प्रतिबंध मुस्लिम विरोधी नीति और उनका निजी एजेंडा है। शायद एक वजह यह भी है कि वक्त की नजाकत को देखते हुए ट्रंप आतंक के मामले में पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात करते रहते हैं। वह यह भी जानते हैं कि प्रतिबंध से उनकी आर्थिक व व्यापारिक स्थिति पर रत्ती भर भी फर्क नहीं पड़ रहा है। ऐसे में यह माना जा सकता है कि प्रतिबंध वाला निर्णय अचानक नहीं बल्कि सोचा-समझा फैसला था। गौरतलब है कि प्रतिबंध लगाते समय ट्रंप ने कहा था कि बुरे लोगों को अमेरिका से दूर रखने के लिए सात मुस्लिम देशों पर प्रतिबंध लगाया है। जाहिर है लाभ-हानि के मापतौल में ट्रंप का ही पलड़ा भारी दिखाई देता है।

क्या वाकई में प्रतिबंध के पीछे आतंकी खतरा है या किसी अन्य प्रकार के अमेरिकी हित साधने का कोई दूरगामी फॉर्मूला। अमेरिकी जनता के मुताबिक यह हितों और सिद्धांतों के खिलाफ है और दुनिया ने भी इसको सही नहीं माना है। हालांकि इस मामले में भारत तटस्थ स्वभाव लिए रहा। बहरहाल ट्रंप सुविधा की फिराक में विश्व के कई देशों की नजरों में आ गए हैं। इतना ही नहीं कई मामलों में उनका चेहरा भी बार-बार बेनकाब हो रहा है। जिस चतुराई से ट्रंप दुनिया में धौंस जमाना चाहते हैं वह कूटनीति भी बहुत वाइब्रेंट नहीं है। भारत से गहरी दोस्ती परंतु चीन से तनिक मात्र भी मित्रता न घटाना ट्रंप की दोहरी चाल ही कही जाएगी। दक्षिणी चीन सागर में भारत, अमेरिका और जापान का अभ्यास जहां चीन को खटकता है वहीं उत्तर कोरिया से अमेरिका की तनातनी भी चीन को शायद ही भाता हो।

(लेखक वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के निदेशक हैं)
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